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शनिवार, 19 जून 2021

गंगाजल - 4


गतांक से आगे....

आज सुबह माधुरी ने स्वप्न देखा था। एक महिला, जो सजी-धजी थी, जहाज से आयी और पूरे मकान में घूम कर वापस चली गयी। स्वप्न का क्या अर्थ हो सकता है????

माधुरी को नींद आयी ही नही सुबह तक। 

सुबह माधुरी को अजीब सा अहसास हुआ। घर के आस-पास सादी वर्दी में कुछ हलचल महसूस हुई। सब सो रहे थे। दिवार को फाँद कर लगभग बीस-पच्चीस लोग घर मे घुस आये।

माधुरी चिल्ला कर कुछ कहना चाह रही थी, तभी उसका मुँह बंद कर दिया गया। घर से भागने के सारे रास्तें बंद कर दिये गये। 

घर की छान-बीन शुरू हो चुकी थी। तब तक सभी लोग उठ गये थे। मोहन का चेहरा पीला पड़ चुका था। 

मै हतप्रभ रही। 

"ऐसा क्या हो गया"

इशारों में मोहन से पूछने की कोशिश की।

मोहन मौन था। नजरें नीची कर लिया था। 

मै पहली मंजिल का सारा माजरा समझ गयी थी।

पुलिस कई बक्से नोटों की ले गयी। पूरी मंजिल सील हो गयी। मोहन के हाथों में हथकड़ी। 

अगलें दिन समाचार-पत्रों की मुख्य सुर्खियों में मोहन ही थे। समाचार पत्रों से मुझे भी पता चला किं घर में करेंसी छापने की मशीन लगी थी।

मुझे तो सारा दिन स्वप्न ही तैरने लगा। समझ नही आ रहा, क्या करूँ????

मोहन को छुड़ाने के सारे प्रयास असफल हुये। मामला कोर्ट में था। घर की नीलामी हो गयी। मै भाई के घर इलाहाबाद आ गयी.....

©️व्याकुल

क्रमशः

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गंगाजल - 3

 गतांक से आगे...

शादी के इतने वर्षो बाद भी माधुरी का दिनचर्या बहुत ही संतुलित था। नौकरों से दयालुता का व्यवहार था। किसी के भी बीमारी या शादी में पैसे की कोई कमी नही होने देती थी।

आज सुबह पूजा में बैठी ही थी कि घर में कोलाहल का आभास हुआ था। पता चला कि राम दयाल को दिल का दौरा पड़ गया। हॉस्पिटल पहुँच ही पाते साँसे थम चुकी थी। घर पर मातम छाया हुआ था। मोहन को तो जैसे होश ही नही रहा। 

समय ने कैसी करवट ले ली थी माधुरी के जीवन में। अभी कुछ ही दिन तो हुये थे मॉ-पिता एक दुर्घटना में चल बसे थे। भईया इलाहाबाद आकर बस गये थे।

अब मोहन अकेला रह गया था। सच ही कहा गया है किं पिता का साथ किसी भगवान से कम नही होता। पिता तो वो हैं जो आपकों कभी हारने नही देते। पिता तो वो हैं अपने सारे अनुभव उड़ेल देते है बच्चों में। उन्हें हमेशा ही अपने बच्चें नासमझ लगते है। मोहन का नियम था, सुबह प्रतिदिन एक घंटे पिता के पास बैठते थे। आज पिता का साया उठने पर किसी से आँखे मिलाने का साहस नही कर पा रहे थे।


ससुर के जाने के बाद से माधुरी ज्यादा सजग रहने लगी थी। उसकों बस हमेशा ही एक बात अखरती रही है.. मुझे आज तक क्यों नही पहले मंजिल पर जाने दिया गया। कुछ लोग तो बे-रोक टोक चले जाते थे, पर मैं नही। आखिर ऐसा क्या था। वों इंतजार में थी किं कभी ऐसा समय आये जब लोग घर में न हो, तब देख आयें। मोहन से कई बार पूछा भी था। उसने हँस कर टाल दिया था और कहा करता था, "तुम्हें बिजनेस समझ नही आयेगा।" 

माधुरी असंतुष्ट अपने घरेलू व्यवस्थाओं में लग जाती।

आज सुबह से ही शहर में हलचल थी। इधर कुछ दिनों से समाचारों में भी ये बात सुर्खियाँ बनी हुई थी। दिल्ली से पचास अधिकारियों का डेरा कानपुर में लगा हुआ है....

