FOLLOWER

शुक्रवार, 20 अगस्त 2021

टेटुआ



जमीं पर 

बिकते

चंद सब्जी

मोल-भाव

करते 

अंतिम

गुंजाइश तक

और

टेटुआ

में

टटोलते

खनकते सिक्कें..


फिर

निरीह से

लौट 

लेते 

फिर न 

सुनायी

देती

हाट की

कोई भी

आवाज

भर जाती

शुन्यता

सें

बच्चे की

आशा भरी

पोर..


@व्याकुल

युवा

मस्त

बेफिक्र

आँखों में

सपने 

लिए

दो-दो हाथ

करने को

सदैव 

तत्पर...


बलिष्ठता

ही ध्येय

जीवन का

अलौकिक

सोच ऎसी 

जो

दिवारों को

गिरा दे

बँधी

मुट्ठी से..


कभी न

रूके

चलते रहते

निर्बाध

अनवरत

थकते नही

जिनके पॉव...


गाथा भरी 

पड़ी है

जिनके 

अनगिनत

अनकहे

सिलसिले 

पराक्रम से...

@व्याकुल

महाराणा प्रताप

रक्त बिघ्न हो रहा 

राष्ट्र दम घुट रहा 

दृग अश्रु बह चला 

धरा बांझ हो चला 

वीर घन चाह रहे 

धीर मन हाथ रहे

स्याह न रहे तन

आग से सना रहे

कण कण उद्विग्न हो

राष्ट्र जब हिल उठे

जन्म ले रहा कोई

अन्त्य अब खिल उठे

रहे न कोई अस्त्र विहीन

मरे न कोई शौर्य हीन

न भूख से डिगा कोई

न हार से भगा कोई

वक्ष अब धधक रहा

फिर तुम्हे पुकारता...

@व्याकुल

प्रयाण

कोई 

कही नही 

जाता  


प्रयाण करता 

है भी तो

ठिकाना बदलने को


ऊब जाता होगा

शायद

वही चेहरे

वही लोग

सब कुछ वही


निकल पड़ता है

अजनबी 

रास्तें की ओर

शायद कुछ

नवीनतम् 

देख सकें...


@व्याकुल

मिज़ाज

मिज़ाज क्या पूछा उनसे

मुस्कुरा दिये वो

मिरे मिज़ाज को

गुलबहार कर गये हो जैसे


मिज़ाज के खातिर

उँगलियां क्या छूई

काँपती हुई सी

कुछ इशारा कर गये हो जैसे


मिज़ाज की नब्ज टटोलने

निगाहें जो फेरी ऊधर

पलक बन्द कर

रूहानियत कर गये हो जैसे


मिज़ाज दरयाफ्त को

गया जो गली तक

होंठ बुदबुदायें ऐसे

सब बयां कर गये हो जैसे


मिज़ाज उनका

बना पैमाना मिरा 'व्याकुल'

जुस्तजू मुसलसल उनकी

हाल नासाज़ कर गये हो जैसे


@व्याकुल

लोकतंत्र बेमानी है!!!!!!

लॉकडाउन में गॉवों की ओर लौटते मजदूरों पर कविता-


हटा दो 

उन बेमानी शब्दों को

जो छद्म  लोकतंत्र की

परिभाषाए गढ़ रहे।


कर्ज क्यो नही अदा

कर पाये

और छोड़ दिये तड़पता हुआ

सडकों पर

या

रेल की पटरियों पर।


क्या 

कदम बढ़े न

अपनी माटी

की ओर

जो लपेटने को

फैलायें है बाँहे...


आत्ममुग्धता नही

हकीकत हूँ

खुशहाली 

का

आधार हूँ

खेतों का

या

ईंटों की

दीवार का..

पसीनें छुपे है

घर की छत हों

या कण आटें का ।


कैसे हो परिशोधन

प्रारब्ध का या 

मान लूँ

गरीब जन्मता ही गरीब है

और मरता भी गरीब है।

@व्याकुल

चींटी

चींटी सा ही चलू

पर चलता ही रहूँ 

नित नये कलेवर में

जन रवायत है ऐसा

करे जतन विस्मृत का


रंग नये हो या

संग नया हो

प्रमाण देते

पुनर्जीवन का


कौन देखे श्वेत श्याम 

खीचें जाये रंगो में

सप्तरंगी हो जाऊ मै

चुन लू जाऊ अपने ढंग से


तिनका हूँ प्रवाह की या

पंक्ति बनू काफिलों की 

चींटी सा ही चलू

पर चलता ही रहूं।

@व्याकुल

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...