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मंगलवार, 1 जून 2021

प्रगतिशील

लिव-इन
प्रगतिशील
स्त्री- आजादी
इत्यादि इत्यादि


ऐसे कई शब्द पिछले कुछ दशकों से कानों में पड़ते आ रहे है। इसी क्रम में हिन्दू संस्कार या संस्कृति पर लगातार चोट पहुँचाना या प्रदूषित करना भी प्रगति का पैमाना बन गया है। इसी के परिणामस्वरूप लिव-इन की व्यवस्था ने जन्म लिया जो भारत की प्राचीन काल से चली आ रही सनातनी व्यवस्था पर कुठाराघात करती है। जो पूरी तरह पाश्चात्य संस्कृति की नकल है।

लिव-इन माने बिना रीति रिवाजों के पालन के पति-पत्नी जैसे साथ-साथ रहना।

बहुत से कुतर्की इसकों हिन्दू के गन्धर्व विवाह से जोड़ देते है जबकि गन्धर्व विवाह यौन आकर्षण या धन तृप्ति हेतु किया जाता था। हिन्दू विवाह भोग लिप्सा का साधन नही वरन् धार्मिक संस्कार है।

बड़े शहरों में क्षणिक भौतिक आकर्षण के वशीभूत युवकों के कदम कैसे डगमगा रहे है कि उनकों होश भी नही रहता कि किस दिशा में जा रहे है।

गॉवो या छोटे शहरों से सपने लिये निकले बच्चे आदर्शवादी सपना लिये निकल पड़ते है। जिनके कदम कभी गॉवो के मेढ़ भी नही डिगा पाये थे वही शहरों मदमस्त चकाचौंध में ऐसे खो जाते है कि पिता के पसीने व मॉ के हाथों की चुपड़ी रोटी का तनिक ख्याल नही रहता। महत्वाकांक्षा उन्हे अपने आदर्शो की तिलांजलि देने पर मजबूर कर देता है या आहूति कर देता है जैसे विश्वामित्र का आत्मसमर्पण हो चुका हो मेनका जैसे स्वप्नसुन्दरी के आगे।

दिक्कत तो तब होती है जब ठगा गये व्यक्ति को एहसास होता है कि जैसे सब खत्म हो चुका है। अब आँखों पर बँधी पट्टी से निकलना होगा कानून ऐसे हो जहाँ स्त्री पुरूष समान रूप से दोषी हो। क्योकिं बड़े शहरों में आप किसी खास जेंडर को दोषी नही ठहरा सकते जहाँ साँप ही साँप हो और जो आपकों डसने के लिये सदैव मौकों की तलाश में हो।

@व्याकुल

नियति

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