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रविवार, 19 अप्रैल 2020

मोहल्ला

                               चित्र स्रोत: गूगल

गुलजार सा'ब की पंक्तियाँ याद आ ही जाती है जब अपना मोहल्ला सोचता हूँ-

मिरे मोहल्ले का आसमां सूना हो गया है।
बुलंदियों पर अब आकर पेंचे लड़ाए कोई।।

मोहल्ला न कहिये इसे। संस्कृति का मजबूत अनौपचारिक केंद्र। भाषा में ठेठपन लिये आचार विचार में एकसमान।

मोहल्ला में हल्ला शब्द भी कमाल करता है। ये न हो तो मोहल्ला का भी कोई अस्तित्व है क्या।

मेरे मोहल्ले में एक हल्ला गुरू रहते थे एक बार अगर बाँग दे दिये तो क्या मजाल कोई सोता रह जायें।

हर मोहल्ले की अलग अलग संस्कृति होती है। रंगबाजी भी अलग टाईप की। मजाल कोई दूसरा वहाँ आ जायें।

हर शहर के कुछ मोहल्ले वहाँ की जाति के नाम पर भी होते थे। कुछ मोहल्ले का नाम किसी खास व्यक्ति के नाम पर। जरूर वो व्यक्ति अपने जमाने से आगे रहा होगा।

मेरे हिसाब से तो परफेक्ट मोहल्ला वही होता है जहाँ अपने मकान के चबूतरें पर बैठे बैठे सामने अपने चबूतरे पर बैठे हुए से अनवरत बात हो सके

नये मोहल्लों में वो बात कहा। पता पूछने निकल जाओं तो सांय-सांय की आवाज या घर से भूँकते कुत्ते।
पुराने मोहल्ले मे किसी का पता पूछो तो पूरा खानदान का हुलिया बताने के साथ साथ घर तक पहुँचा कर ही दम लेते है।

जब आप शहर से दूर होते है तो वही पुराने मोहल्ले ही स्मृतियों मे रह जाते है। होली पर तो उन्ही पुराने मोहल्लों की सैर हो जाया करती थी जो उत्साह व उमंग वहाँ देखने को मिलता है वो बात भद्र लोक में नही आ सकती।

तभी तो गुलजार सा'ब भी कह ही देते है -

बचपन में भरी दूपहरी में नाप आते थे पूरा मोहल्ला।
जब से डिग्रीयां समझ में आई पाँव जलने लगे।।

मै भी कहा मानने वाला हूँ हँसते रहे हँसने वाले। सलीम अहमद की शेर को फलीभूत कर ही देता हूँ -

मोहल्ले वाले मेरे कार-ए-बे-मसरफ़ पे हँसते हैं।
मैं बच्चों के लिए गलियों में ग़ुब्बारे बनाता हूँ।।

@व्याकुल

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