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रविवार, 3 जुलाई 2022

गुलाब पन्नों के

 


बहुत दिन हो गये थे पुराने कॉलेज गये हुयें। कैंटीन याद आ रहे थे। घंटों लाइब्रेरी में बैठ कर किताबों में गुम रहना मन को बेचैन कर रहे थे। आगरा के उस कॉलेज के अंतिम दिन हम सभी गमगीन थे। उदास थे पता नही कब मुलाकात होगी। एक डायरी हाथ में थी सभी एक-दूसरे का नाम पता लिख रहे थे। 


कई बार प्लान बनता फिर कैंसिल हो जाता। किसी को कोई इंन्टेरस्ट ही नही था। पत्नी भी कई बार झिड़क चुकी थी। क्या करेंगे वहॉ जाकर। मै चुप हो जाता।


सात दिन बाद पत्नी की भतीजी की शादी थी आगरा में। पैकिंग चल रही थी। मुझे भी खुशी थी जाने की। कम से कम 25 सालों बाद अपना कॉलेज तो देख पाऊँगा।


इंतजार की घड़ियां खत्म हुई। हम सभी आगरा के एक अच्छे से होटल में ठहराये गये थे। मुझे तो अगली सुबह का इंतजार था। सुबह ही नहा लिया था। पत्नी से मेरी खुशी देखी नही जा रही थी। मुझसे बोली, "ताजमहल चलेंगे क्या।" मैने बोला, "नही, अपने कॉलेज।" मुँह बनाकर चुप हो गयी थी वों।


मै सज धजकर ठीक 10 बजे कॉलेज प्रांगण में था। कोना-कोना मुृझे अपनी ओर खींच रहा था। मै पागल सा घूम रहा था। लाइब्रेरी पहुंचते ही मै सबसे पहले साहित्य वाले सेक्शन में पहुंच गया। बड़ी बेसब्री से एक उपन्यास ढूंढ़ने लगा। कई बार पूरे सेक्शन को छान मारा पर नही मिला। 


बड़े बेमन से बाहर जाने लगा तभी एक मैम मिली जिनके सफेद बाल बिखरे हुये बेतरतीब से कपड़े पहने हुये थी। बॉयें तरफ का कैनायन दाँत टूटा हुआ था। पुराने जमाने की टुनटुन लग रही थी। वो लाइब्रेरी स्टाफ थी शायद। मुझसे बोली, " आप क्या ढूंढ़ रहे है।" मैने बोला, "एक उपन्यास।"


उन्होनें एक पुराना सा बंद अलमारी खोला। बोली, "यहां देखिये.. शायद मिल जाये।" उपन्यास एक बहाना था मुझे तो उस पुस्तक के पेज नं. 54 पर रखे गुलाब को ढूंढ़ना था जो उसका रोल नं. भी था। अलमारी के दूसरे खाने में पुस्तक देखते ही मेरे आँखों में चमक आ गयी थी। जल्दबाजी में पन्ने पलटते ही वों सूखा गुलाब नीचे गिर गया था। मै उठाने ही जा रहा था। तभी मैम ने बोला, " राकेश!!!!!"


मै सन्न था उनको देख कर। मेरे मन में वही गुलाब वाली लड़की बसी थी। मै समझौता नही कर सकता था😃😃 मै बस यहीं बोल पाया.. "मै राकेश नही।"


किसी तरह घर आया। पत्नी बोली, "घूम आये कॉलेज।" 


मै कोमा से निकलने की कोशिश में था।😃


@डॉ विपिन पाण्डेय "व्याकुल"

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