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मंगलवार, 13 सितंबर 2022

व्यथा

 


कैकेई आत्म ग्लानि में डूबी थी। उसे मंथरा के शब्द सुनाई नही दे रहे थे।


"मुझे कुछ देर के लिये अकेला छोड़ दों।" बस यही कह पायी थी।


शरीर साथ नही दे रहा था। कल सुबह किसकों अपना मुँह दिखाऊँगी। 


महल में सब ताने दे रहे होंगे, "अपनी मॉ पर गयी है" , "दासियों के पालन पोषण से ऐसे ही संस्कार होते है।"


पूरे महल में कोहराम मचा हुआ था।


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अगली सुबह सिर दर्द जोरों से हो रही थी। दासियों की पास आने की हिम्मत नही हो रही थी।


मंथरा एकाध बार परदे की ओट से झाँक कर चली गयी थी। 


पिता की इकलौती बेटी ने एक छोटी सी जिद्द के आगे एक नही दो-दो साम्राज्यों को कैसे नीचा दिखा दिया था। पूरा महल शोक में डूबा हुआ था।


पुत्र मोह ने ऐसा पागल कर दिया था कि अच्छे-बुरे का फर्क ही नही दिखा।


कभी- कभी इंसान अति प्रशंसा में भी दिमागी नियंत्रण खो देता है। कैकेई की मति भी अति प्रशंसा में बिगड़ गयी थी।


कैकेई की भूख प्यास खत्म हो गयी थी। महल कैद खाना जैसा लग रहा था।


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राजा दशरथ के महाप्रयाण के बाद माता कौशल्या के ऊपर पूरे परिवार को सम्भालने की ज़िम्मेदारी आ गयी थी। 


आज उन्होनें कैकेई के भवन की ओर रुख किया था। 


दासियों ने दौड़ कर कैकेई को सूचना दी। जब तक कैकेई खुद को सम्भालती कौशल्या एकदम सामने थी।


"कैकेई!!!!! ये क्या हाल बना रखी हो।"


कौशल्या हतप्रभ थी। दासियों को कुछ खानें के सामान लाने को इशारो में तब तक बोल दी थी।


कौशल्या को देखते ही कैकेई उनसे लिपटकर अपराध बोध ग्रस्त रोती रही। 


"बहन, मै कैसे राम को मुँह दिखाऊँगी????" , "सब मेरे बारे में क्या सोच रहे होंगे???" "हाय!!!मैने रघुवंश को कलंकित कर दिया"

एक साथ कई अपराध भावना प्रस्फुटित हो गये थे।


कौशल्या ने कैकेई के साथ ही रहने का संकल्प ले लिया था.. कैकेई को इस हालत में कैसे छोड़ सकती थी.. शायद समय कैकेई के भी घाव भर दें।


@विपिन पाण्डेय "व्याकुल"

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