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रविवार, 8 मई 2022

मॉ की बिंदिया


मुझें कुछ भी अगर पसंद था

मॉ के माथे की तमाम बिंदिया


बिंदियों को जतन से रखती थी

उसी ऊँट बने डिब्बें में 


उनके माथे की बड़ी बिंदी

हमेशा ही खिसक जाया करती


कभी पसीने से मोर्चे में

या जीवन के झंझावतो से


बिंदियों को सेट करती थी

बड़े चाव से छोटे से शीशे से


चेहरे की शिकन छुपा लेती थी

उन लाल-हरी बड़ी सी बिंदियो से


लापरवाह हो चली है मेरी मॉ भी

भूल जाया करती है बिंदियो को लगाना


अब उन्हे ऊँट बना डिब्बा दिखता नही

बूढ़ी हो चली है मेरी मॉ भी


मन होता है कह दूँ मॉ से

पर पिता का विछोह गुम कर गयी मॉ की बिंदिया भी


@विपिन "व्याकुल"

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