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शनिवार, 31 जुलाई 2021

अबोध

घना कोहरा था। जाड़े की कड़कड़ाती ठंड थी। बाहर से आवाज आयी, 

"मूँगफली ले लों" 

मैंने खिड़की खोली तो देखा 10-12 वर्षीय एक बालक मूँगफली बेच रहा था। 

मैं आश्चर्यचकित था किं इतना छोटा बच्चा वो भी इस ठंड में।

मूँगफली जाड़ें के मौसम में असीम सुख देती है। मूँगफली के साथ की चटनी तो और भी सुखद। 

मैंने घर के अंदर से ही पूछा था उससे, "चटनी भी लिये हो क्या????" 

उसने कहा था,  "जी साहब!!!"

मैं तुरंत घर से बाहर आ गया। 

उस लड़के को नजदीक से देखते ही मेरे पाँव से जमीन खिसक गई थी। मैं अवाक् रह गया था। मेरे मुँह से इतना ही निकल पाया, "अरे!!!!! तुम..."

उसकी यह हालत देख मैं शुन्यता में चला गया था। कुछ समझ ही नहीं आ रहा था क्या बोलूं????

खुद को संभालते हुए मैंने पूछा, "बेटा, तुम ऐसी हालत में....."

प्रचंड ठंड में महीन सूती कपड़े की पायजामा व पुरानी शर्ट पर हाफ स्वेटर पहने दयनीय हालत बयां कर रहा था मेरा ध्यान उसकी कटकटातें दाँतों पर था....  मैंने उससे आधा किलों मूँगफली ली। सोचा थोड़ा बढ़ा कर पैसा दे दूँ पर उसने साफ कह दिया था, "पैसे, इतने ही हुये है.."

मै उसकी ईमानदारी पर खुश था

उस छोटे से बच्चे की मासूमियत का इस तरह से बर्बादी मुझसे देखी नहीं जा रही थी।

मैं और भी कुछ पूछता बच्चा बोला, "अंकल चल रहा हूं बाद में बात करूंगा, चलते वक्त माँ ने बोला था किं बेटा बहुत ठंड है जल्दी घर आना"

"पापा अब नहीं रहे है न..."

इतना कहते हुए वह वहां से चला गया था।

मैं कुछ पूछता उससे पहले ही उसने बोला था। 

मै निःशब्द हाथ में मूँगफली लिए बहुत देर जड़वत रहा। 

मेरा हृदय पसीज गया था। क्या बोलता मैं????

कुछ भी कहने को नहीं था। बस मेरी आँखों के सामने उसके पिता की तस्वीर घूम रही थी। नशे में धुत उसके पिता का साइकिल लहराते हुये व डगमग-डगमग सड़क पर चले जाना व उसकी माँ का गोद में छोटा बच्चा होने के बावजूद पति को संभालते रहना। पीछे से छोटा सा यह बालक।

कई वर्षों से मैं यही क्रम देखता चला आ रहा था। 

नियति का ही खेल था पिता की गलत आदतों की सजा बच्चा भुगत रहा है.. व्यसन इंसानों को कहीं का नहीं छोड़ती। धन-तन-मन कुछ भी शेष नहीं रहता।

स्टेशन पर उसका एक कैंटीन था जिससे उसकी जीविका चलती थी। जैसे ही उसने पैसा कमाना शुरू किया गलत संगत से आदतें बिगड़ती रही। 

कहते हैं धन बहुतायत में हो तो व्यक्ति की आदतें बिगड़ने की संभावनाएं बहुत बढ़ जाती है। अत्यधिक शराब पीकर रहना उसकी मौत का एक कारण बन गया था।

शायद उसे पता नही था अपने पीछे उस मासूम के स्कूली बैग लदे कँधे को भी वीरान कर रहा है जो मजबूूत कर रही थी भविष्य निर्माण कों।

ये काँधे मूँगफली की डलिया संभाल नहीं सकती थी।

आँखें हमेशा प्रतीक्षा करती उस बालक का और मन में एक प्रश्न रहता कैसे देख पाऊंगा उन नन्हे से हाथों से तराजू की सुइयों को साधते हुए....