©️व्याकुल

क्रमशः

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गंगाजल - 2


गतांक से आगे....

माधुरी को अपने पति मोहन से कभी कोई शिकायत नही रही। सब कुछ हँसी-खुशी अच्छे से चल रहा है। पति ने भी कभी कोई कमी नही कर रखी है। 

मोहन का कानपुर शहर के बीचों-बीच बड़ा सा घर है। नौकरों के रहने के लिये अलग व्यवस्था थी। उस बड़े से मकान में मोहन के भतीजे व और भी रिश्तेदार बड़े मौज में रह रहे है। 

माधुरी आनन्देश्वर मन्दिर हर सोमवार जाया करती। शिव की आराधना उसने 10 वर्ष की उम्र से ही शुरू कर दिया था। मॉ बहुत समझाती, 

"बिटिया, शरीर को इतना न कष्ट दे" 

पर माधुरी को जैसे शिव भक्ति के विपरित सुनना कुछ अच्छा नही लगता था। आज भी उसने जैसे प्रण ले लिया हो शिव भक्ति का।

मोहन की साख कानपुर के बड़े घरानों में अच्छी थी। ऐसा कोई नही था जो मोहन की उपेक्षा करता। दान-पुण्य खुल कर करता था मोहन। 

राम दयाल फर्नीचर के पुराने व प्रतिष्ठित व्यवसायी थे। यह उनका पुश्तैनी व्यवसाय था। कुछ दिनों से राम दयाल की तबियत ठीक नही थी। मोहन ने न सिर्फ अच्छे ढंग से व्यवसाय ही संभाला था बल्कि बहुत आगे तक लेकर जा चुके थे। 

मोहन का सपना था कानपुर के सबसे धनाढ्य वर्गों में उसका नाम हो वो उसने प्राप्त कर लिया था।

©️व्याकुल

क्रमशः

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शुक्रवार, 18 जून 2021

गंगाजल - 1


आज उसकी शादी के एक वर्ष हो गये थे। बहुत ही बड़े घर में शादी हुई थी। धन-दौलत की कोई कमी न थी। हर काम के लिये नौकर-चाकर। इच्छा जाहिर करने भर की देर थी। 

माधुरी के पिता शिव चरन मिर्जापुर के बड़े वकील थे। शिव चरन की ख्वाहिश भी थी किं सम्पन्न घर में ही विवाह करना है। राम दयाल के लड़के मोहन से माधुरी का विवाह जेठ माह में हुआ था। हाथी, घोड़ा व पालकी सभी कुछ तो आया था। चिलबिला का नाच भी। बड़ा ही मनमोहक था सब कुछ। आस-पास कई महिनों तक शादी ही चर्चा का विषय रहा। मिर्जापुर के प्रतिष्ठित कॉलेज का प्रांगण दुल्हन की तरह सजाया गया था। हर एक व्यक्ति हर्षोल्लास के साथ बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहा था।

माधुरी एक मात्र पुत्री थी। बहुत ही लाडली। माधुरी सौम्य,सुशील व मृदुभाषी थी। सबकी प्यारी। भाई छोटा था। पिता ने खर्च करने में कोई कोर कसर नही रख छोड़ी थी।

बारात तीन दिन तक रही थी। नाच-गाने का माहौल बना हुआ था। दोनों तरफ के पंडितों का शास्त्रार्थ भी हुआ था। उस दिन माधुरी का सपना सच हो गया था....

@व्याकुल

क्रमशः

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किरकिट


अल्फ्रेड पार्क ही जनसामान्य के बीच प्रसिद्ध था... स्टेडियम का नाम.. जिसे हम आज मदन मोहन मालवीय स्टेडियम कहते है। स्टूडेंट गैलरी के भी अपने अफसाने है। बूआ के लड़के इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र थे, मुझसे पूछे थे, "चलना है दलीप वेंगसरकर (वेंगी) को देखने।"

