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मंगलवार, 15 जून 2021

सुंघनी


प्रयागराज के घंटाघर अगर आप आ गये तो समझिये समुद्र में आ गये। एक लहराती नदी मीरापुर-अतरसुईया से आकर मिल जाती है... दूसरी नदी मालवीय नगर-कल्याणी देवी से होते हुये लोकनाथ के तट पर समाप्त होती है...तीसरी नदी मुट्ठीगंज से कई नदियों को समेटे नीम के पेड़, जिसकी गाथा स्वतंत्रता सेनानियों की लहू से लिखी गयी है, पर आकर विलीन हो जाती है... जीरो रोड.. ठठेरी बाजार को आप जूहू बीच समझ सकते है.. इन्ही समुंदर में मै भटक रहा था तम्बाकू की मोटी बड़ी पत्ती के लियें। बोला तो यही गया था कि वही चऊक में ही मिलेगा। मैने पान खाते देखा था लोगो को.. बीड़ी-सिगरेट का सुट्टा लगाते देखा था पर तम्बाकू की पत्ती का क्या। खैर.. बुजुर्गो का आदेश था तो मानना ही था...आखिरकार मुझे एक छोटी सी दूकान पर तम्बाकू के पत्तियों के विभिन्न प्रकारों के विक्रेता दिख ही गये। याद तो नही पर था बड़ा ही सस्ता। ले आया। बड़े चाव से उसको पीसा गया.. मुझे भी देखने में आनन्द आ रहा था.. फिर एक बेलनाकार छोटे सी लकड़ी में उसकों भरा गया। जब मन होता बड़ी तन्मयता व गहरी सांस  के साथ उसको खींच कर आनन्द लेते मै देखा करता था। सुंघनी ही था उस चकल्लस का नाम.. जब नाक के पास ले जाकर खींचते थे तो लगता था वे परमतत्व से साक्षात्कार कर रहे हों... स्टाक खत्म होते ही फिर वही चऊक का चक्कर। 

हमे इंतजार रहता था सुंघनी खत्म होने का... नशा कम ही भाता था मुझे... एक ही नशा था... लस्स्स्सीसी...का...हमे तो वैसे भी लोकनाथ की लस्सी खींच ले जाती थी!!!!!!!

©️व्याकुल

रविवार, 13 जून 2021

खामोश पहिया

धनंजय को जबर्दस्त पान की लत थी। ऐसा कोई दिन नही जाता था जब वों पान न खाता हों। किस तम्बाकू में नशे की कितनी गहराई है उससे बेहतर कोई बता नही सकता था। मोहल्लें के आस-पास के पान वाले उसका मूड देखकर पान बना देते थे। आज वो कही खोया- खोया था। पान वाले की बक-बक उसकों सुनाई नही दे रही थी। थोड़ी देर बाद पान वाले ने भी धनंजय का मूड देख चुप हो गया था।

सिर्फ उसने पान वाले से यही पूछा, 'गाँधी महाविद्यालय' के आस- पास कोई बेहतरीन दूकान है क्या पान की? पान वाला सिर्फ 'खालिद पान' ही बोल पाया था किं धनंजय पाँच का सिक्का ऊपर की जेब से निकाला और बिना कुछ प्रत्युत्तर किये चला गया।

धनंजय के कपड़ों से लगता था कि आर्थिक स्थिति बहुत ही बेकार है। शक्ल तो भगवान ने ऐसी बना रखी थी किं समाज के अंतिम पायदान का अंतिम व्यक्ति का प्रतिनिधि हो जैसे। पता नही क्या उसके दिमाग में चल रहा था वो 'ठाकुर साईकिल' वाले के सामने खड़ा हो गया। कुछ देर पंचर बनता देखता रहा। तभी वो कुछ सोच अजीब सी भाव-भंगिमा बना मुस्कुराया जैसे उसे कुछ खजाना मिल गया हों। उसने 'ठाकुर साईकिल' वाले से पूछा, 'कोई पुरानी साईकिल मिलेगी क्या?' दुकान वाला बोला, 'हाँ, साहब!मिल जायेगा', '22 इंच की है'। धनंजय ठहरा 5 फिट 5 इंच। कुछ देर सोचने के बाद बोला, 'ठीक है'।

