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शनिवार, 4 सितंबर 2021

तपस्वीं

प्रयाग ज्ञानियों का आश्रयस्थल कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी.. न डिगे.. न टरे वाले तपस्वीं जो मेज-कुर्सी ठेले पर लाद लॉज तक बाखुशी लाये होंगे जहॉ बैठ अथक तपस्या कर सके। तौलिया का आश्रय स्थल जरूर कुर्सिया रही होंगी। हाथों की कुहनियॉ को सहारा देते मेज की भी आह निकल गयी होगी। कई बार तो उसने माथों को चूमा होगा जब हताश परेशान मेज पर सर टिका दिया होगा। तपस्या का आलम देखिये किं मेरे एक जानने वाले की कुहनियों पर चटाई का निशान बन गया था। 


भारत देश के लोग वैसे भी भरपूर आध्यात्मिक  होते है.. किसी पूर्व तपस्वी ने जरूर मार्ग बताया होगा कि यही वो जगह है जहॉ पर तपस्या सफल होती है.. फिर क्या था अनगिनत तपस्वियों ने योग मार्ग अपना लिया।


अल्लापुर हो या दारागंज या एलनगंज या कटरा हो... इलाहाबाद के तपस्वियों के लिये किसी एकांतवास से कम नही.. मन भटक ही नही सकता.. बगल के तपस्वी को देख पूर्णरूपेण दार्शनिकता व उर्जा घर कर जाती है.. मन भटकने का सवाल ही नही...


प्रयाग टेशन पर ट्रेन रुकते ही माघ जैसा दृश्य... साथी द्वारा तुरंत सामान की तलाशी जैसे कोई जड़ी-बूटी ढूंढ़ रहे हो। लईया.. गुड़..गट्टा.. बताशा.. कुछ भी मिल जाये.. ये किसी विटामिन से कम है क्या..लिये नही किं फिर हो जाते है ईश्वर में लीन। 


भगीरथ जरूर गंगा धरा पर लाये होंगे.. पर न जाने कितने भगीरथ प्रयास हुये होंगे ज्ञान रूपी गंगा को जन-जन तक पहुँचाने में। 


सरस्वती मॉ की रात दिन वन्दना करते इन तपस्वियों को बारम्बार नमन करता हूँ.... और यह श्रृंखला 135 वर्षो से जो आज तक सतत् बनी हुई है.... भविष्य में भी ऐसी ही धारा बनी रहनी चाहिये...

@व्याकुल

बुधवार, 1 सितंबर 2021

व्यथा चश्मे की

 


सुबह उठते ही

मुझे ही ढूढ़ते थे

कितने धीर हो

जाते थे तुम..


बड़े ही शौक से

तुमने चुना था मुझे

कई थे वहा

मेरे प्रतियोगी में..


जब तुमने मुझे 

देखा तो

फिर कोई और

पसंद नही आया..


ध्यान इतना देते

थे कि

थोड़ा सा भी

मैल नही होने 

देते थे..


एक दिन

मैं गिरा

डंडा 

बदलवाया

फिर तू

लापरवाह

हो गया..


आज 

गज़ब कर

दिया

एक हाथ 

दिया और

गुस्से में मुझे

गिरा दिया..


पहले भी 

मेरे ऊपर 

बैठ गए थे

मेरी तो आह!

निकल गयी थी

कभी श्रृंगार

सा था

अब नाज़ायज़

सा..


यही फितरत है

तुम इंसानो की

मतलब ही रिश्ते 

निभा रहा है

अन्यथा सब बेकार 

है..


@व्याकुल

तुम

सफर थकाने वाला रहा

आप से तुम तक का 

कल तक मर्यादाए थी

तुम बोल पाने में...


तुम भी बैचेन थी

लकीर तुम्हे भायी नही थी

वर्जनाओं को

तार-तार तुम्हीं ने की थी..


कल स्वप्न देखा था

लहरों को आगोश में लेते हुए

सुबह शुन्य में

विचरण करता रहा


गुँजता रहा कानों में

तुम का घोल

पिघलते रहे आप

बेसबब....


