राबता उजालों पर क्या करना
सूकूँ तलाशने लगें अँधेरों को
दर्द जो दब गयी हँसी में
दॉव क्या लगाना चेहरों पर
साँसों ने भी तमाम उम्र देखा
दम घुट कर जो मुकर जाना है
बसेरा रह गया किनारों पर
बोली जो लग गयीं बाजारों में
शागिर्द था वों ताश के पत्तों का
खाली ही रहा जाने से पहले
मुगालते का टूट जाना ही था "व्याकुल"
क़रार भी खूब रहा फकीरी का
@व्याकुल