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सोमवार, 26 फ़रवरी 2018

बुद्धुबक्सा

1984 - 85 की इलाहाबाद की वो शाम आज भी याद है जब खेल के मैदान में पहुचा था तो पूरा सन्नाटा था.. पता लगा की सभी साथी कुमार मंगलम चतुर्वेदी (जो मुझसे बड़े और एक कक्षा आगे थे ) के घर टीवी देखने गए है.. मैं भी पहुच गया.. सभी लोग जमीन पर बैठे फ़िल्म देख रहे है..अद्भुत था वो दृश्य और आज भी नही भूलता... शारीरिक स्वस्थ्यता एक बड़ा प्रश्न रहा है.. फिर कभी उतनी भीड़ नही देखी खेल के मैदानों में.. लोग कम होते गए.. मुझे तो अब भी बड़ी अभिलाषा है.. उसी कब्रिस्तान, जो कभी हम लोगो के लिए खेल का मैदान हुआ करता था, वापस आ जाय.. हम लोग.. बुनियाद.. वाह जनाब.. जैसे टी. वी. सीरियल अपनी धाक जमा रहे थे.. रविवार की सुबह आँख खुलते ही चित्रहार पर अटक जाती थी.. फिर शुक्रवार की रात में फिल्मों का सिलसिला शुरू हुआ..बुद्धुबक्सा की बात बिना रामायण व महाभारत के की ही नही जा सकती... सन्नाटा पसर जाता था गॉवों में.. शोले फिल्म का डॉयलाग याद आ जाता था.. "इतना सन्नाटा क्यों है भाई..."

कितने पुरानी फिल्मों पर दिल अटक जाता था.. अभी तक हैंगर की तरह वैसे ही अटका हुआ है...

@व्याकुल

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...