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शनिवार, 24 जुलाई 2021

गुरूपूर्णिमा

सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड।

तीन लोक न पाइये, अरु इकइस ब्रह्मणड॥

कबीर दास जी गुरू की महिमा ऐसे ही नही कह दिये कुछ तो तर्क रहा ही होगा। मजे की बात ये है कि चातुर्मास को पड़ता है ये गुरू पूर्णिमा। भगवान विष्णु शयन को चले जाते है। कहते है इन चार मास में कोई भी शुभ कार्य नही कर सकते। कहा भी गया है गुरू की महिमा ईश्वर से ऊपर है।

आज के दिन को व्यास पूर्णिमा के लिये भी मनाया जाता है। कृष्ण द्वैपायन व्यास को आदिगुरू माना जाता है। वे वेदो के प्रथम व्याख्याता भी थे।

आधुनिक काल में लोग कई कई गुरू को साधे रहते है.. गिरते है तो कोई संभालने वाला नही होता। रहिमन की वाणी तो मुझे मूलमंत्र लगती है -

एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाय। 

रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय।।

विदेशी विद्वान जॉन ड्यूवी शिक्षा को सामाजिक बदलाव के महत्वपूर्ण कारक के रूप में देखते है और उससे भी ज्यादा नैतिक रूप से प्रबल मानवों के निर्माण में शिक्षकों की भूमिका को अहं मानते है।

बचपन से एक दोहा जो जबान पर रहता था-

गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।

बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।

इसका अर्थ तो तभी समझ आया जब सामाजिक रूप से धक्के खाया। कितने ही बार गिरे और हर बार कोई न कोई गुरू बन उठाता रहा।  शनैः शनैः ही सही गोविंद तक पहुँचाता रहा।

@व्याकुल

शुक्रवार, 18 जून 2021

परमार्थ

 

कबीर जी ने कितनी सुन्दर बात कही है....

वृक्ष कबहुँ न फल भखै, नदी न संचय नीर।

परमार्थ के कारने साधुन धरा शरीर।।

प्रकृति का स्वभाव ही है परमार्थ का। कबीर दास जी इतनी गहरी बात कह गये किं जिसके बाद कुछ बचता ही नही। हम परमार्थ तो भूल ही गये उल्टे बेतहाशा संचय ही अपना कर्म मान लिया। 

परमार्थ है तभी सृजन है। प्रकृति स्व सृजन का कार्य करती है और ये अंतहीन सिलसिला है। अपने उद्भव से निरंतर अथक करती आ रही। हमे एक साधू चित्रकूट ऐसे मिले जो अपनी कुटिया ही छोड़ दी क्योंकि उनका शिष्य उनके साधन मे विघ्नकारी था। अकल्पनीय है न!!!!! क्या ऐसा आज के समय में संभव है??? नही न... 

बहुतेरे उदाहरण है जहॉ साधुओं मे संपत्ति के लिये हत्या तक हो गयी।

कबीर दास को ये बोध किसी बड़े विश्वविद्यालय में नही हुआ। वो तो यहॉ तक कह गयें किं

"मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।

चारिक जुग को महातम, मुखहिं जनाई बात।।"

मुख से ही चारों जुग की बात बता गये। 

सीख दे गये प्रकृतिजन्य में ही भलाई है। खुद को प्रकृति ही समझ लेना बड़ा गुनाह।

इंसान तो कहेगा ही वो निर्जीव है। नदियों को मोह से क्या??? वाह रे!!!! जल घुटकना छोड़ दिये क्या???नदियाँ जल लोटे में लेकर नही चलती.. उसे तो समग्रता को दृष्टिगत रखना है.. हम तो व्यष्टि से आगे बढ़ ही नही पाये...  

इंसान एक बार प्रकृति से साक्षात्कार कर जीवन को ध्येय बना ले... समझिये जीवन जीने का मंत्र मिल गया....

©️व्याकुल

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...