आज वह बहुत दिनों के बाद साइकिल सवारी पर था। पूरे शहर का चक्कर लगाया। तिकोना पार्क का ३ चक्कर लगा दिया। उसे अपने बचपन की एक-एक घटना मन:स्मृति में उभर आई थी।

साईकिल कब 'गाँधी महाविद्यालय' के गेट तक जा पहुँची ध्यान ही नही रहा उसे। एकाएक उसे गेट पर 'खालिद पान' वाला दिख गया। पान की दूकान पर पहुँचते ही याराना अंदाज में बोला, 'खालिद भाई' "पान की तलब लग रही", "दो बीड़ा पान बना दों"। खालिद भी फुर्सत में था। रेडियों पर टेस्ट मैच की कमेंट्री सुन रहा था। तुरंत धनंजय की तरफ देखा और बुदबुदाया, 'जी, साहब'।

पान की बीड़ा मुँह में दबाते ही बोला, "खालिद भाई! पान तो गजब का बनाते हैं"। प्रशंसा किसे पसंद नही। खालिद की आँखों में चमक आ गयी थी। 
धनंजय की खालिद से दोस्ती दिनोदिन परवान चढ़ रही थी। कॉलेज के विद्यार्थी भी खालिद की दूकान पर होंठ लाल करने आ जाते थे। धीरे-धीरे धनंजय की जान पहचान कॉलेज के विद्यार्थीयों से हो गयी थी।
अधिकांश विद्यार्थी ऐसे थे जो काफी डरे हुए, संयमित व संशकित से रहते थे। खालिद से पूछता भी तो कैसे? अभी मै खुद उनका नया मुलाजिम था।

दीपक सौम्य व सरल व्यक्तित्व का स्वामी था। खालिद की दूकान पर आते ही हाय हैलो हुआ उससे। पान खाते - खाते काफी बात हुई और उसने बताया कि कैसे उसने इस प्रतिष्ठित महाविद्यालय में प्रवेश लिया था। दिन-प्रतिदिन हमारी दोस्ती प्रगाढ़ होती गयी। अब तो हमारी बातचीत व्यक्तिगत् स्तर पर भी होती रही।

आज सुबह कॉलेज में पुलिस वालों की काफी भीड़ थी। कई सीनियर छात्र पकड़े जा रहे थे। जूनियर की रैगिंग के आरोप में। पुलिस वाले चुन चुन कर दोषी विद्यार्थियों को शिकंजे में ले रहे थे।

शायद!! खालिद की दूकान मेरे जीवन का अंतिम दिन रहा। मैने साईकिल खालिद को यह कह कर दी थी किं "आऊँगा एक दिन अपनी हवाई जहाज लेने, सम्भाल कर रखना इसको"।

©️व्याकुल

रविवार, 30 मई 2021

मन

 

कभी कभी कुछ ताना बाना अंदर से निकलता है.. यही आत्मा की सुर होती है शायद......
कहावत सुनता आया हूँ लुटिया डूब गयी। लुटिया डूबेगी नही तो भरेगी कैसे। लुटिया की आकार या बनावट पर जायेंगे तो यहीं पायेंगे किं खाली ही रहता है और लुटिया डूबेगी वही जहा पात्र भरा होगा
कुछ भी खत्म नही होता। बस उसका रूप व प्रकार बदल जाता है। हताश या निराश होना ही नही चाहिये। प्रकृति अपने हिसाब से चीजो को समायोजन कर रही। प्रश्न है किं बलवान कौन???प्रकृति या मानव। निःसंदेह प्रकृति ही होगा। जिसका निर्माण खुद से होगा वही बलवान होगा। मानव तो निर्भर है प्रकृति पर। ऐसे ही मानव का प्रयास खुद को निर्मित करने का होना चाहिये। ये काम कर लिया तो समझो यथार्थता के चरम को पा लिया। एक बार ऐसा तारतम्य बना लिया तो समझो लयबद्ध हो गये आप। फिर प्रश्न उठता है लय कहॉ और किससे। उसी प्रकृति से। करके देखिये एक बार। मन आनंदित हो उठेगा।
राम राम।
@"व्याकुल"

शनिवार, 6 मार्च 2021

नारी

निषेध

हो

उन

दिवस

का

जो

लघु

करे

असंख्य

अनुभूतियों

का...


