मुझें कुछ भी अगर पसंद था
मॉ के माथे की तमाम बिंदिया
बिंदियों को जतन से रखती थी
उसी ऊँट बने डिब्बें में
उनके माथे की बड़ी बिंदी
हमेशा ही खिसक जाया करती
कभी पसीने से मोर्चे में
या जीवन के झंझावतो से
बिंदियों को सेट करती थी
बड़े चाव से छोटे से शीशे से
चेहरे की शिकन छुपा लेती थी
उन लाल-हरी बड़ी सी बिंदियो से
लापरवाह हो चली है मेरी मॉ भी
भूल जाया करती है बिंदियो को लगाना
अब उन्हे ऊँट बना डिब्बा दिखता नही
बूढ़ी हो चली है मेरी मॉ भी
मन होता है कह दूँ मॉ से
पर पिता का विछोह गुम कर गयी मॉ की बिंदिया भी
@विपिन "व्याकुल"