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शनिवार, 29 मई 2021

गणेश जी और आत्मसमर्पण

 

गणेश जी की सवारी की है एक बार। मुँगराबादशाहपुर से सुजानगंज तक सन् 1985 में। मेरी बुआ का घर। ठसाठस भरी थी टैम्पो। साँस लेने की फुर्सत नही। मै उसी भीड़ में दुबका हुआ बैठा था। अझेल था। रास्ते में जो भी दिखता बैठा लेता टैम्पो वाला। मै तो हिचकोलें खा रहा था। तभी महसूस हुआ किं मुँह में अंदर से कुृछ आ रहा। मुझे कुछ खट्टा सा लगा। मेरी अंतड़िया डगमग डगमग कर रही थी। फिर मुँह में वही स्वाद। इतना अंदर था कि बाहर के झरोखों में इंसानो के कई लेयर बन जाने से कोई गुंजाईस ही नही थी कि थूक के एक कण की तिलांजलि दे सकूँ। असहाय दबा हुआ क्या करता बेचारा। कई बार अंदर के हिचकोलों को शांत करने का अभिमन्यु सा प्रयास करता। पर वार तगड़ा रहा इस बार। इस बार लहरों ने सीधे मुँह की नही सुनी। बाहर आ ही गये। मै समर्पण कर चुका था। चूँकि बीच में दबा बैठा था किसी को कुछ पता ही नही चला। एकाएक हल्ला मचा। मै शांत चुप्पी साधे योग मुद्रा में था।


©️व्याकुल

नियति

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