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शनिवार, 18 सितंबर 2021

चिलबिल

चिलबिल का पेड़ मेरे बचपन से जुड़ा एक शानदार पेड़ है। घर के बगल कब्रिस्तान के एक कोने में अकेला खड़ा। तने का रंग जामुन के रंग जैसा। गहरे हरे रंग की आकर्षित करती पत्तियां। पेड़ पुराना था। इतनी ऊंचाई पर था कि हम लोग उसकी छांव नही ले सकते थे। 


 चित्र: गूगल से

अरस्तू कहते थे जिस मनुष्य को समाज की आवश्यकता नही, वह या पशु या देवता होगा। अकेले पेड़ को क्या कहेंगे??? हम बच्चों की कोलाहल से निःसंदेह खुश हो जाता होगा।

जब सूखी पत्ती जैसी फली हवा के झोंको से जमीन पर गिरती रहती थी। याद नही किसने ये बताया था कि इसके अंदर एक छोटा सफेद बीज खाया जा सकता है। उसी ज्ञानी ने यह भी बताया था कि इसका तो लोग हलवा खाते है। फिर क्या था बकझक के बीच इसका बीज खा लिया करते थे।

इसके भी कई नाम है जैसे हम लोगो के होते है - चिलबिल, चिरमिल, पापरी, करंजी, बेगाना, बनचिल्ला। 

थोड़ा इस पर अध्ययन किया तो पाया कि छाल, पत्ती और बीज सभी स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद है। 

फिर क्या?? चिलबिल पर मेहरबान हो जाइये। लगा डालिये कही मैदान या खाली जगहों पर। 

प्रकृति से बेहतरीन चिकित्सक कौन हो सकता है भला...

@व्याकुल

शुक्रवार, 17 सितंबर 2021

कैनवस बॉल टूर्नामेंट

एक दौर था कैनवस की गेंद के टूर्नामेंट का। हर मोहल्ले के गली-कूचों में टूर्नामेंट होता रहता था। उत्साह का माहौल रहता था। 30-40 फिट चौड़ी सड़क पर भी आराम से हो जाया करता था। जरूरी नही टूर्नामेंट का टाईम दिन में हो, अमूमन रात में ही होता था।

जीतने वाले मैच के कप्तान को ट्रॉफी, मैन अॉफ द मैच, मैन अॉफ द सीरिज सबकों ट्राफी मिलती थी। 

एक बार हमारें छोटे भ्राता श्री अपने छोटे दल को लिये एक टूर्नामेंट में भाग लिये थे। 1-2 राउंड जीतने के बाद, मुझे और मेरे कई हमउम्र को शामिल किये थे (वैसे मै क्रिकेट में बहुत अच्छा नही था, पर छोटकी गोल से थोड़ा बेहतर था)।

जब यह टूर्नामेंट क्वार्टर या सेमीफाइनल में पहुँचा ज्यादातर खिलाड़ी बड़े स्तर के आ गये थे। मेरे बड़े भाई, जो उस वक्त 'ए' डिवीजन लीग मैच खेलते रहे थे, की साथियों के साथ टीम में इंट्री हो गयी थी।  

छोटी वाली गोल से सिर्फ छोटे भ्राता कप्तान थे। शुरुआत के सारे खिलाड़ी नदारद थे। 

ये पहला ऐसा मैच था जिसके फाईनल में तीनों भाई थे। घर में पॉच मेडल आये थे।

इसके नियम भी अजीब थे। छक्का एकदम नही था। दो रन और चार रन होते थे। टप्पा खाकर गेंद चॉक के बने बाउंड्रीवॉल से बाहर चला जाये तो चार रन। 

मैच की खूबी यह थी कि संयमित खेल होता था। आस-पास के घरों के शीशे शायद ही कभी टूटते हो।

@व्याकुल

क्षारीय भोजन

एक मजेदार घटना का जिक्र करता हूँ। कुछ वर्ष पहले मै अध्ययन के दृष्टिगत चित्रकूट में था। उसी समय वहॉ एक संत पधारे थे। अपने भक्तों से बोल रहे थे कि अगर आप सभी को स्वस्थ रहना है तो आटे को कच्चा ही खाये। पका कर न खाये। सब भक्त गण चिंतित। ऐसा कैसे संभव। मेरे समझ में तुरंत आ गया। पकाने की परम्परा की शुरुआत निश्चित रूप जीभ के स्वाद से जुड़ी होगी। पकी हुई चीजों में मूल स्वास्थ्यवर्धक तत्व गायब हो जाता है। तभी सलाद व फल स्वास्थवर्धक रहता है।

