यही जून का महीना था। शादी में निमंत्रण था। जाना तो था ही। कपार फोड़ई में बज्जर कचौरी। सबेरे कलेवा में गरमागरम चना-चाय और जलेबी। फिर वापसी में बस की यात्रा। रात की कचौरी पच नही पायी थी ऊपर से बस के हिचकोले। माहौल बन रहा था। मुझे बस कभी शूट ही नही किया। बस की यात्रा हमेशा से मुझे गणित के सवालों जैसा लगता था। चक्कर आने लगते थे। इन सब चक्करों में सुबह खाये गये चनों का अबोध हत्या होना ही था। बस एक बार पल्टी होने की देर थी।
चचेरे भाई साथ में थे। मेरी हालत समझ चुके थे। बस रुकवा दिये थे। भऊजी के मायके जाना है। बस रुकी ही थी ये मारा पल्टी!!!!! अब आप नेताओं की पल्टी से तुलना नही कीजियेगा। उनके पल्टी में कुछ निकलता नही। सब अंदर ही जाता है।
साबूत चना बाहर आ गया था। भऊजी का मायका तीन किमी. से कम नही होगा। उल्टी के बाद प्यास लगती। अंदर की चक्की उलटी चलने लगी थी। रास्ते में चापाकल के पानी से प्यास बुझा कर थोड़ी दूर बढ़ता ही पल्टी हो जाती।
हैरान-परेशान रास्ते में बैठने का सवाल ही नही था। रेगिस्तान जैसे सड़क के दोनों ओर पेड़ का नामो-निशान नही था। छॉव के लिये तड़प गया था मै पर भऊजी का घर आने तक चापाकल-पल्टी-चापाकल का खेल खेलता रहा था।
ऐसा कभी किसी बालक के साथ न होवे इसलियें पेड़ अवश्य लगावें।
विश्व पर्यावरण दिवस की हार्दिक शुभकामनायें🌳🌳🌳🌴🌴
@डॉ विपिन पाण्डेय "व्याकुल"