कबीर जी ने कितनी सुन्दर बात कही है....
वृक्ष कबहुँ न फल भखै, नदी न संचय नीर।
परमार्थ के कारने साधुन धरा शरीर।।
प्रकृति का स्वभाव ही है परमार्थ का। कबीर दास जी इतनी गहरी बात कह गये किं जिसके बाद कुछ बचता ही नही। हम परमार्थ तो भूल ही गये उल्टे बेतहाशा संचय ही अपना कर्म मान लिया।
परमार्थ है तभी सृजन है। प्रकृति स्व सृजन का कार्य करती है और ये अंतहीन सिलसिला है। अपने उद्भव से निरंतर अथक करती आ रही। हमे एक साधू चित्रकूट ऐसे मिले जो अपनी कुटिया ही छोड़ दी क्योंकि उनका शिष्य उनके साधन मे विघ्नकारी था। अकल्पनीय है न!!!!! क्या ऐसा आज के समय में संभव है??? नही न...
बहुतेरे उदाहरण है जहॉ साधुओं मे संपत्ति के लिये हत्या तक हो गयी।
कबीर दास को ये बोध किसी बड़े विश्वविद्यालय में नही हुआ। वो तो यहॉ तक कह गयें किं
"मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।
चारिक जुग को महातम, मुखहिं जनाई बात।।"
मुख से ही चारों जुग की बात बता गये।
सीख दे गये प्रकृतिजन्य में ही भलाई है। खुद को प्रकृति ही समझ लेना बड़ा गुनाह।
इंसान तो कहेगा ही वो निर्जीव है। नदियों को मोह से क्या??? वाह रे!!!! जल घुटकना छोड़ दिये क्या???नदियाँ जल लोटे में लेकर नही चलती.. उसे तो समग्रता को दृष्टिगत रखना है.. हम तो व्यष्टि से आगे बढ़ ही नही पाये...
इंसान एक बार प्रकृति से साक्षात्कार कर जीवन को ध्येय बना ले... समझिये जीवन जीने का मंत्र मिल गया....
©️व्याकुल