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शनिवार, 5 जून 2021

आहट - 3

 

गतांक से आगे...

भावेश ने अॉफिस से आते ही अवनी को उदास देखा, उससे रहा नही गया।

 "क्या बात है अवनी, तबियत ठीक नही क्या?" भावेश ने पूछा था।

"ऐसा कुछ नही, बस यूँ ही..." अवनी कहती हुई चाय बनाने किचेन चली गयी।

अवनी सपने की कोई चर्चा भावेश से करना ही नही चाहती थी।

यादों में तैर गयी थी साकेत के। घर के ऊपरी मंजिला की खिड़की से साकेत का घर साफ दिखता था। दसवीं की परीक्षा थी अवनी की। रात भर पढ़ती रहती थी। पहले तो कभी ध्यान ही नही गया, पर लगा जैसे कोई उसकी तरफ ही देख रहा है। जैसे ही अवनी उधर देखती वों अपनी नजर हटा लेता। रात को साकेत छत पर ही रहता जब तक अवनी सो नही जाती थी।

अवनी को अब स्पष्ट हो गया था कि साकेत के मन में उसके प्रति लगाव है। कर भी क्या सकती थी ऐसे पागलपन का। धीरे-धीरे उसे महसूस होने लगा था कि रास्तें में कोई उसका पीछा कर रहा है या साकेत देख रहा है। साकेत में इतना खो गयी थी। याद ही नही रहा उसे कि चाय को ऊबले बहुत देर हो चुकी थी। 

भावेश ने किचेन में आकर मुस्कुराते हुये कहा था, "अवनी, चाय उबल चुकी है।"

"ओह!!!" इतना ही बोल पायी थी अवनी।

भावेश अपने अॉफिस की चर्चा में मग्न हो गया। अवनी सिर हिलाती रही पर ख्यालों में साकेत ही रहा....

क्रमशः

©️व्याकुल

आहट - 2

 

गतांक से आगे...

शादी के बाद तो वो मायका जा ही नही पायी। न कभी भाई ने सुध ली न ही उसका मन हुआ। शादी होने के बाद मायके जाने के नाम पर लड़कियों का उत्साह देखतें ही बनता है। ससुराल की कितनी बातें होती है बतानें के लिये। कुछ कष्ट भी होता है तो बड़ी चालाकी से छुपा ले जाती है। मॉ- बाप को कोई पीड़ा न पहुँचे इसका कितना ख्याल रखती है वों। 

वो अपना सुख-दुख किससे कहती। कभी मौका ही नही मिला कुछ कहने कों। वर्ष में शायद ही एक-दों बार बमुश्किल भाई से बात होती होगी।

बार-बार फोन हाथ में लेती, फिर कुछ सोच कर कॉल करने की हिम्मत नही हो रही थी। ऐसा ही होता है जब हमें कभी कहीं से अपनत्व नही मिलता तो हम वहाँ बात करने में हिचकिचाते है, रिश्ता भले ही खून का हों।

मॉ का धुँधला चेहरा आज भी उसे याद है, जब वों लाल चादर पर लिपटी थी। मै नासमझ इंतेजार कर रही थी, मॉ अभी उठेगी और मुझे प्यार करेंगी। क्या पता था वों दिन मेरे जीवन का सबसे अभागा दिन था। याद है उस दिन कैसे उसके पिता ने उसे झिड़क दिया था। कोई ऐसे किसी अबोध के साथ करता है क्या। उस दिन के बाद से कभी पिता को हँसते नही देखा था मैने। 

साकेत उम्र में थोड़ा बड़ा था और पड़ोस में ही रहता था...

क्रमशः

©️व्याकुल

भूतहा पीपल

 

पत्तियों की खरखराहट दिन भर शोर मचाती रहती थी। उत्साह सा माहौल घर में बना रहता था। हॉ.. पीपल का ही पेड़ था, हवा के झोंको के साथ खुद भी झूम जाया करती थी। बचपन जब कभी उसकों देखती मन प्रसन्न हो उठता था।