@व्याकुल

मंगलवार, 31 अगस्त 2021

माटी


अमोल का बहुत दिनों से मन नहीं लग रहा था विदेशी धरती की कुसंस्कृति उसको अंदर तक कचोटती रहती थी। आज दोस्तों के कहने पर क्लब आना पड़ा था उसे। सब मग्न थे पार्टी में पर वह उदास एक तरफ बैठा था।

सुबह से ही मन उद्विग्न था। पिता की तबीयत खराब थी। ठीक से बात नहीं कर पा रहे थे हर एक शब्द के बाद जोर की खांसी उन्हें पूरा वाक्य करने में दिक्कतें दे रहे थे, साथ ही वे कहते जा रहे थे, "बेटा, मैं बिल्कुल ठीक हूं, चिंता की जरूरत नहीं, तुम अपना ख्याल रखना।" 

देर रात पार्टी के बाद उदास बैठा था अभी फोन की घंटी बजी। दिल धक से हो गया। जैसे ही फोन उठाकर देखा किसी कम्पनी के विज्ञापन का फोन था। मन गुस्से से बाहर किया। ये उपभोक्तावादी युग जब तक इंसान को मार नही देगा, साँस नही लेने वाला।

सुबह तक अमोल को नींद नहीं आयीं थी। सुबह चिड़ियों की चहचहाहट सुनकर खिड़की से झांक कर बाहर देखा तो सूर्य देवता अँगड़ाई ले रहे थे। आँखें मलते उनकी लालिमा परिलक्षित हो रही थी।

तुरंत ही फोन मिलाया। 'टू' 'टू' कर  फोन कट गया था। चिंता की लकीरें उसके माथे पर घिर आयी थी। तेजी से एक मुक्का मेज पर दे मारा।

गांव से दिल्ली शहर का सफर दिल्ली से कैलिफोर्निया का सफर कैसे समय के साथ गुजर गया, पता ही नही चला। समय की गति भी अनहोनी है। इंसान के पास जब कुछ नहीं होता तब वों हर चीज पाने की आस रखता है। चीजें मिल जाने पर फिर पुरानी यादों की टीस जीवन पर भारी पड़ने लगती है। 

अमोल ने फिर से फोन किया। पिता जी का फिर वही खांसी। बात ठीक से नहीं हो पा रही थी उसकी आंखों में आंसू छलक आए थे। आवाज भारी हो गई थी।

सारा दिन अमोल उलझनों में रहा। मन में संकल्प ले लिया था। वों ऑफिस में अपने बॉस से मिला। त्यागपत्र का कारण बॉस ने पूछा था, "सोच लो बहुत बड़ी कंपनी है, लोंग यहां आने के लिए तरसते हैं" वों मूक था। मन में यही चलता रहा किं ऐसे पैसों का क्या करूँगा जब मेरे पालनहार ही नहीं होंगे। गाँव में कोई भी व्यवसाय कर लूंगा कम-से-कम इस दुनिया में मेरे साथ मेरे मां-बाप तो होंगे।

अमोल अमेरिका छोड़ने का मन बना चुका था। अगले दिन शाम की फ्लाइट थी। वों गांव आ गया था। लग रहा था जैसे वों किसी जेल में था या अस्पताल के वेंटिलेटर से मुक्त होकर खुली सांसे ले रहा था।

स्वदेशी माटी ही आपको तराशती है किं आप सारे विश्व में ढल सके। फिर भी वों माटी हतप्रभ रह जाती है जब अपने गले लगाने का संकोच करने लगते हैं।

अमोल ने सारे भ्रमों को तोड़ दिया था। माटी को जैसे पुनर्जीवन मिल गया हो।

@व्याकुल

डंठी

 

राह पर

रहु

या वजह बनु 

छॉव की

खुद जलु धूप 

पी कर

या ज्वाला की

ताप

सहूँ

अन्न पकने को..


कपकँपाते हाथ

से सहलाते

ओस से

सिहरते

बदन

बन सकु 

राख

किसी का..


बना ही

रहूँ

कृशकाय 

अभिलाषा

लिये दधीचीं का

पर

बोझ न बनु

किसी 

दीन का...

@व्याकुल

मटकी


                          चित्र: गूगल से

कल थी जहॉ

आज भी वही

पनघट वही

नीर वही

प्यासे वही

छाले वही

लकीरे वही

मटकी वही....


मटकी बूँद नही

सागर की

हो पेय कन्हैया 

की

एक गुलेल मारे 

कान्हा

तार दे सुदामा 

सी....

@व्याकुल

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...