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रविवार, 13 जून 2021

किराये का घर

मसालों का शहर यही तो पढ़ा था इस जगह के बारे में। वास्कोडिगामा भी यही आये थे कालीकट में । भारत की प्राण "मानसून" भी यही जन्म लेती है।  साक्षरता भी यही है। देवेश इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने यही तो आया था।  उसके लिए ये नया शहर था। हॉस्टल का खाना उत्तर भारतीयों के लिहाज़ से उसे पसंद नहीं आया। उसने बाहर कही रूम लेकर पढ़ाई करने की ठानी। अनुशासित बहुत था वो। पिता के इकलौते पुत्र।  बाहर रहने लगा देवेश।  खुद ही खाना भी बनाने लगा। जिस मकान में रहता था वो बहुत ही खूबसूरत था। मकान के पास का चित्रण करने बैठ जाइयें तो यथार्थ में स्वर्ग का गाथा लिख जाए। करीने  से नारियल का पेड़ और केले की खेती एक अलग  दृश्य उत्पन्न कर रहे थे।  

ज्यादा कुछ जानता तो नहीं था मकान मालिक के बारे में। बस आज तक एक भद्र महिला ही दिखी थी। दूरियों की एक वजह भाषा भी थी। महीने एक बार मकान मालकिन आती  थी, मुझे समझते देर नहीं लगती थी किं क्यों आयी है वो। किराया दे देता था और वो चली जाती थी। संवाद के लिए इशारों में बात हो जाय करती थी।  थोड़ी बहुत टूटी-फूटी अंग्रेजी समझती थी। हिंदी तो बिल्कुल नहीं। मै ठहरा ठेठ उत्तर भारतीय। अंग्रेजी में भी आखिर कितने देर तक पिटर पिटर करता,थोड़ा बहुत में लगता बहुत बात हो गया। माथे की शिकन बताती थी उन्होनें अपने जीवन में बहुत संघर्ष झेला था। सामान्यतः केरल के लोगो की तुलना में साफ़ रंग की थी।  ज्यादा कुछ समझने का समय भी नहीं मिलता और कोशिश भी नहीं की।

एक दिन कॉलेज से आने के बाद सोया ही था की वो महिला दौड़ी दौड़ी मेरे पास आयी।  

बोली, "सन, मेरी पद्मिनी का पता नहीं कहाँ चली गई"

"पद्मिनी!!!!  ये कौन ???? "

विस्मित स्वर में मैंने  पूछा था,

"अरे बेटा, मेरी बेटी। "

"ओह " "पर, आंटी मै तो उसको पहचानता नहीं "

उसने तुरंत फोटो लाकर दिखाई। वो को साँवली सी लड़की थी। उम्र कोई 17-18 वर्ष की।  

मैंने फोटो हाथ में लिये कपड़े पहन निकलने को ही था किं मकान मालकिन के यहाँ से तेज-तेज आवाज आने लगी।  माँ-बेटी का वाक् युद्ध मेरे कानों में निरन्तर पड़ रही थी।  मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था बस दोनों के चेहरे के भाव भंगिमा से कुछ समझने की कोशिश कर रहा था। उस लड़की के पास पिट्ठू बैग था।  लग रहा था जैसे वो कही भागने की तैयारी की हो। लड़के ने धोखा दे दिया हो और वो वापस आ गयी हो। ऐसा ही होता है हम हमेशा बहुतों के बारे में ऐसी ही सोच बैठा लेते है।

मै चुप चाप अपने रूम पर आ गया।  

उस दिन के बाद से फिर उनके घर से कोई हलचल नहीं दिखी। कभी कभी अब मेरा भी मन हो जाता था किं आखिर उस दिन हुआ क्या था।

मै अब अंतिम वर्ष में था मुझे थोड़ा  मलयालम समझ आने लगी थी

वो दोनों अब मुझे पहले की तुलना में ज्यादा दिखने लगे थे। कभी-कभी दोनो मॉ-बेटी से बात भी हो जाया करती थी। 

मुझे पद्मिनी अच्छी लगने लगी थी। मैने एक दिन बातों बातों में मकान मालकिन से अपनी इच्छा जाहिर की थी वो कुछ बोली नही मुझे बस देखती रही।

आखिरकार मकान मालकिन ने एक दिन शादी के लिये अपनी हाँ कर दी थी पर इस शर्त के साथ की यही केरल में ही शादी होनी चाहिये। मै अपने घर से किसी को बुला नही पाया था। शादी संपन्न हो गयी। मेरी इंजीनियरिंग की पढाई को भी समाप्त हुये कई महीने बीत चुके थे। मै अपने पिता से कोई न कोई बहाना बना केरल में रुका रहा।उन्हे पता भी नही था किं मै शादी कर चुका हूँ। मैने अब वापस प्रयागराज चलने का मूड बना लिया था। प्रयागराज पहुँचते ही पिता जी का पारा सॉतवें आसमान पर था। वो घर में घुसने ही नही दिये। वो पुरातन सोच व अन्तर्जातीय विवाह के सख्त खिलाफ थें। बहुत दिनों तक हम दोनों घर के बाहर बरामदें मे पड़े रहे। 

एक दिन सुबह आँख खुली तो घर पर ताला लगा देखा। पता चला वो मकान बेच चुके है। मै अपनी ही माटी में बेगाना हो चुका था। इस छोटे से शहर में तत्काल नौकरी मिलना टेढ़ा काम था। पद्मिनी को सिलाई अच्छी आती थी। वों कही से किराये की मशीन ले आयी और घर के बाहर प्लास्टिक की शीट डालकर सिलाई करने लगी थी। मै बेरोजगार काम तलाशता रहता। तभी एक दिन कोई नये लोग मेरे अपने ही घर में शिफ्ट होते रहे।

मै अपने ही घर में बेगाना सा उनसे थोड़ी सी जगह व किराये के लिये गिड़गिड़ाता रहा....

©️व्याकुल

नियति

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