हम जितना आधूनिकता की ओर बढ़ते जा रहे उतना ही खान-पान और रहन-सहन भी बदलता जा रहा। जो भी मिल गया खा लिया। यही आदतें हमे बीमारियों की ओर ले जा रही। अगर हमें स्वस्थ्य व दीर्घायु रहना है तो खान-पान में सुधार करना होगा।

हमे इसका ज्ञान होना चाहिये कि हम क्या खायें और क्या न खायें। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य ये है कि हम अन्न में क्या ले रहे। कही हमने अपने लीवर को प्रयोगशाला तो नही बना रखा। 

आजकल हम मैदे से बनी सामग्री, तेल या तली हुई सामग्री प्रचुरता में रहे है। जीभ का स्वाद प्रमुख हो गया है। शरीर का स्वाद या लीवर का स्वाद गौण हो गया है। 

अम्लीय भोजन ठूसे जा रहे है। अपच्य व गैस की बीमारी का शिकार होते जा रहे। जबकि हमारे आयुर्वेद में क्षारीय भोजन की सलाह दी गयी है। फाइबर प्रचुरता वाले भोजन लेने की बात कही गयी है। 

अम्लीय भोजन की अधिकता से तमाम तरह की बीमारियां घर कर रही है। एक बीमारी ने घुसपैठ की तो समझिये बाकी बीमारियों की श्रृंखला बन ही जायेगी।

क्षार पद्धति से इलाज भी दो प्रकार से होता है: 1.पहला, खाने वाला व 2. दूसरा, घाव या अंग पर लगाने वाला। 

मौसमी फल अवश्य खाये।

आज से ही शुरु कर दीजिये क्षारीय प्रचुर वाले भोजन की.......


@व्याकुल

बुधवार, 15 सितंबर 2021

नमक

किसी ने सही कहा है:

"तुम ने एहसान किया है कि नमक छिड़का है 

अब मुझे ज़ख़्म-ए-जिगर और मज़ा देते हैं"

नमक का महत्व हमारे जीवन में गहरे तक जुड़ा हुआ है। खाने में नमक ज्यादा हो या कम ही हो जायें तो कोहराम मच जाता हैं।

नमक का संतुलन नितान्त आवश्यक है। समुद्र के खारे पानी में से भी अपने लायक कुछ निकाल लेना छोटी बात नही है। 

पुराने जमाने में लोंग जल्दी किसी का नमक नही खाते थे। एक बार नमक खा लिया तो साथ देने से मुकरना नही है या ताउम्र वफादार बने रहना है। गुपचुप ऐसा न करना कि कहना पड़े...

"दामन पे कोई छींट न ख़ंजर पे कोई दाग़ 

तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो"


हफ़ीज़ बनारसी सही ही कहते है:

दुश्मनों की जफ़ा का ख़ौफ़ नहीं 

दोस्तों की वफ़ा से डरते हैं...

हम तो रसायन शास्त्र में पढ़े है.. सोडियम क्लोराइड... ये तो मुझे ऐसा ही लगता है दूबे जी विदेश गये हो और कोई कह दे मि. डूबे...

1973 में एक फिल्म आयी थी "नमक हराम।" इस फिल्म का डॉयलाग भी गजब का था:

"जीने की आरज़ू में मरे जा रहे हैं लोग.… मरने की आरज़ू में जीए जा रहा हूं मैं!"

कही कोई लेख पढ़ रहा था तो लिखा भी था। ताउम्र जवाँ रहना है तो नमक कम कर दें।

नमक अकेला नही है। इस दुनियां में कई भाई-बहन है उसके। जैसे- समुद्री नमक.. सेंधा नमक... काला नमक....

मै कुछ भी लिखुँ और बचपन न आये। हो ही नही सकता। 

बचपन में गॉवों में नेवता के लिये भी जाना होता था तो कोहड़े की सब्जी मिल ही जाती थी...हिमालयी सम्मा (पूरा) आलू की तलहटी में कोहड़ा संघर्षरत्। बस नमक मिलाने की देर होती थी। फिर क्या था??? मति हेराय जात रहा.... चुटकी भर नमक का कमाल आज भी जीभ को याद है.....