@व्याकुल

रविवार, 25 जुलाई 2021

शेखर

उसने जिद पकड़ ली थी। मेरा हाथ पकड़ कर बोला, 

"मुझे कहीं नहीं जाना, मुझे सिर्फ तुम्हारे साथ ही रहना है।" 

मैं क्या जवाब देता। मैंने कहा, 

"ठीक है भाई, तुम मेरे साथ ही रहना।"

शेखर को आये हुए कुछ घंटे ही व्यतीत हुए थे। मैंने सुन रखा था शेखर की मानसिक हालत ठीक नहीं। शुरुआती बातचीत में मुझे तो सब कुछ ठीक लग रहा था। लगा ही नहीं की उसकी तबीयत ठीक नहीं है।

जब वह घर आया था पुरानी चर्चाएं छेड़ दी थी उसने। मैं भी बहुत देर तक पुरानी यादों में खोया रहा।

बातचीत के बीच में कई बार उसने रिया का नाम लिया था। रिया से वह बहुत प्यार करता था और शायद रिया भी उससे उतना ही प्यार करती थी।

शेखर एक जिंदादिल इंसान था। सिर्फ जिंदादिल इंसान ही नहीं बल्कि पढ़ाकू भी था। ये कह सकते हैं कुछ विशेष गुण जो लोगों को अपने सम्मोहन में बांध देते थे मैं भी शेखर के ही सम्मोहन में बंधा हुआ था। अस्सी के दशक में प्रयागराज के सिविल लाइंस में राजदूत से घूमना हम लोगों का शौक बन गया था कोई नही कह सकता था किं शेखर सोलह वर्षीय बालक है।

तब तक तो सब ठीक था पर अचानक से इन तीन वर्षों में ऐसा क्या हो गया जो शेखर को इतना बदल कर रख दिया था। मेरे सर में दर्द होने लगा था। शेखर की बातें मुझे सुनाई नहीं दे रहे थे। मन द्रवित हो रहा था। 

हाय!!!! किस्मत का खेल... 

शेखर को आज क्या हो गया। वह आज भी ऐसे बात कर रहा था जैसे रिया से मिलकर आया हो।

रिया मोहल्ले की निहायत खूबसूरत लड़की थी आंखें ऐसी थी जैसे बोल रही हो। सुन्दर इतनी जैसे ईश्वर ने खुद रचा हो। उसके पास से जो गुजरता देखता ही रह जाता।

रिया के जादू में वह पूरी तरह आ चुका था उसने रिया के छत पर जाने का समय व रिया के बाहर निकलने का समय हर चीज पता कर लिया था। बाद में से उसका मिलना जुलना भी जारी हो गया था।

याद है मुझे, जब रिया ने उससे मंदिर में मिलने का वादा किया था। पहली मुलाकात में शेखर बहुत घबराया हुआ था मुझे भी साथ ले गया था। मैं मंदिर के बाहर बैठा रहा शेखर रिया के साथ मंदिर के अंदर गया। कब दोनों दूसरे दरवाजे से निकल गए पता ही नहीं चला। मैं बाहर बैठा इंतजार कर रहा था। एक घंटे बाद जाकर देखा तो दोनों नदारद थे। शेखर रिया का मिलना जुलना जारी हो गया था। कभी कंपनी बाग तो कभी मिंटो पार्क दोनों मिलते रहते थे। मेरी शेखर से मुलाकात अब कम होने लगी थी मुझे लग गया था शेखर का जीवन ठीक चल रहा था। शेखर ने सोच लिया था शादी करना है तो सिर्फ रिया से। 

पर होनी को कुछ और ही मंजूर था।

इधर शेखर रिया के प्यार में था, उधर शेखर की मां चल बसी पर शेखर को सहारा देने के लिए रिया तो थी ही ना। मां का गम धीरे धीरे शेखर भूल गया था। उसके पिता ने दूसरी शादी कर ली थी जो शेखर को पसंद नहीं करती थी। शेखर पूरी तरह रिया पर निर्भर हो गया था रिया के जादू में सब कुछ भूल बैठा था। 

