FOLLOWER

शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

राख



जल कर धूँ धूँ हो रहा था। व्यथित मन से अपनी आशाओं को धूूँआ धूँआ होता देख रहा था सपने तार तार हो रहे थे। गरीबी मजाक बन कर रह गयी थी 10 वर्ष पहले ही तिनका-तिनका जोड़कर एक छोटी सी दुकान रख पाया था। अभी तो सिर्फ एक ही बेटी व्याह पाया था।

वह तो बस घर आया ही था या यूँ कहे खाकर जैसे ही बिस्तर पर पड़ सोने की कोशिश कर रहा था कुछ चीखने चिल्लाने की आवाज सुनाई पड़ी थी पर उठने की हिम्मत नही उठा पाया था फिर भी जब आवाज कम होने का नाम ही नही ले रही थी तभी सोचा, देखू, 'क्या हो रहा?', आवाज कहाँ से आ रही।

आँखे फटी की फटी रह गयी।

मौसिया चाय की दुकान को, जहाँ युवाओं व नेताओं के सपने कुल्हड़ का चाय सिप करते हुए परवान चड़ते, आग ने अपने आगोश मे पूरी तरह ले लिया था।

राय क्लिनिक, कहने को किसी बडे डाँक्टर की क्लिनिक नही पर हर प्रकार के इलाज की व्यवस्था, भी धूँ धूँ हो रहा था जहाँ पूरे हिन्दुस्तान मे अधिकतर डाँक्टर सिर्फ पैसे और प्रसिद्धि के लिये कैसे लक्ष्मी के आगे हवसिया नज़र रखते वहाँ यही तो है गरीबो का मसीहा, इलाज बिना पैसे के अगले महीने दिहाड़ी के पैसे मिलने के आश्वासन पर करता था।

केसा चौराहे के पास इस अग्नि ने तो भूचाल ही ला दिया था हम लोगो के लिये ये घटनाये रात्रि स्वप्न से ज्यादा कुछ नही रात गयी बात गयी पर उनके लिये क्या जिनके सारे सपने चूर चूर हो कर जमींदोज हो गये।

गरीबी उन्ही राख मे से फिर से तिनका तलाश कर रही.…………

@व्याकुल

गुरुवार, 17 नवंबर 2016

मौन (लॉकडाउन पर परेशान कर्मचारी)



त्राही माम त्राही माम । आवाजे आ रही । मुझे नही सुनाई दे रहा । आप सुन रहे क्या । धन लोलुप्ता रो रही । पाप सर चढ कर बोल रही थी । बाल्मीकि की कहानी चरितार्थ हो रही । कौन किसका आखिर । पैसे लिये परेशान हो रहे । पत्नी से बोले देख लो, " नकारात्मक मुद्रा मे सर हिला दिया । बच्चे सामने नही पड़ रहे । आज ही बोध हुआ । इतिहास उदाहरणो से भरा पडा है, क्यो नही सबक लिया । मानसिक विक्षिप्त हो गया । कितने रोते हुए, गिड़गिड़ाते लोगों को अनदेखा कर अपनी माया को बढ़़ाते रहे । पश्चात्ताप से भरे हुए । ग्लानि से जकड़़े हुए । कोना ढूढ़ रहे । झूठी दुनिया से धड़़ाम गिरे । अन्तर्मन हिल उठा । आफिस मे बैठे बाकी लोगो की बातचीत जैसे ध्वनि दीवार से टकरा रहा हो । कुछ सूझ ही नही रहा । 'साहब कुछ लेकर ही कार्य कर दिजिये',ये वाक्य बेमानी लग रहा । एकाएक भावुक हुए सीट से उठे निकल पडे खुद की बेचारगी पर तरसते हुए । मौन चुपचाप अपना रास्ता तलासती रही।

@व्याकुल

बुधवार, 16 नवंबर 2016

मेरी कविता (एक भीखारी की मनोदशा)


मँदिरों शिवालो में
खोटे व छोटे सिक्को से
हिकारत नज़रो से
ईश की डर से
हाथो पर सिक्के डालते रहते।

रह गयी हसरतें
अहसास पाप का
सिक्के कहा गये
कातर नज़रो से
कागज के टुकडो से
बदले हुए डर से
कटोरी मे नोट डालते ।

परेशां व विस्मित हूँ
यह सोचकर
भ्रम को भ्रम समझूँ
या सत्य ।

@ व्याकुल

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...