पीपल के पेड़ के नीचे बैठना भी सुखद अनुभव रहता था। भगवान बुद्ध को तब पढ़ा नही था। बाद में समझ आया कि एक राजकुमार बोधिशाली इसी वृक्ष के नीचे हो गया था। कभी-कभी परिवार में लोगों को पूजते देखता था तो अथर्ववेद में लिखी बाते याद आ जाती है "अश्वत्थ देवो सदन, अश्वत्थ पुजिते यत्र पुजितो सर्व देवता" यानी पीपल के पेड़ की पूजा से सर्व देवताओं की भी पूजा हो जाती है।पतझड़ में भी कभी पीपल को पत्ता विहीन नही देखा इसीलिये पीपल को अक्षय वृक्ष भी कहा जाता रहा है।


कुछ दिनों के बाद फुसफुसाहट होने लगी। यही वृक्ष है जो घर में शांति नही होने दे रहा। ये मन को अशांत कर दे रहा है। बेचारा!!!! एक सजीव वृक्ष निर्जीव की भाँति कुतर्को को सुनता रहा। लोंग कैसे कैसे बात कर रहे। घर में हो रहे कई प्रपंचों का साक्षी रहा यह वृक्ष। वृक्ष को वास्तुदोष से जोड़ा गया। लोगों के मन में इतना भय व्याप्त हो गया कि आस-पास फटकना छोड़ दिया था। पीपल कैसे कहता "मै ही कृष्ण हूँ।"

गॉवों में हर एक पीपल के वृक्ष को बरम बाबा का निवास मान कर हाथ स्वयं ही दिल तक पहुँच जाता था। मन कैसे ये मान ले कि ये वृक्ष भुतहा भी हो सकता है। खुद को हर खता का दोषी इंसान मान ही नही सकता। आदमी लगाये गये और उसकों अंग अंग से धाराशायी कर दिया गया। आह भर रोया तो जरूर होगा नही तो मन की अशांति में ऐसी बढ़ोत्तरी न देखने को मिलता!!!!!

विश्व पर्यावरण दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ

@व्याकुल

शुक्रवार, 4 जून 2021

आहट - 1

 

खट्!! खट्!!

कुछ ऐसी ही आवाज सुनी थी उसने। उसकी तंद्रा भंग हुई। पसीने से तरबतर थी वों। इतना डरावना सपना। दो मिनट तो उसे नींद से हकीकत की दुनिया में आने में लगा। समझ ही नही पा रही थी कि खट् की आवाज उसने सपने में सुनी या हकीकत में। इंतजार करती रही फिर से किसी हलचल का। भावेश और वो आज ही वैक्सीन लगवाकर आये थे। मांसपेशियों में गजब का दर्द था, जिसकी वजह से आलस्य पूरे शरीर में व्याप्त था और ऊपर से भयानक स्वप्न। दुःस्वप्न देखते देखते जब अहसास होता है कि वो तो मात्र एक दुःस्वप्न ही था तो बड़ा सुकून मिलता है, लगता है जैसे नयी जिन्दगीं मिल गयी हों।


सुबह चार बजे तक उसे नींद नही आई। चिड़ियों की चहचहाट ने अहसास दिला थी कि सुबह हो गयी पर दिमाग में वही सपना घूम रहा था। साकेत का सपने में ऐसी हालत में देखना उसे परेशान कर रहा था।


रात भर सो न पाने से उसे सुबह से सर भारी था। बाई काम करके कब का चली गयी थी व भावेश कब अॉफिस चले गये उसे कुछ पता ही नही चला।


साकेत को तो वो बचपन से जानती थी। ईश्वर करे सपना सच न हो...

@व्याकुल


क्रमशः

बुधवार, 2 जून 2021

सत्तूनामा

 सत्, तम् व रज् गुणों की उग्रता देखना हो तो विद्यार्थी जीवन में जाये। उम्र जैसे जैसे प्रभाव दिखाना शुरू करता है सब कुछ क्षीण होता जाता है। ये तीनों आपसी सामंजस्य बैठा ही लेते है। ऐसे ही एक साथी रहे है जो रज गुणों से भरपूर थे। नाम था सत्तू।