@व्याकुल

मंगलवार, 14 सितंबर 2021

पाचन

मै पिछले दो वर्षो से बहुत ही परेशान रहा। सन् 2020 में 2-3 महिने लॉकडाउन में घर बैठना हो गया। फिर 2021 में एक महीने। इन दो वर्षो में अपच्य का शिकार हो गया। गैस का तो पूछिये ही मत। दिन भर गैस। जिंदगी में नही सोचा था किं मुझे कब्जियत भी होगी। 

खैर!!!!! होमियोपैथी से इलाज शुरू किया। जब तक इलाज चलता रहा तब तक ठीक रहा। फिर वही लक्षण व बीमारी। मै परेशान हो गया। 

इसके बाद आयुर्वेदी पद्धति पर आ गया। दवाइयां ली। पर फिर वही। मै परेशान हो गया था। इतनी भयंकर समस्या थी कि बाईक नही चला पाता था। कुर्सी पर बैठना तो मुश्किल ही था। ये बीमारी भी ऐसी होती है कि आप ज्यादा किसी से शेयर नही कर सकते। 

वैसे मै हमेशा से ही दवाइयां खाने से बचता रहा हूँ। मुझे लगता है किं किसी भी बीमारी का इलाज नैसर्गिक (natural) तरीके से करना चाहिये। भले ही आपकों खान-पान से समझौता करना पड़े।

मैने दवाइयां सब बंद कर दी। प्रण ले लिया था खान-पान सुधारने के लिये।

सबसे पहले गाज गिरी समोसा व बताशे (फुल्की) पर। पूड़ी, तेल की बनी सारी चीजे बंद की। जब इन सब चीजों पर नियंत्रण पा लिया। फिर आया शाम के भोजन पर। बहुत ही नियंत्रित भोजन लेने लगा। शाम का भोजन छः बजे तक करने लगा। कभी-कभी पौष्टिक तरल से ही काम चलाने लगा। सिर्फ सुबह पूरा भोजन लेता। बाकि समय लिक्विड। 

परिणाम आश्चर्यचकित कर देने वाले थे। गैस का राम नाम सत्य हो गया। कब्जियत शब्द को भूल चुका हूँ। 

अभी सुबह का टहलना... रात जल्दी सोना और नियमित रूप से व्यायाम पर चिंतन जारी है....

@व्याकुल

सोमवार, 13 सितंबर 2021

आई. ए. एस.

हमेशा से ही लाल बत्ती का एक अलग ही क्रेज रहा है। विशेषकर पूर्वांचल और बिहार में। उन दोनों क्षेत्र में और किसी भी नौकरी को उतना सम्मान नही मिलता जितना आई. ए. एस. या पी. सी. एस को। 

अगर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में है तो इसके नशे से शायद ही कोई बच पाया हो। 

60 के दशक या उससे पहले सीट भी कम रहती थी और परीक्षा केंद्र भी सीमित जगहों पर होता था। एक पूर्व पी. सी. एस. टॉपर (1966) ने बातचीत के दौरान बताया कि इलाहाबाद में उस जमाने में पी. सी. एस. परीक्षा का सिर्फ एक केंद्र हुआ करता था।  पब्लिक सर्विस कमीशन में दो हॉल ऊपर-नीचे हुआ करता था। वही परीक्षा होती थी। आजकल तो आई. ए. एस. की परीक्षा में ही एक ही जिला में कई केंद्र हो जाते है।

किसी जमाने में आई. ए. एस. की परीक्षा के परिणाम में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों का बोल-बोला रहता था। अब केंद्र खिसक कर दिल्ली हो गया। उसी प्रकार जैसे साहित्यकारों का केंद्र अब दिल्ली हो गया है।

वैसे आई. ए. एस. का अस्तित्व बचाने में पटेल जी की अहम् भूमिका रही है। देश की आजादी के बाद नेहरू जी आई. सी. एस. पद ही खत्म करने वाले थे क्योकि उनकों आई. सी. एस. का व्यवहार कभी पसंद नही आता था। पटेल जी इसके विरोध में थे। पटेल जी ने नाम में संशोधन कर भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई. ए. एस.) कर दिया था। पटेल जी दूरदर्शी, मजबूत इच्छा शक्ति व व्यावहारिक शख्स थे। बाद में नेहरू जी आई. ए. एस. अधिकारियों के. पी. एस. मेनन और गिरजा शंकर बाजपेयी से बहुत प्रभावित थे।

सोचिये अगर ये पद ही खत्म हो गया होता!!!!!!