लोगो का नही पता पर मुझे क्रिकेट खिलाड़ियों में वेंगी की बैटिंग भाता था बहुत। 

चित्र: गूगल से

मै मना क्यों करता।

चल पड़े हीरों साईकिल पर सवार हो के। बात ये थी 1986 की। किरन मोरे.. वेंगी.. चंद्रकांत पंडित.. संदीप पाटिल... राष्ट्रीय स्तर के खेल में इतने दिग्गजों का ही होना बहुत होता था। टिकट लिया गया.. तमाम जाँच पड़ताल के बाद घुस लिये। स्टूडेंट गैलरी की सीढ़ियों में तीर्थयात्रियों के बीच बैठे मैच का रसास्वादन क्या लेता... आधा किलों मूँगफली खाते रहे.. खिलाड़ी और मैच दोनों समझ न आते रहे...खिलाड़ियों के बाउंड्रीवाल पर आने के बाद ही कुछ समझ आता था... तभी बगल में एक सज्जन जो काफी देर से कबीरा गा रहे थे... चपाक से चरण पादूका पड़ी...फिर क्या था???? असली मैच इन सीढ़ियों पर होने लगा... मै और भाई धीरे-धीरे सरक लियें... सुना था कभी भगदड़ हुआ था किसी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के मैच में... इलाहाबाद की धरा तो वैसे भी भीड़ संभालने में अभ्यस्त है फिर मैच में असंयम क्यों??? मेरे कानों में आज भी वही कबीरा गूँजा करता है...हसरते ही रह गयी प्रयागराज में एक और कोई किरकिट मैच का....

©️व्याकुल


परमार्थ

 

कबीर जी ने कितनी सुन्दर बात कही है....

वृक्ष कबहुँ न फल भखै, नदी न संचय नीर।

परमार्थ के कारने साधुन धरा शरीर।।

प्रकृति का स्वभाव ही है परमार्थ का। कबीर दास जी इतनी गहरी बात कह गये किं जिसके बाद कुछ बचता ही नही। हम परमार्थ तो भूल ही गये उल्टे बेतहाशा संचय ही अपना कर्म मान लिया। 

परमार्थ है तभी सृजन है। प्रकृति स्व सृजन का कार्य करती है और ये अंतहीन सिलसिला है। अपने उद्भव से निरंतर अथक करती आ रही। हमे एक साधू चित्रकूट ऐसे मिले जो अपनी कुटिया ही छोड़ दी क्योंकि उनका शिष्य उनके साधन मे विघ्नकारी था। अकल्पनीय है न!!!!! क्या ऐसा आज के समय में संभव है??? नही न... 

बहुतेरे उदाहरण है जहॉ साधुओं मे संपत्ति के लिये हत्या तक हो गयी।

कबीर दास को ये बोध किसी बड़े विश्वविद्यालय में नही हुआ। वो तो यहॉ तक कह गयें किं

"मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।

चारिक जुग को महातम, मुखहिं जनाई बात।।"

मुख से ही चारों जुग की बात बता गये। 

सीख दे गये प्रकृतिजन्य में ही भलाई है। खुद को प्रकृति ही समझ लेना बड़ा गुनाह।

इंसान तो कहेगा ही वो निर्जीव है। नदियों को मोह से क्या??? वाह रे!!!! जल घुटकना छोड़ दिये क्या???नदियाँ जल लोटे में लेकर नही चलती.. उसे तो समग्रता को दृष्टिगत रखना है.. हम तो व्यष्टि से आगे बढ़ ही नही पाये...  

इंसान एक बार प्रकृति से साक्षात्कार कर जीवन को ध्येय बना ले... समझिये जीवन जीने का मंत्र मिल गया....

©️व्याकुल

गुरुवार, 17 जून 2021

उन्मुक्त


उन्मुक्त की
परिभाषाएं
कैसे गढूँ????

गौतम बन
जाऊँ
या
लूँ कमंडली
ठौर कर लूँ
हिमालय का...

भाग
लूँ
जैसे
कभी भागा
था
जिद्द थी
मॉ से...