सत्तू छरहरा बदन का लड़का था। एम. एस. सी. का विद्यार्थी था, पर जिद्दी बहुत था। हॉस्टल के कॉमन रूम की टी. वी. उसके रूम की शोभा बढ़ाते थे। मजाल की कोई शिकायत कर दे हॉस्टल वार्डेन से। पूरा हॉस्टल उसका महल था। 8-10 चेले थे। पूरी न्यूज उस तक पहुँचती रहती थी। किसी ने विरोध की अगर को़शिश की तो हाथ-पॉव टूटना तय था। क्षेत्रीय होने का लाभ भी था। आज तक के विद्यार्थी जीवन में पहली बार एक ने चैलेंज कर दिया था। सत्तू की शान के खिलाफ। सत्तू ने उसकों लात घूसों से दुरूस्त करने का मन बना लिया था।  प्लान ये बना किं एक लड़का बिजली के मेन स्विच को रात आठ बजे बंद करेगा। पूरे हॉस्टल की लाईट आधे घंटे तक बंद रहेगी। इसी आधे घंटे में विरोधी की पिटाई होना तय हुआ। लाईट अॉफ होने की वजह से वो किसी को पहचान नही पायेगा। निर्धारित तिथि व समय पर मेन स्विच अॉफ हुआ। पीटना शुरू ही किये थे कि वार्डन का निरीक्षण हो गया। मेन स्विच के पास खड़ा लड़का घबरा कर स्विच अॉन कर दिया। फिर क्या था!!! भगदड़ मच गयी। सत्तू और उनका ग्रुप पहचान लिया गया। कार्यवाई हुई। हॉस्टल से उनका पॉव उखड़ गया था...

©️विपिन

मंगलवार, 1 जून 2021

धर्मयुग

अगर आपकी पैदाइश 60 या 70 के दशक में हुई हो और धर्मयुग से परिचित न हुये हो तो धिक्कार है आपकों। जैसे आज भी लोग गीता प्रेस की 'कल्याण' पढ़ने के लिये तरसते रहते है वैसा ही इतिहास धर्मयुग का रहा है। इसका प्रथम अंक 1950 में आया। इलाचंद्र जोशी व सत्यदेव विद्यालंकार इत्यादि के हाथो रहा। मै तो बहुत दिनो तक सोचता रहा ये पत्रिका धर्मवीर भारती की है। पूरक थे दोनो एक दूसरे के। 1950 से 1960 तक जितने पाठक बने सिर्फ 5 वर्षो में ही इसके उतने पाठक बन चुके थे। आज भी उसी साईज की कोई पत्रिका देखता हूँ तो बरबस ही धर्मयुग याद आ जाती है।

@व्याकुल

प्रगतिशील

लिव-इन
प्रगतिशील
स्त्री- आजादी
इत्यादि इत्यादि


ऐसे कई शब्द पिछले कुछ दशकों से कानों में पड़ते आ रहे है। इसी क्रम में हिन्दू संस्कार या संस्कृति पर लगातार चोट पहुँचाना या प्रदूषित करना भी प्रगति का पैमाना बन गया है। इसी के परिणामस्वरूप लिव-इन की व्यवस्था ने जन्म लिया जो भारत की प्राचीन काल से चली आ रही सनातनी व्यवस्था पर कुठाराघात करती है। जो पूरी तरह पाश्चात्य संस्कृति की नकल है।

लिव-इन माने बिना रीति रिवाजों के पालन के पति-पत्नी जैसे साथ-साथ रहना।

बहुत से कुतर्की इसकों हिन्दू के गन्धर्व विवाह से जोड़ देते है जबकि गन्धर्व विवाह यौन आकर्षण या धन तृप्ति हेतु किया जाता था। हिन्दू विवाह भोग लिप्सा का साधन नही वरन् धार्मिक संस्कार है।

बड़े शहरों में क्षणिक भौतिक आकर्षण के वशीभूत युवकों के कदम कैसे डगमगा रहे है कि उनकों होश भी नही रहता कि किस दिशा में जा रहे है।

गॉवो या छोटे शहरों से सपने लिये निकले बच्चे आदर्शवादी सपना लिये निकल पड़ते है। जिनके कदम कभी गॉवो के मेढ़ भी नही डिगा पाये थे वही शहरों मदमस्त चकाचौंध में ऐसे खो जाते है कि पिता के पसीने व मॉ के हाथों की चुपड़ी रोटी का तनिक ख्याल नही रहता। महत्वाकांक्षा उन्हे अपने आदर्शो की तिलांजलि देने पर मजबूर कर देता है या आहूति कर देता है जैसे विश्वामित्र का आत्मसमर्पण हो चुका हो मेनका जैसे स्वप्नसुन्दरी के आगे।

