बनना तो
चोटी
हिमालय
श्रृंग सा...
पिघल
भी
जाना
तृप्त
करने को...
करके
आत्मसात
छोटे
नीर को...
इठला
कर
भटक
न जाना
राह में...
भर
आना
झोली
हाथ फैलाए
इंसानों की...
दाता
बनना
या
समाये
रखना
बीज
प्रकृति का....
इतना
ही
करना
हिमालय सा
अटल
बने रहना...
@व्याकुल
आस पास तड़पते लोगो को देखना और कुछ न कर पाना कितनी कोफ़्त होती है न। व्याकुलता ऐसे ही थोड़े न जन्म लेती है। कितना तड़प चुका होगा वो। रक्त का एक एक कतरा बह रहा होगा। दिल से कह ले या आँखों से। ह्रदय ग्लानि से कितना विदीर्ण हो चुका होगा। पैर भी ठहर गए होंगे। असहाय इस दुनिया में सिवाय एक निर्जीव शरीर के।
बनना तो
चोटी
हिमालय
श्रृंग सा...
पिघल
भी
जाना
तृप्त
करने को...
करके
आत्मसात
छोटे
नीर को...
इठला
कर
भटक
न जाना
राह में...
भर
आना
झोली
हाथ फैलाए
इंसानों की...
दाता
बनना
या
समाये
रखना
बीज
प्रकृति का....
इतना
ही
करना
हिमालय सा
अटल
बने रहना...
@व्याकुल
मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...