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रविवार, 19 सितंबर 2021

द्विचक्रिका

 

हवाओं से बात करूँ

जो रख सकूँ पाँव पैडिलों पर

गलियों की हूकूमत करूँ

जो बैठ सकूँ तिकोन सीट पर..


मुनादी करवा दी जंगलों में

जो बजा दी तेज घंटो को

तीनों लोक नाप सके पल में

जो चलाये तेज चक्रों को

@व्याकुल



रविवार, 13 जून 2021

खामोश पहिया

धनंजय को जबर्दस्त पान की लत थी। ऐसा कोई दिन नही जाता था जब वों पान न खाता हों। किस तम्बाकू में नशे की कितनी गहराई है उससे बेहतर कोई बता नही सकता था। मोहल्लें के आस-पास के पान वाले उसका मूड देखकर पान बना देते थे। आज वो कही खोया- खोया था। पान वाले की बक-बक उसकों सुनाई नही दे रही थी। थोड़ी देर बाद पान वाले ने भी धनंजय का मूड देख चुप हो गया था।

सिर्फ उसने पान वाले से यही पूछा, 'गाँधी महाविद्यालय' के आस- पास कोई बेहतरीन दूकान है क्या पान की? पान वाला सिर्फ 'खालिद पान' ही बोल पाया था किं धनंजय पाँच का सिक्का ऊपर की जेब से निकाला और बिना कुछ प्रत्युत्तर किये चला गया।

धनंजय के कपड़ों से लगता था कि आर्थिक स्थिति बहुत ही बेकार है। शक्ल तो भगवान ने ऐसी बना रखी थी किं समाज के अंतिम पायदान का अंतिम व्यक्ति का प्रतिनिधि हो जैसे। पता नही क्या उसके दिमाग में चल रहा था वो 'ठाकुर साईकिल' वाले के सामने खड़ा हो गया। कुछ देर पंचर बनता देखता रहा। तभी वो कुछ सोच अजीब सी भाव-भंगिमा बना मुस्कुराया जैसे उसे कुछ खजाना मिल गया हों। उसने 'ठाकुर साईकिल' वाले से पूछा, 'कोई पुरानी साईकिल मिलेगी क्या?' दुकान वाला बोला, 'हाँ, साहब!मिल जायेगा', '22 इंच की है'। धनंजय ठहरा 5 फिट 5 इंच। कुछ देर सोचने के बाद बोला, 'ठीक है'।

आज वह बहुत दिनों के बाद साइकिल सवारी पर था। पूरे शहर का चक्कर लगाया। तिकोना पार्क का ३ चक्कर लगा दिया। उसे अपने बचपन की एक-एक घटना मन:स्मृति में उभर आई थी।

साईकिल कब 'गाँधी महाविद्यालय' के गेट तक जा पहुँची ध्यान ही नही रहा उसे। एकाएक उसे गेट पर 'खालिद पान' वाला दिख गया। पान की दूकान पर पहुँचते ही याराना अंदाज में बोला, 'खालिद भाई' "पान की तलब लग रही", "दो बीड़ा पान बना दों"। खालिद भी फुर्सत में था। रेडियों पर टेस्ट मैच की कमेंट्री सुन रहा था। तुरंत धनंजय की तरफ देखा और बुदबुदाया, 'जी, साहब'।

पान की बीड़ा मुँह में दबाते ही बोला, "खालिद भाई! पान तो गजब का बनाते हैं"। प्रशंसा किसे पसंद नही। खालिद की आँखों में चमक आ गयी थी। 
धनंजय की खालिद से दोस्ती दिनोदिन परवान चढ़ रही थी। कॉलेज के विद्यार्थी भी खालिद की दूकान पर होंठ लाल करने आ जाते थे। धीरे-धीरे धनंजय की जान पहचान कॉलेज के विद्यार्थीयों से हो गयी थी।
अधिकांश विद्यार्थी ऐसे थे जो काफी डरे हुए, संयमित व संशकित से रहते थे। खालिद से पूछता भी तो कैसे? अभी मै खुद उनका नया मुलाजिम था।

दीपक सौम्य व सरल व्यक्तित्व का स्वामी था। खालिद की दूकान पर आते ही हाय हैलो हुआ उससे। पान खाते - खाते काफी बात हुई और उसने बताया कि कैसे उसने इस प्रतिष्ठित महाविद्यालय में प्रवेश लिया था। दिन-प्रतिदिन हमारी दोस्ती प्रगाढ़ होती गयी। अब तो हमारी बातचीत व्यक्तिगत् स्तर पर भी होती रही।

आज सुबह कॉलेज में पुलिस वालों की काफी भीड़ थी। कई सीनियर छात्र पकड़े जा रहे थे। जूनियर की रैगिंग के आरोप में। पुलिस वाले चुन चुन कर दोषी विद्यार्थियों को शिकंजे में ले रहे थे।

शायद!! खालिद की दूकान मेरे जीवन का अंतिम दिन रहा। मैने साईकिल खालिद को यह कह कर दी थी किं "आऊँगा एक दिन अपनी हवाई जहाज लेने, सम्भाल कर रखना इसको"।

©️व्याकुल

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