दिक्कत तो तब होती है जब ठगा गये व्यक्ति को एहसास होता है कि जैसे सब खत्म हो चुका है। अब आँखों पर बँधी पट्टी से निकलना होगा कानून ऐसे हो जहाँ स्त्री पुरूष समान रूप से दोषी हो। क्योकिं बड़े शहरों में आप किसी खास जेंडर को दोषी नही ठहरा सकते जहाँ साँप ही साँप हो और जो आपकों डसने के लिये सदैव मौकों की तलाश में हो।

@व्याकुल

ऐसा ये जहान

 "ऐसा ये जहान" पर्यावरण पर संदेश देती फिल्म है। शहरों में बसे हुए लोगो द्वारा बेहतरीन जीवन की तलाश में कही न कही प्रकृति से दूर हो जाते है जबकि गॉव का जीवन उनके आत्मा में रचा-बसा होता है।

धन्य हो निर्देशक को। मसाला फिल्मों से दूर ऐसी फिल्में गहरे तक संदेश दे जाती है। जो बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर देती है।
सप्ताह में एक दिन सभी टॉकीजो में ऐसी फिल्में दिखाया जाना चाहिये।

@विपिन "व्याकुल"

अनंत चतुर्दशी व मलॉव के पाण्डेय

अनंत चतुर्दशी के दिन मेरे मनो मस्तिष्क में एकाएक एक घटना आकर अटक गयी जो वर्षो पूर्व घटित हुई थी जिसका जिक्र राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक "कनैला की कथा" और "मेरी जीवन यात्रा" में किया है।

इतिहास के पन्नों में मलॉव गांव (जिला गोरखपुर) की गौरवगाथाएं दर्ज हैं दस्तावेज के मुताबिक 16वीं सदी में डोमिनगढ़ के डोमकटार राजा की पत्नी तीर्थ के लिए वाराणसी जा रही थीं। रानी को किसी ने बताया था कि मलॉव के कुँए का पानी पीने से बंध्या पुत्रवती हो जाती हैं। वीर संतान पैदा करने की अभिलाषा से रानी ने मलॉव में अपना कारवां रोककर वहॉ के कुँए से पानी मंगवाया। मलॉव के पाण्डेय लोगों ने रानी के आदमियों को पानी भरने से रोक दिया। तीर्थ से लौटकर रानी ने राजा को अपने अपमान की दास्ताँ सुनायी। अनंत चतुर्दशी को मलॉव के पाण्डेय लोग व्रत रखते और हथियार साफ कर उन्हें सजाते थे। उसी दिन राजा ने निहत्थे लोगों पर धावा बोल दिया। मलॉव के बच्चो तक को नही छोड़ा गया था। महिलाओं को भी आक्रमणकारियों ने नहीं बख्शा गया था। जिस कुँए से रानी को पानी नहीं लेने दिया गया उसको ऊपर तक लाशों से पाट दिया गया। यहाँ कोई नहीं बचा था।
इस दिन के बाद से मलॉव के पाण्डेय अनंत चतुर्दशी नही मनाते।
@व्याकुल

फिल्म फोटो

एक बालक जिसे बचपन से ही गणित में मन कम लगता था। कल्पना व जादूई दुनिया में रहने वाला। गणित की कक्षा में कॉपी में चित्र बनाना। प्रकृति से बात करना।

हॉ यही कहानी है फिल्म फोटो (FOTO) की। भारतीय या विश्व स्तर पर बनी फिल्मों का इतिहास न पता हो तो अवश्य देखने लायक है। फिल्मी सामान्य ज्ञान से ओत प्रोत अच्छी फिल्म है। 1895 में lumiere brothers' की फिल्म फ्रांस के एक कैफे में चलाया गया था तब लोग भाग खडे हुये थे उन लोगो को लगा था कि पर्दे से ट्रेन बाहर आ जायेगी।
@व्याकुल
उस फिल्म को यूट्यूब पर सर्च किया तो.. https://youtu.be/4nj0vEO4Q6s
ये लिंक मिला।