अचेतन
सा
स्थिर
हो जाऊँ
और
विलीन
कर लूँ
खुद में...
@व्याकुल

मंगलवार, 15 जून 2021

सुंघनी


प्रयागराज के घंटाघर अगर आप आ गये तो समझिये समुद्र में आ गये। एक लहराती नदी मीरापुर-अतरसुईया से आकर मिल जाती है... दूसरी नदी मालवीय नगर-कल्याणी देवी से होते हुये लोकनाथ के तट पर समाप्त होती है...तीसरी नदी मुट्ठीगंज से कई नदियों को समेटे नीम के पेड़, जिसकी गाथा स्वतंत्रता सेनानियों की लहू से लिखी गयी है, पर आकर विलीन हो जाती है... जीरो रोड.. ठठेरी बाजार को आप जूहू बीच समझ सकते है.. इन्ही समुंदर में मै भटक रहा था तम्बाकू की मोटी बड़ी पत्ती के लियें। बोला तो यही गया था कि वही चऊक में ही मिलेगा। मैने पान खाते देखा था लोगो को.. बीड़ी-सिगरेट का सुट्टा लगाते देखा था पर तम्बाकू की पत्ती का क्या। खैर.. बुजुर्गो का आदेश था तो मानना ही था...आखिरकार मुझे एक छोटी सी दूकान पर तम्बाकू के पत्तियों के विभिन्न प्रकारों के विक्रेता दिख ही गये। याद तो नही पर था बड़ा ही सस्ता। ले आया। बड़े चाव से उसको पीसा गया.. मुझे भी देखने में आनन्द आ रहा था.. फिर एक बेलनाकार छोटे सी लकड़ी में उसकों भरा गया। जब मन होता बड़ी तन्मयता व गहरी सांस  के साथ उसको खींच कर आनन्द लेते मै देखा करता था। सुंघनी ही था उस चकल्लस का नाम.. जब नाक के पास ले जाकर खींचते थे तो लगता था वे परमतत्व से साक्षात्कार कर रहे हों... स्टाक खत्म होते ही फिर वही चऊक का चक्कर। 

हमे इंतजार रहता था सुंघनी खत्म होने का... नशा कम ही भाता था मुझे... एक ही नशा था... लस्स्स्सीसी...का...हमे तो वैसे भी लोकनाथ की लस्सी खींच ले जाती थी!!!!!!!

©️व्याकुल

रविवार, 13 जून 2021

वाह रे रक्त!!!!!

 



रक्त रक्त बह चले

संकरी सी राह में

बाँधते ये देह को

लौह सा प्यार लिये


ताल ताल मिला रहे

धक् धक् कदम यें

रुके नही थके नही

सरपट से ये दौड़ते


कर्ण से न सीखते

सीख लिये मॉ से

सतत् सिंचित रहे

अथक अंधकार में


चार ये गुण लिये

सुत जैसे सरयु के

बिंध दे वैरी को

रक्त ये उतार के


@व्याकुल

खामोश पहिया

धनंजय को जबर्दस्त पान की लत थी। ऐसा कोई दिन नही जाता था जब वों पान न खाता हों। किस तम्बाकू में नशे की कितनी गहराई है उससे बेहतर कोई बता नही सकता था। मोहल्लें के आस-पास के पान वाले उसका मूड देखकर पान बना देते थे। आज वो कही खोया- खोया था। पान वाले की बक-बक उसकों सुनाई नही दे रही थी। थोड़ी देर बाद पान वाले ने भी धनंजय का मूड देख चुप हो गया था।

सिर्फ उसने पान वाले से यही पूछा, 'गाँधी महाविद्यालय' के आस- पास कोई बेहतरीन दूकान है क्या पान की? पान वाला सिर्फ 'खालिद पान' ही बोल पाया था किं धनंजय पाँच का सिक्का ऊपर की जेब से निकाला और बिना कुछ प्रत्युत्तर किये चला गया।

धनंजय के कपड़ों से लगता था कि आर्थिक स्थिति बहुत ही बेकार है। शक्ल तो भगवान ने ऐसी बना रखी थी किं समाज के अंतिम पायदान का अंतिम व्यक्ति का प्रतिनिधि हो जैसे। पता नही क्या उसके दिमाग में चल रहा था वो 'ठाकुर साईकिल' वाले के सामने खड़ा हो गया। कुछ देर पंचर बनता देखता रहा। तभी वो कुछ सोच अजीब सी भाव-भंगिमा बना मुस्कुराया जैसे उसे कुछ खजाना मिल गया हों। उसने 'ठाकुर साईकिल' वाले से पूछा, 'कोई पुरानी साईकिल मिलेगी क्या?' दुकान वाला बोला, 'हाँ, साहब!मिल जायेगा', '22 इंच की है'। धनंजय ठहरा 5 फिट 5 इंच। कुछ देर सोचने के बाद बोला, 'ठीक है'।

