चित्र: गूगल से
कल थी जहॉ
आज भी वही
पनघट वही
नीर वही
प्यासे वही
छाले वही
लकीरे वही
मटकी वही....
मटकी बूँद नही
सागर की
हो पेय कन्हैया
की
एक गुलेल मारे
कान्हा
तार दे सुदामा
सी....
@व्याकुल
आस पास तड़पते लोगो को देखना और कुछ न कर पाना कितनी कोफ़्त होती है न। व्याकुलता ऐसे ही थोड़े न जन्म लेती है। कितना तड़प चुका होगा वो। रक्त का एक एक कतरा बह रहा होगा। दिल से कह ले या आँखों से। ह्रदय ग्लानि से कितना विदीर्ण हो चुका होगा। पैर भी ठहर गए होंगे। असहाय इस दुनिया में सिवाय एक निर्जीव शरीर के।
कल थी जहॉ
आज भी वही
पनघट वही
नीर वही
प्यासे वही
छाले वही
लकीरे वही
मटकी वही....
मटकी बूँद नही
सागर की
हो पेय कन्हैया
की
एक गुलेल मारे
कान्हा
तार दे सुदामा
सी....
@व्याकुल
मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...