भ्रमजाल


आज फिर वो ठगा सा महसूस कर रही थी। कुछ भी अच्छा नही लग रहा था।
आज मितेश की कमी खल रही थी उसको। पिछले बरसात की ही तो बात है जब इन्ही बरसात के दिनों में दोनो घूम रहे थे। समय कितना सब कुछ बदल देता है। ऐसा कोई दिन नही जाता था जब दोनो की मुलाकात न होती हो।
मितेश जब पहली बार कॉलेज आया था कितना गुमशुम सा रहता था। पूरा अन्तर्मुखी स्वभाव था उसका। किसी का कभी ध्यान ही नही जाता। सबसे पीछे की सीट पर बैठना क्लास करना फिर निकल लेना।
उसने घर किराये पर मेरे पड़ोस में ही ले रखा था। कई महीनों बाद उसने सब्जी के ठेले पर सब्जी लेते समय पूछ ही लिया था क्या आप फलां कॉलेज से है। बस मै हाँ ही कह पायी थी। पता नही उसने सुना भी था या नही। आगे बढ़ गया था।
अब हम सभी द्वितीय वर्ष में आ गये थे। थोड़ा सभी लोग आपस में घुलने मिलने लगे थे। कब हमारी प्रगाढ़ता बढ़ गयी पता ही नही चला।
कॉलेज के बाद वो ट्यूशन पढ़ाने लगा। मै भी छोटे से स्कूल में पढ़ाने लगी। हम दोनों वीकेंड पर मिलने लगे।
एक दिन उसने शादी का प्रस्ताव भी रख दिया। मै ना नही कर पायी थी। हम दोनो ने चुपके से कोर्ट मैरिज कर ली थी। बाहर रूम ले लिया था।
मेरे घर में सिर्फ मेरा भाई ही था। मॉ-बाप बचपन में ही गुजर गये थे। 2-3 दिन के लिये बाहर का बहाना बना देती तो वो समझ नही पाता था। 4 साल तक सब ठीक ठाक रहा। अब उसने कानूनी रूप से तलाक लेने को कागज रख दिया था। शादी इतना गुप्त रूप में हुआ था कि किसी को अपना दुख भी जता नही सकती थी।
आज कुछ भी अच्छा नही लग रहा था। खिडकियों के बाहर बरसात का पानी ऐसे शोर कर रहे थे जैसे पत्थर मार रहे हो मुझे।
©️
व्याकुल

फिल्म न्यूटन और जम्मू कश्मीर चुनाव - 6


गतांक से आगे...

श्रीनगर चुनाव के बाद चौथे चरण के मतदान हेतु हम सभी को कुकरनाग ले जाया गया। पर्यटन के लिहाज से बेहतरीन जगह।

@व्याकुल

जिस स्कूल में ठहराया गया था उसके ठीक सामने पहाड़ जो घने वन से आच्छादित था और ठीक पीछे प्राकृतिक चश्में।
स्कूल के ही पास में महबूबा मुफ्ती का चुनावी भाषण भी सुना जो हमारें आश्रयस्थल तक स्पष्ट सुनाई दे रहा था। कुकरनाग बहुत ही सुन्दर स्थल था। वहॉ हम सभी को एक गार्डेन ले जाया गया जो मन को मोह लिया था।
वहाँ गाँव वालों से बात करने का मौका मिला। चुनावी गतिविधियाँ सामान्य रही।
चुनाव के पश्चात हम सभी को वापसी के लिये अवन्तीपुरा वायु बेस ले जाया गया जहॉ से हम सभी की वापसी हुई।
अवन्तीपुरा जाते वक्त बहुत सी दूकाने दिखी जों क्रिकेट के बल्ले से सजी हुई थी।
एक बात भूल गया था श्रीनगर चुनाव के दौरान हम सभी एक पहाड़ी पर गये थे जो काफी ऊँचाई पर था उसके शिखर पर प्रसिद्ध शंकराचार्य मंदिर है 10वीं शताब्दी में आदि गुरु शंकराचार्य यहां आए थे, जिसके कारण इस मंदिर का यही नाम पड़ गया। यह प्राचीन मंदिर भगवान शंकर को समर्पित है।
@व्याकुल

फिल्म न्यूटन और जम्मू कश्मीर चुनाव - 5


गतांक से आगे...