बी.एस.सी. प्रथम वर्ष का परिणाम आया शेखर फेल हो चुका था। इधर रिया बगल में रहने वाले पीयूष की ओर आकर्षित हो गई थी। एम.बी.ए. था पीयूष। एक अच्छी जॉब में था रिया से बड़ा था पर प्यार उम्र कहां देखता है।

रिया ने बात करना बंद कर दिया था। शेखर अब अकेला रह गया था। घर पर सौतेली मां का व्यवहार अन्जाना सा था। इधर रिया ने बात करना बंद कर दिया था।

शेखर बी.एस.सी. में फेल होने के पश्चात पूरा समय जमुना नदी के किनारे मछलियों को गोते लगाते देखा करता था। सोचता था एक दिन मैं भी ऐसे ही गोते लगाऊंगा।

तभी उसने मेरी बाँह बहुत तेजी से झक-झोरी। मैं जैसे तंद्रा से जाग उठा।

उसने कहा, "भाई, मुझे यही रहना तुम्हारे साथ।" 

मैं क्या कहता। मैंने कहा, "हां भाई, अब हम लोग एक साथ ही रहेंगे, वह मेरे साथ कई दिन बना रहा"

चार-पांच दिनों के बाद एक सुबह जब मैं उठा तो देखता हूँ किं शेखर नहीं था। एक कागज पर कुछ शब्द लिखे थे, शायद मैं अपनी धुँधली आँखों से यही पढ़ पाया था,

"मुझे भी गोते लगाने हैं भाई," "मुझे भी गोते लगाने हैं भाई।" 

@व्याकुल

मंगलवार, 1 जून 2021

भ्रमजाल


आज फिर वो ठगा सा महसूस कर रही थी। कुछ भी अच्छा नही लग रहा था।
आज मितेश की कमी खल रही थी उसको। पिछले बरसात की ही तो बात है जब इन्ही बरसात के दिनों में दोनो घूम रहे थे। समय कितना सब कुछ बदल देता है। ऐसा कोई दिन नही जाता था जब दोनो की मुलाकात न होती हो।
मितेश जब पहली बार कॉलेज आया था कितना गुमशुम सा रहता था। पूरा अन्तर्मुखी स्वभाव था उसका। किसी का कभी ध्यान ही नही जाता। सबसे पीछे की सीट पर बैठना क्लास करना फिर निकल लेना।
उसने घर किराये पर मेरे पड़ोस में ही ले रखा था। कई महीनों बाद उसने सब्जी के ठेले पर सब्जी लेते समय पूछ ही लिया था क्या आप फलां कॉलेज से है। बस मै हाँ ही कह पायी थी। पता नही उसने सुना भी था या नही। आगे बढ़ गया था।
अब हम सभी द्वितीय वर्ष में आ गये थे। थोड़ा सभी लोग आपस में घुलने मिलने लगे थे। कब हमारी प्रगाढ़ता बढ़ गयी पता ही नही चला।
कॉलेज के बाद वो ट्यूशन पढ़ाने लगा। मै भी छोटे से स्कूल में पढ़ाने लगी। हम दोनों वीकेंड पर मिलने लगे।
एक दिन उसने शादी का प्रस्ताव भी रख दिया। मै ना नही कर पायी थी। हम दोनो ने चुपके से कोर्ट मैरिज कर ली थी। बाहर रूम ले लिया था।
मेरे घर में सिर्फ मेरा भाई ही था। मॉ-बाप बचपन में ही गुजर गये थे। 2-3 दिन के लिये बाहर का बहाना बना देती तो वो समझ नही पाता था। 4 साल तक सब ठीक ठाक रहा। अब उसने कानूनी रूप से तलाक लेने को कागज रख दिया था। शादी इतना गुप्त रूप में हुआ था कि किसी को अपना दुख भी जता नही सकती थी।
आज कुछ भी अच्छा नही लग रहा था। खिडकियों के बाहर बरसात का पानी ऐसे शोर कर रहे थे जैसे पत्थर मार रहे हो मुझे।
©️
व्याकुल

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...