@व्याकुल

रविवार, 12 सितंबर 2021

गुरुजन

 सभी गुरुजनों को मेरा अभिनन्दन

💐🙏🏻

माँ-पिता प्रथम गुरु के उपरान्त समस्त गुरुजन् को मेरा प्रणाम् जो वजह बने जगत् को परखने की सद्बुद्धि प्रदान करने का।

🙏🏻🙏🏻


गुरु-वाणी

गूँजते रहते

कानों में

नित् पल

प्रतिपल..


बंद कर

दृगों को

सोचू 

दे जाते

अहसास

असीम

सुखद सा..


बेंत लगे 

थपकी

कुम्हार 

का

प्रसाद सा

डाँटे

जैसे

चरण हो

हरि का..



करते

परिवर्तन

उथल-पुथल

से मन को

भरते

दूलारते

स्नेहिल

शब्दों

से..


अभिलाषित

करूँ

कृष्ण रूपी

गुरुओं की

छाया

जो बाँध

सके

परन्तप के

बहके कदम....


@व्याकुल

पथ

(वो पथ जिसने कई शहीदों को अपने सीने लगाया)

पथ वही

पथिक नही

ढूढ़ रहा

पथिक को

जो 

बनी थी

मुकुट उसकी..


रक्त रंजीत

हो

हर्षायी

तकती राह

उस राही की..


उस 

दृढ़ी की

पावड़े बिछाए

भीड़ों की 

श्रृंखला देखती..


ख़ुशी से 

मगन 

ख़ुशी के 

आँसु

छलक जाते

पुष्प की 

लय

उस पर 

पड़ते..


तंद्रा ही

थी

है पुष्प 

ये

विछोह के..


राह तकती 

उस वीर की

जिसने 

प्राणों की 

बलि की..


समर्पित जीवन 

की 

अभिलाषित

वो पथ 

"व्याकुल" सी...


@व्याकुल

भस्मासुर

अभी हाल ही में अफगानिस्तान की घटना देखी व सुनी। तालिबान का जिस तरह से काबुल में कब्जा किया गया भस्मासुर की याद दिला गया। जहॉ तक मुझे समझ है ये तीन घटनायें एक जैसी ही है। 

पहली घटना भस्मासुर की है, भस्मासुर को शिव जी का वरदान था वो जिसके सर पर हाथ रखेगा भस्म हो जायेगा। भस्मासुर वापस उल्टा शिव जी को ही भस्म करने का मन बना लिया। बड़ी मुसीबत में फसे वों। खैर, धन्य हो विष्णु भगवान जी का। स्त्री रूप धर चतुराई से भस्मासुर का वध कर दिया, तब जाकर शिव जी की जान बची। 

दूसरी घटना, भारत के पंजाब की। कैसे अकाली दल के वर्चस्व को खत्म करने के लिये भिण्डरावाले को खड़ा किया। उसके बाद की घटना से तो आप सभी वाकिफ ही है। पूरा देश धूँ-धूँ कर जल उठा था।

तीसरी घटना तालिबान की है। सोवियत संघ के वर्चस्व को खत्म करने के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान का सहारा लिया था। पाकिस्तान सोवियत संघ से सीधे टकराने की बजाय तालिबान का गठन व प्रशिक्षित किया था। आधुनिक हथियार जैसे हवा में मार कर विमान को उड़ा देने वाले राकेट लॉन्चर, हैण्ड ग्रैनेड और एके ४७ आदि अमेरिका द्वारा उपलब्ध कराया गया था। बाद में खराब आर्थिक स्थिति के फलस्वरूप सोवियत संघ को अफगानिस्तान छोड़ना पड़ा था। 

चित्र: गूूूगल से

फिर वही हुआ जिसकी चर्चा यहॉ कि जा रही है। 2001 में अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर में हमला हुआ। अमेरिका खिलाफ हो गया उन साँपों के खिलाफ जिसकों कभी उसने दूध पिलाया था।  

हम इतिहास से सीख नही लेते। दुश्मनी में बदला लेने में ये नही सोच पाते कि किसकों बढ़ावा दे रहे है। यही काम अमेरिका ने किया था। वों शीत युद्ध का समय था। सोवियत संघ के गिराने में खुद उस खंदक में गिर चुके थे।

फिर बारम्बार वही भस्मासुर को जन्म देते रहते है.....

@व्याकुल

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...