बेमीना वाले घटना ने अंदर तक हिला कर रख दिया था। हम पूरी तरह सुृधर चुके थे। वहॉ की भयावहता भाप चुके थे।
हमेशा की तरह बी.एस. एफ. वाले घुमाने ले गये। डल झील पर शिकारा से हम सभी ने सैर की। वहॉ के लोगो से कई अन्य मुद्दो पर चर्चा भी हुई।
वही पॉचवे चरण की चुनाव के लिये डोडा के लिये भी बोला गया। पर इतने लम्बे समय तक घर से बाहर होने के कारण ऊब चुके थे। ये था कि जल्दी से चुनाव समाप्त हो और घर वापसी हो।
कानपुर के कई मित्र मजाक में बोल कर गये भी थे कि अगर वापसी न हो पाये तो इतना करना एक मूर्ति लगवा देना। कानपुर हो या लखनऊ चुनाव कर्मियों को छोड़ने आये हुए परिवारीजनों के आँखों में आँसू थे।
बी.एस. एफ. जवानों की जितनी तारीफ की जाय कम ही है। इस बीच एक नई समस्या ने जन्म ले लिया था। माँसाहारियों नें भोजन में सामिष भोजन की माँग कर दी। जिला स्तर के चुनाव अधिकारियों से जोर शोर से माँग होने लगी। उनकी माँग पूर्ण होते देख हम शाकाहारी शांत कैसे बैठते। हम लोगों ने भी छेने की माँग कर डाली। जो शाकाहारी लोग डायबिटीज से ग्रसित थे वे ठगा हुआ महसूस कर रहे थे।
इसके अलावा और भी कई संवेदनशील मुद्दे पर कई बार लोगो से झड़प हुई। उन प्रकरण को यहॉ उल्लिखित करना उचित प्रतीत नही होता।
जहॉ तक चुनाव में वोटिंग प्रतिशत का सवाल था। पूरी तरह से चुनाव boycotted था। मजाल कोई वोट डालने आ जायें। एजेंट इत्यादि थे। शायद 6-7 वोट पड़े होंगे बस।

@व्याकुल

(नीचे चित्र में शिकारा की सैर करते हुये)



क्रमशः

फिल्म न्यूटन और जम्मू कश्मीर चुनाव - 4


गतांक से आगे...

टंगमर्ग में दूसरे चरण के चुनाव के बाद हम सभी को तीसरे चरण के चुनाव हेतु श्रीनगर जाना था। श्रीनगर के बेमीना कॉलेज में ठहराया गया। वहॉ एक मजेदार व भयावह घटना घटित होते-होते बची।
पता नही कहा से मुझमें ये साहस आया कि क्या जरूरत है हमे बी. एस. एफ. वालों को साथ लेकर चलने की। 3-4 अपने साथियों से बात की कॉलेज की सुरक्षा चक्र से निकलने की। हम चल पड़े। ये प्लान हुआ कि बाहर निकलकर पी. सी. ओ. से अपने-अपने घरों पर फोन करेंगे।
कॉलेज के मुख्य द्वार पर बात की। अनुमति मिल गयी बाहर निकलने को। जैसे ही हम सभी कॉलेज के बाहर मुख्य सड़क पर आये गोलियाँ चलने की तड़तड़ाहट सुनाई दी। परेशान हो गये थे हम सभी। पॉव ठीठक गये थे। ये हुआ बुद्धिमानी इसी में है लौट चला जाये। लौटा तो कॉलेज का गेट बन्द। हम सभी बाहर। बाहर से आवाज देना और गेट पीटना शुरू कर दिया था चूँकि कुछ ही देर हुआ था सो वो जवान मौके की नजाकत को देखते हुये हम सभी को प्रवेश कराया।
उसने बताया बगल के पुलिस कॉलोनी में फिदाइन हमला हो गया है आप सब इस बगल वाले निर्माणाधीन बिल्डिंग में छुप जाओं। जब गोली चलने की आवाज बंद हो तभी अपने-अपने बटालियन मे जाना।
गोली बंद होने का नाम ही नही ले रहा था। उस निर्माणाधीन बिल्डिंग के छत पर दबे पॉव गया तो एक जवान पोजीशन लिये बैठा था। हम दबे पॉव नीचे आ गये। सोचा अगर कुछ बोला तो कही ये शूट न कर दे।
हम सभी बैठे रहे।
प्राचीन कालीन समय होता तो सूर्य डूबने के साथ बन्दूकें भी थम जाती। अब अँधेरा होने लगा था। हम सभी फस चुके थे। दिमाग ने भी काम करना बंद कर दिया था।
इंसान का असली साहस मुसीबत में ही निकलकर सामने आती है यही हम सभी के साथ हुआ। अब प्रश्न जीवन-मरण का था सोचा गया जो होगा देखा जायेगा। निकल पड़े उस बिल्डिंग से।
अभी कुछ कदम ही चले होंगे। पीछे से बंदूक की नली हमारी पीठ पर। पूछा गया, कौन? हम सभी अपना परिचय बटालियन के साथ दिये। पूछा गया, ' यहॉ क्या कर रहे आप लोग'। निरूत्तर थे हम सभी। क्या जवाब देते?? आदेश, ' जाइये अपने अपने बटालियन में' ।
हम सभी ने आग्रह किया साथ चलने को। दुबारा कभी ऐसा नही सोचने का प्रण लेकर मन व्याकुल रहा।
@व्याकुल
क्रमशः

