बचपन में एक बार उत्तर प्रदेश के जिला भदोही के अपने गॉव सनाथपुर (सुरियाँवा) से देवदासपुर (जहॉ हमारी बूआ का घर था। जब मन करता था मै और हमारे अनुज क्षमाकांत निकल लिया करते थे। क्षमाकांत आयु में मुझसे एक वर्ष छोटे है पर बाल्यपन् में सामाजिक व्यवहारिकता मुझसे कही ज्यादा था। बहुत कुछ इनसे सीखने को मिल जाता था) जाते समय रेलवे लाईन पड़ता था। उस दिन हम लोगो को खुराफात सूझा। ट्रैक पर पड़े पत्थरों के टुकड़ों को लोहे के गाडर पर सजा दिया था जिस पर से गाड़ियों का पहिया चलता है। तभी गेटमैन ने दूर से हमको देख लिया था। डंडा लिये दौड़ा लिया था। एक साँस मे जितनी तेज दौड़ सकता था दौड़ लिये थे हम लोग।
ख्वाबों ख्यालों की दुनिया थी तब। लोहे के कील से गाड़ी का पहिया निकल जाये तो चुम्बक बन जायेगा, ऐसी हम लोगो की मान्यता थी। गॉवों के बीच का ये लाईन हमे हमेशा टोटके जैसा लगता था।
जैसे ही रेलवे लाईन पार की लगता था दूसरे देश आ गया हूँ। मन को उलझा देता था। साईकिल के साथ पार करना तो और भी दूभर।
आज भी जैसे ही कोई रेलवे लाईन दिखता है। सामने टोटके सा अहसास होता है। पार करना और भी मुश्किल। आँखों के सामने वही गिट्टीयाँ, गेटमैन और भागना तैरने लगते है....
@व्याकुल