आज वह बहुत दिनों के बाद साइकिल सवारी पर था। पूरे शहर का चक्कर लगाया। तिकोना पार्क का ३ चक्कर लगा दिया। उसे अपने बचपन की एक-एक घटना मन:स्मृति में उभर आई थी।

साईकिल कब 'गाँधी महाविद्यालय' के गेट तक जा पहुँची ध्यान ही नही रहा उसे। एकाएक उसे गेट पर 'खालिद पान' वाला दिख गया। पान की दूकान पर पहुँचते ही याराना अंदाज में बोला, 'खालिद भाई' "पान की तलब लग रही", "दो बीड़ा पान बना दों"। खालिद भी फुर्सत में था। रेडियों पर टेस्ट मैच की कमेंट्री सुन रहा था। तुरंत धनंजय की तरफ देखा और बुदबुदाया, 'जी, साहब'।

पान की बीड़ा मुँह में दबाते ही बोला, "खालिद भाई! पान तो गजब का बनाते हैं"। प्रशंसा किसे पसंद नही। खालिद की आँखों में चमक आ गयी थी। 
धनंजय की खालिद से दोस्ती दिनोदिन परवान चढ़ रही थी। कॉलेज के विद्यार्थी भी खालिद की दूकान पर होंठ लाल करने आ जाते थे। धीरे-धीरे धनंजय की जान पहचान कॉलेज के विद्यार्थीयों से हो गयी थी।
अधिकांश विद्यार्थी ऐसे थे जो काफी डरे हुए, संयमित व संशकित से रहते थे। खालिद से पूछता भी तो कैसे? अभी मै खुद उनका नया मुलाजिम था।

दीपक सौम्य व सरल व्यक्तित्व का स्वामी था। खालिद की दूकान पर आते ही हाय हैलो हुआ उससे। पान खाते - खाते काफी बात हुई और उसने बताया कि कैसे उसने इस प्रतिष्ठित महाविद्यालय में प्रवेश लिया था। दिन-प्रतिदिन हमारी दोस्ती प्रगाढ़ होती गयी। अब तो हमारी बातचीत व्यक्तिगत् स्तर पर भी होती रही।

आज सुबह कॉलेज में पुलिस वालों की काफी भीड़ थी। कई सीनियर छात्र पकड़े जा रहे थे। जूनियर की रैगिंग के आरोप में। पुलिस वाले चुन चुन कर दोषी विद्यार्थियों को शिकंजे में ले रहे थे।

शायद!! खालिद की दूकान मेरे जीवन का अंतिम दिन रहा। मैने साईकिल खालिद को यह कह कर दी थी किं "आऊँगा एक दिन अपनी हवाई जहाज लेने, सम्भाल कर रखना इसको"।

©️व्याकुल

किराये का घर

मसालों का शहर यही तो पढ़ा था इस जगह के बारे में। वास्कोडिगामा भी यही आये थे कालीकट में । भारत की प्राण "मानसून" भी यही जन्म लेती है।  साक्षरता भी यही है। देवेश इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने यही तो आया था।  उसके लिए ये नया शहर था। हॉस्टल का खाना उत्तर भारतीयों के लिहाज़ से उसे पसंद नहीं आया। उसने बाहर कही रूम लेकर पढ़ाई करने की ठानी। अनुशासित बहुत था वो। पिता के इकलौते पुत्र।  बाहर रहने लगा देवेश।  खुद ही खाना भी बनाने लगा। जिस मकान में रहता था वो बहुत ही खूबसूरत था। मकान के पास का चित्रण करने बैठ जाइयें तो यथार्थ में स्वर्ग का गाथा लिख जाए। करीने  से नारियल का पेड़ और केले की खेती एक अलग  दृश्य उत्पन्न कर रहे थे।  

ज्यादा कुछ जानता तो नहीं था मकान मालिक के बारे में। बस आज तक एक भद्र महिला ही दिखी थी। दूरियों की एक वजह भाषा भी थी। महीने एक बार मकान मालकिन आती  थी, मुझे समझते देर नहीं लगती थी किं क्यों आयी है वो। किराया दे देता था और वो चली जाती थी। संवाद के लिए इशारों में बात हो जाय करती थी।  थोड़ी बहुत टूटी-फूटी अंग्रेजी समझती थी। हिंदी तो बिल्कुल नहीं। मै ठहरा ठेठ उत्तर भारतीय। अंग्रेजी में भी आखिर कितने देर तक पिटर पिटर करता,थोड़ा बहुत में लगता बहुत बात हो गया। माथे की शिकन बताती थी उन्होनें अपने जीवन में बहुत संघर्ष झेला था। सामान्यतः केरल के लोगो की तुलना में साफ़ रंग की थी।  ज्यादा कुछ समझने का समय भी नहीं मिलता और कोशिश भी नहीं की।