सींचती

हर

पल

प्रतिपल

निर्माण

करती

पूर्ण

देह

अस्तित्व

का..


अशक्त

है

अक्षरें

भी

जो

भर सके

रिक्त

वाक्य

मान

का...

@व्याकुल

#महिलादिवस

सोमवार, 15 फ़रवरी 2021

कलेवा - 1



शादी के मंडप पर बैठा राजन बहुत ही उदास था। उसने शादी के बहुत पहले ही रेडियो की माँग कर दी थी वो भी बुश कंपनी की। इधर कई बार पंडितों ने उसकी तंद्रा भंग की थी पर वह रेडियो के ख्यालों में डूबा था ।

समय कलेवा का था। राजन मुँह बनाए बैठा था। कलेवा शुरू कैसे करें। रेडियो तो दिखा ही नहीं । लड़की वाले भी राजन के धैर्य की परीक्षा ले रहे थे। तड़पा ही दिया था लगभग। तभी राजन के आँखों में चमक आ गई थी। बुश रेडियो को उसने देख लिया था ।

हंसी-खुशी विदाई के वक्त कार में एक तरफ दुल्हन तो दूसरी तरफ रेडियो था राजन के ।

दुल्हन की आंखों में आंसू था। पर राजन रेडियो के बटन को समझने में लगा था। उसने रेडियो ऑन ही किया था कि विविध भारती की चिर - परिचित संगीत सुनाई दी थी। तभी विविध भारती पर बज रहे एक गीत ने उसके खुशी पर पंख लगा दिया था।

'बाबुल का घर छोड़ के बेटी......'

राजन चकित था जैसे विविध भारती सब देख रहा हो।

दुल्हन ने फिर सुबकना शुरू कर दिया था।

राजन बहुत ही खुश था अब उसको नागेश के घर नहीं जाना पड़ेगा। गाना सुनने के लिए उसका सबसे पसंदीदा कार्यक्रम दोपहर के दो बजे का था। उस वक्त भोजपुरी गीत का कार्यक्रम होता था। 

शादी के अगले दिन राजन नीम के पेड़ के नीचे खाट पर लेटा हुआ था। उसके सर के पास रेडियो पर गाना बज रहा था। आज दो बजे जैसे ही पहला गाना शुरू हुआ वो झूम उठा था। 

'हे गंगा मैया, तोहे पियरी चढ़इबे...'

खेत - खलिहान कहीं भी जाता रेडियो साथ ही रहता। उसके शरीर का एक आवश्यक अंग बन चुका था। दिलीप कुमार का एक गाना सुनते ही नाचने लगा था वो.... 

'नैन लड़ जैंहे तो मनवा में कसक....'

दुल्हन के सामने गाने की आवाज तेज कर देता था। वह प्रतिक्रिया जानने का प्रयास करता पर दुल्हन को उसके रेडियो से चिढ़ हो गई थी। रेडियो को सौतन जैसे देखती थी वो।

रात को मनपसंद गीत सुनते - सुनते सो गया था वह। सुबह उठा तो रेडियो गायब था। बहुत परेशान था वह। रेडियो के बिना उसे लगा जैसे उसका प्राण निकल गया हो। 

शायद दुल्हन की आँखों को खटकती वो सौतन बलि चढ़ गयी।

@व्याकुल

अकथ


 


बनारस की संकरी गलियों में उसका मकान था। उस शाम को उसने घर पर बुलाया था। बस कॉलेज से घर आते ही शाम का इंतजार। चाय भी शायद उस शाम को नहीं पिया था। 


कुछ दिन पहले उससे मुलाकात चाय की दुकान पर हुई थी। उसका परिवार मूलतः आसाम से था। उसकी चेहरे की बनावट काफी कुछ असमियों जैसी ही थी । मेरे पास चाय वाले को देने के लिए फुटकर पैसे नहीं थे । उसने तुरंत मेरे भी पैसे दे दिए थे । मैं मना करता तब तक दुकान वाले ने पैसे अपने गुल्लक में रख लिए थे । चलते वक्त बस संक्षिप्त परिचय हो पाया था। उस दिन के बाद आज फिर कॉलेज के कैंटीन में मुलाकात हो गई थी। उसके घर बुलाने के निवेदन को ठुकरा नहीं पाया था। 