रविवार, 30 मई 2021

फिल्म न्यूटन और जम्मू कश्मीर चुनाव - 3

गतांक से आगे...

चुनाव में जाने से पहले धर्म ग्रन्थ "गीता" ले जाने को कहा गया था। एक छोटा ट्रांजिस्टर भी। मै अपना परिवार प्रयागराज छोड़ आया था।

कश्मीर जाने से पहले लोगो के परिवार में बहुत सी चिन्तायें थी। लोग ड्यूटी कटवाने में लगे हुये थे चिकित्सीय आधार पर। मेरी युवावस्था थी कौन सा बहाना बनाता।
कश्मीर के एअर पोर्ट पर पहुँचते ही एक अलग ही एहसास महसूस हुआ।
कैमरा था नही पास में। बी. एस. एफ. के कुछ जवानों से अच्छी मित्रता हो गयी थी। एक जवान ने बीड़ा उठाया, "सर, आप चिंता न करे फोटो आपके पास भेज दूँगा।" मैने उनको पता दे दिया था। बाद में सारी फोटो मेरे पते पर भेज दिया गया था। कमाण्डेंट स्तर के अधिकारी बहुत चौकाने वाले अनुभव शेयर करते थे।
                                           @विपिन

मुझे भाषा सीखने की बड़ी दिलचस्पी रही है। वर्णमाला तो नही पर कुछ कश्मीरी वाक्यों को लिखता व बोलने की कोशिश करता। आज भी जब किसी कश्मीरी को कानपुर में मिलता हूँ तो उन वाक्यों को अवश्य ही दुहराता हूँ। लेकिन जैसे ही वे क्लिष्टता की ओर बढ़ते मै आत्मसमर्पण कर देता हूँ।
कश्मीर के अधिकांश लोगों में मेहमान नवाजी गजब का देखा। 1-2 गॉवों मे चुनाव ड्यूटी के समय उनके साथ नाश्ते का मौका मिला। लगा ही नही इतनी दूर चुनाव ड्यूटी में हूँ।
@व्याकुल
क्रमशः

फिल्म न्यूटन और जम्मू कश्मीर चुनाव - 2


गतांक से आगे...

पहली बार चुनाव में EVM का प्रयोग हुआ था। पट्टन के चुनाव के बाद अगले चरण के लिये टंगमर्ग ले जाया गया। हर एक बटालियन मे 20 चुनाव कर्मी थे। बी.एस. एफ. के जवान बड़ा ही ध्यान रखते थे हम सभी का।
टंगमर्ग बहुत ही संवेदनशील जगह था। वहॉ रात्रि में एक मेजर, जो इलाहाबाद के थे, से मुलाकात हुई। इलाहाबाद के नाते मुझसे काफी बाते की उन्होनें।
                                            @विपिन

टंगमर्ग में ठहराव के दौरान बी.एस. एफ. वाले हम सभी चुनाव पार्टियों को गुलमर्ग भी ले गये। वहाँ काफी इंज्वाय किया हम सभी ने।
                                           @विपिन

चुनाव में औसत वोटिंग प्रतिशत रहा था। चुनाव में बूथ पर एक दिन पहले न जाकर वोटिंग वाले दिन ही जाना होता था। प्रपत्र अंग्रेजी भाषा में ही होता था।
चित्र: टंगमर्ग में गंडोला के सामने।
@व्याकुल
क्रमशः

फिल्म न्यूटन और जम्मू कश्मीर चुनाव - 1

 