एक दिन कॉलेज से आने के बाद सोया ही था की वो महिला दौड़ी दौड़ी मेरे पास आयी।  

बोली, "सन, मेरी पद्मिनी का पता नहीं कहाँ चली गई"

"पद्मिनी!!!!  ये कौन ???? "

विस्मित स्वर में मैंने  पूछा था,

"अरे बेटा, मेरी बेटी। "

"ओह " "पर, आंटी मै तो उसको पहचानता नहीं "

उसने तुरंत फोटो लाकर दिखाई। वो को साँवली सी लड़की थी। उम्र कोई 17-18 वर्ष की।  

मैंने फोटो हाथ में लिये कपड़े पहन निकलने को ही था किं मकान मालकिन के यहाँ से तेज-तेज आवाज आने लगी।  माँ-बेटी का वाक् युद्ध मेरे कानों में निरन्तर पड़ रही थी।  मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था बस दोनों के चेहरे के भाव भंगिमा से कुछ समझने की कोशिश कर रहा था। उस लड़की के पास पिट्ठू बैग था।  लग रहा था जैसे वो कही भागने की तैयारी की हो। लड़के ने धोखा दे दिया हो और वो वापस आ गयी हो। ऐसा ही होता है हम हमेशा बहुतों के बारे में ऐसी ही सोच बैठा लेते है।

मै चुप चाप अपने रूम पर आ गया।  

उस दिन के बाद से फिर उनके घर से कोई हलचल नहीं दिखी। कभी कभी अब मेरा भी मन हो जाता था किं आखिर उस दिन हुआ क्या था।

मै अब अंतिम वर्ष में था मुझे थोड़ा  मलयालम समझ आने लगी थी

वो दोनों अब मुझे पहले की तुलना में ज्यादा दिखने लगे थे। कभी-कभी दोनो मॉ-बेटी से बात भी हो जाया करती थी। 

मुझे पद्मिनी अच्छी लगने लगी थी। मैने एक दिन बातों बातों में मकान मालकिन से अपनी इच्छा जाहिर की थी वो कुछ बोली नही मुझे बस देखती रही।

आखिरकार मकान मालकिन ने एक दिन शादी के लिये अपनी हाँ कर दी थी पर इस शर्त के साथ की यही केरल में ही शादी होनी चाहिये। मै अपने घर से किसी को बुला नही पाया था। शादी संपन्न हो गयी। मेरी इंजीनियरिंग की पढाई को भी समाप्त हुये कई महीने बीत चुके थे। मै अपने पिता से कोई न कोई बहाना बना केरल में रुका रहा।उन्हे पता भी नही था किं मै शादी कर चुका हूँ। मैने अब वापस प्रयागराज चलने का मूड बना लिया था। प्रयागराज पहुँचते ही पिता जी का पारा सॉतवें आसमान पर था। वो घर में घुसने ही नही दिये। वो पुरातन सोच व अन्तर्जातीय विवाह के सख्त खिलाफ थें। बहुत दिनों तक हम दोनों घर के बाहर बरामदें मे पड़े रहे। 

एक दिन सुबह आँख खुली तो घर पर ताला लगा देखा। पता चला वो मकान बेच चुके है। मै अपनी ही माटी में बेगाना हो चुका था। इस छोटे से शहर में तत्काल नौकरी मिलना टेढ़ा काम था। पद्मिनी को सिलाई अच्छी आती थी। वों कही से किराये की मशीन ले आयी और घर के बाहर प्लास्टिक की शीट डालकर सिलाई करने लगी थी। मै बेरोजगार काम तलाशता रहता। तभी एक दिन कोई नये लोग मेरे अपने ही घर में शिफ्ट होते रहे।

मै अपने ही घर में बेगाना सा उनसे थोड़ी सी जगह व किराये के लिये गिड़गिड़ाता रहा....

©️व्याकुल

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...