मद्धम ठंड थी सफेद शॉल तन पर था। किसी पुराने फिल्म के हीरो की तरह शॉल ओढ़े चल पड़ा था । उसके घर का पता एक - दो बार ही पूछना पड़ा था। 


बहुत पुराना मकान था किसी हवेली जैसा। छोटें छोटें कमरे थे छतें उँची। मुझे उसने बड़े सत्कार से बैठाया था। फाइन आर्ट की छात्रा थी वो। मुझसे बहुत देर तक पेंटिंग इत्यादि के विषय में बात करती रही थी। मैं एक अबोध बालक की तरह उसके ज्ञान से सराबोर होता रहा था। तभी चाय का दौर चला फिर उसने पूरे परिवार से परिचय कराया था। बहुत ही खुश मिजाज थी। अलग-अलग विषय के विद्यार्थी होने के बावजूद अपने भारतीय संस्कृति के मुद्दे पर हम एक थे। शायद यही कारण था हमारी मुलाकात का दौर थमा नहीं। पूरे छः महीने तक चलता रहा।


उसके घर के सारे सदस्य प्रगतिशील थे। कभी कोई रोक - टोक नहीं। कभी-कभी शाम को घाट पर भी बैठ जाया करते थे हम लोग। एक दिन उसको पता नहीं क्या हो गया था। बोली थी, 


'नए वर्ष में क्या प्लान है दिनेश जी।'


मैं चुप था।


नए वर्ष का आगमन हो गया था। मैं वर्ष के पहले दिन उसके घर गया भी था। ताला बंद था। सोचा, शायद वो लोग कहीं घूमने गये हों। आज की तरह उस जमाने में मोबाइल तो था नहीं। कई बार उसके घर गया। मायूस लौट जाता था। 


होली की छुट्टियां होने वाली थी। अपने गांव जाने से पहले उससे मिल लेना चाहता था। घर के दरवाजे की जैसे ही कॉल बेल बजाई उसके पापा ने दरवाजा खोला। बड़ी ढाढ़ी बेतरतीब बाल। मैंने उनके पैर छुए तो बिना कुछ बोले ड्राइंग रूम में आने का इशारा किया था। मै चुपचाप ड्राइंग रूम में बैठ गया था। थोड़ी देर बाद उन्होनें मुझे एक चमकीले कागज में बँधा हुआ एक सामान दिया। सामान देने के बाद उनकी आंखों में आंसू फूट पड़े थे। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। 


"बेटा, उसे कैंसर हो गया था अब वो नहीं रही।" 


मैं अवाक रह गया था। 


मेरे हाथों में उसकी बनाई हुई अंतिम तस्वीर जिसमें उसके साथ मैं भी था व कैंटीन का वही कोने वाला टेबल था।


मैं ठगा सा चुपचाप अपने लॉज के रास्ते पर था।


@विपिन "व्याकुल"

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2021

यादों को बाँधू तो कैसे


यादों को बाँधू तो कैसे

शिकन पेशानी पर यूँ बढ़ती रही
लम्हें भी टूट कर बिखर जाते रहे
यादों को बाँधू तो कैसे

गम को मेरा गम देखा जाता न रहा
खून के घूँट आँखों में उतर जाते रहे
यादों को बाँधू तो कैसे

यादों के दरख्त भी अब रूठ से गये
पसीने बन चाँदनी रात भिगोते रहे
यादों को बाँधू तो कैसे






पन्नों पर लिखी इबारत कैसे पलटते
हर्फ भी नजरों को धोखा देते रहे
यादों को बाँधू तो कैसे

यादें ही थी मिटती रही जेहन से
चश्में भी दिमाग को लगते रहे
यादों को बाँधू तो कैसे

यादों को "व्याकुल" सहेजते कैसे
जो बेचैन से दर-बदर घुटते रहे 
यादों को बाँधू तो कैसे

यादों को बाँधू तो कैसे

@विपिन "व्याकुल"





नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...