छुट्टियों में बेहतरीन फिल्म देखने का एक अलग ही मजा होता है। न्यूटन फिल्म किसी नक्सली क्षेत्र में चुनाव ड्यूटी को लेकर बनी है। न्यूटन फिल्म देखते जा रहा था और मुझे 2002 में अपनी ड्यूटी याद आ रही थी जो कि कश्मीर के विभिन्न जगहों पर लगी थी और लगभग मै वहाँ एक महीने रहा था।
लखनऊ से लादे गये और पहुँच गये कश्मीर। शायद वो श्रीनगर का एअरपोर्ट था। वहॉ पहुँचते ही एक हमारे चंचल मित्र किसी फलदार वृक्ष पर चढ़ गये थे और डाल हिला हिला कर लोगो को फल चखने का मौका दिये। बी.एस.एफ. वालो के कहने पर नीचे आये।


@विपिन
श्रीनगर से हम लोगो को पट्टन भेज दिया गया था। श्रीनगर से पट्टन जाते वक्त ऐसे कई बढिया मकान दिखे जो खाली ही था और लग रहा था जैसे सालों से कोई रह न रहा हो। जिस जगह ठहराया गया था उसके ठीक सामने सेब का बाग था। जब सेब खाने का मन होता हम सभी चले जाते और सेब जेबों में भर लाते। बी.एस.एफ वाले बताते थे कि वो बाग किसी कश्मीरी पंडित का था।
पट्टन 7 दिन तक रहा। गोलियों की आवाज सुनाई देना सामान्य बात रहती थी। पट्टन से उड़ी सेक्टर की दूरी ज्यादा नही थी।
बड़ा ही अफवाह व भय का माहौल रहता था....
@व्याकुल
क्रमशः

पढ़ने की आदत और पुस्तकालय

आज की पीढ़ी और आने वाले समय में समाज को एक भयंकर समस्या से ग्रसित होना है.. वह है "पढ़ने की आदत" की समस्या। पुस्तकालयों की मनोदशा के अंदर झाँक कर देखिये। किताबों पर पड़ती धूल। कॉलेजों में कुछ assignment ऐसे मिले जिसमें सप्ताह में एक दिन किसी पब्लिक पुस्तकालय में कम से कम 4-5 घंटे अध्ययन करे व संबंधित प्रोजेक्ट पर कुछ अंक भी निर्धारित हो। पुस्तकालय कदम रखते ही बच्चों को और भी विषय सामग्रियों से वास्ता पड़ेगा जिससे उनमें अध्ययन की आदत पड़ेगी। अध्ययन से विभिन्न विचारों को जानने समझने का मौका मिलता है व खुद के भी विचारों का जन्म होता है। ऐसे ही बड़े विचारकों का जन्म नही हुआ होगा जरूर वे महान पुस्तकालयों की शरण में गये होंगे।

@व्याकुल

(संलग्न आर्टिकल हिन्दूस्तान समाचार पत्र में 12 अक्टूबर, 2019 से लिया गया)


मन

 

कभी कभी कुछ ताना बाना अंदर से निकलता है.. यही आत्मा की सुर होती है शायद......
कहावत सुनता आया हूँ लुटिया डूब गयी। लुटिया डूबेगी नही तो भरेगी कैसे। लुटिया की आकार या बनावट पर जायेंगे तो यहीं पायेंगे किं खाली ही रहता है और लुटिया डूबेगी वही जहा पात्र भरा होगा
कुछ भी खत्म नही होता। बस उसका रूप व प्रकार बदल जाता है। हताश या निराश होना ही नही चाहिये। प्रकृति अपने हिसाब से चीजो को समायोजन कर रही। प्रश्न है किं बलवान कौन???प्रकृति या मानव। निःसंदेह प्रकृति ही होगा। जिसका निर्माण खुद से होगा वही बलवान होगा। मानव तो निर्भर है प्रकृति पर। ऐसे ही मानव का प्रयास खुद को निर्मित करने का होना चाहिये। ये काम कर लिया तो समझो यथार्थता के चरम को पा लिया। एक बार ऐसा तारतम्य बना लिया तो समझो लयबद्ध हो गये आप। फिर प्रश्न उठता है लय कहॉ और किससे। उसी प्रकृति से। करके देखिये एक बार। मन आनंदित हो उठेगा।
राम राम।
@"व्याकुल"

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...