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बुधवार, 1 सितंबर 2021

व्यथा चश्मे की

 


सुबह उठते ही

मुझे ही ढूढ़ते थे

कितने धीर हो

जाते थे तुम..


बड़े ही शौक से

तुमने चुना था मुझे

कई थे वहा

मेरे प्रतियोगी में..


जब तुमने मुझे 

देखा तो

फिर कोई और

पसंद नही आया..


ध्यान इतना देते

थे कि

थोड़ा सा भी

मैल नही होने 

देते थे..


एक दिन

मैं गिरा

डंडा 

बदलवाया

फिर तू

लापरवाह

हो गया..


आज 

गज़ब कर

दिया

एक हाथ 

दिया और

गुस्से में मुझे

गिरा दिया..


पहले भी 

मेरे ऊपर 

बैठ गए थे

मेरी तो आह!

निकल गयी थी

कभी श्रृंगार

सा था

अब नाज़ायज़

सा..


यही फितरत है

तुम इंसानो की

मतलब ही रिश्ते 

निभा रहा है

अन्यथा सब बेकार 

है..


@व्याकुल

नियति

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