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शुक्रवार, 26 जून 2020

नाना


नाना स्वर्गीय पं. राम नारायण पाण्डेय, जिनका आज पुण्य तिथि है, को सत् सत् नमन।💐💐🙏🏻🙏🏻

आपका जन्म सन् 1921 के आस पास ग्राम शुकुलपुर, मेजा, जनपद इलाहाबाद हुआ था। आपने वकालत सन् 1947 में डिस्ट्रिकट कोर्ट में  शुरूआत की थी। आप दीवानी के वरिष्ठ वकील थे। 

नाना जी को पूरे मोहल्लें वाले व रिश्तेदार "काका" कह कर बुलाते थे।

आप प्रखर वक्ता व तीक्ष्ण बुद्धि के स्वामी थे। बहुत ही अनुशासित व साहसी व्यक्तित्व के धनी थे। डर नाम का शब्द तो आपके शब्दकोश में था ही नही। सैकड़ों ऐसे उदाहरण रहे है जिनसे आपके निडरता का परिचय मिलता है। अपनी बात को तर्क से सिद्ध करते थे। वाक् पटू थे आप। आपसे तात्कालिक डी. एम. भूरे लाल प्रभावित रहते थे।

आप पूर्ण व्यक्तित्व के स्वामी रहे है। कोई ऐसी विधा नही जहां आप दखल न रखते रहे हो प्रमुख रूप से चाहे वों राजनीति हो या सामाजिक क्षेत्र या धार्मिक क्षेत्र इत्यादि। आपने पूरे भारत का भ्रमण किया है। यहॉ तक की अंडमान निकोबार तक का भी।

आप हिन्दू महासभा से जुड़े रहें हैं। गोडसे के ज्येष्ठ भ्राता इत्यादि से घनिष्ठ संबंध रहा है। आप राष्ट्रीय शिव सेना से भी जुड़े रहे है। आप विधानसभा का चुनाव भी लड़ चुके है जिसमें आप सन् 1974 में चौधरी चरण सिंह जी की पार्टी "भारतीय क्रांति दल" से प्रत्याशी थें।  आप राजनीति मेें अत्यन्त सक्रिय रहे है। 

आप धार्मिक गतिविधियों में सक्रिय भूमिका अदा करते थे। मीरापुर, प्रयागराज रामलीला कमेटी के अध्यक्ष रहे है।

आपकी बार काउंसिल के चुनावों में भी सक्रियता व उम्मीदवारी रही है। आप बी. एच. यू., ए. डी. ए. व कई सरकारी विभागों के लीगल एडवाइजर थे। आप हर एक केस को अपनी डायरी में लिखते थे जीतने व हारने की वजह भी उल्लिखित किया करते थे। इससे आपकें वकालत व्यवसाय के प्रति समर्पण के भाव का पता चलता है। आप राम चन्द्र मिशन की तरफ से मुकदमे की पैरवी हेतु दक्षिण अफ्रीका भी जा चुके है।

आप शिक्षा जगत से भी जुड़े रहे है। कई स्कूलों के प्रबन्ध कमेटियों में भी रहे है।

आप 78 वर्ष की आयु में (27 जून, 1999 को) हम सबकों असहाय कर गोलोकवासी हो गये।

आज आपकें पुण्यतिथि पर पुनः आपकों सत् सत् नमन करता हूँ💐💐💐🙏🏻🙏🏻


सोमवार, 4 मई 2020

प्याला

बरबाद गुलिस्ता करने को एक ही प्याला काफी है।

आज ऐसे ही आभासी दुनिया में भ्रमण करते रहने पर पाया कि पंजाब में आँख में डालने वाली दवा को  'दारू' शब्द से नवाजा जाता है। वैसे है ये बड़ा ही ठेठ शब्द। गँवरपन का एहसास होता है। ठेका से भी कम स्तरी का बोध होता है।

बेवड़ा से भी कुछ देशीपन व घटिया स्तर का अहसास होता है।

सुरा शब्द से तो इसके प्राचीनता का आभास होता है जैसे कलयुग से अनन्त युग पीछे चले गये हो।

कविताओं का शौक जैसे ही बढ़ा और बच्चन साहब को सुना 'मदिरालय' 'मधुशाला' सुनने को मिली।

गजल सुनने पर मयखाना बहुत सुनने को मिलता था, है ये उर्दू शब्द।

जो अपने को आधुनिक समझते है वो ब्रांडी रम इत्यादि से खुश हो लेते है। हॉ, अगर पैसा न हो तो देशी से भी काम चला लेते होंगे चुपके चुपके।

ऐसे ही एक टीचर थे हमारे। तनख्वाह मिलने के कुछ दिन तक सीगार पीते थे पैसा जैसे ही कम होने लगता था सिगरेट पर आ जाते थे। अंतिम के पाँच दिन बीड़ी का सुट्टा लगाते थे।

आगे फिर कभी.......

@व्याकुल

रविवार, 26 अप्रैल 2020

लट्ठ

गये थे फिरने गलियन में
नाकाबिल है फिरन को

दर्शन करन लट्ठधारन को
लउट आयेन पश्च मालामालन को

मुँह बाँध न पावें बाबा घूमन को
बन हनु उदास लौटे दुआरन को

सूजत मुँह दोष देत भ्रमरन को
करत मन ही मन पश्चातापन् को

मन ललचावत ढेहरी से खेलन् को
चोंगा तरबतर  हुई जात पसीनन को

दिन में देखत सपन को रोना को
पलक उलट गयों अनिन्द्रन को

फँस गयें बीच दिल दिमागन कों
"व्याकुल" है बड़ी उलझन कों

@व्याकुल

रविवार, 19 अप्रैल 2020

मोहल्ला

                               चित्र स्रोत: गूगल

गुलजार सा'ब की पंक्तियाँ याद आ ही जाती है जब अपना मोहल्ला सोचता हूँ-

मिरे मोहल्ले का आसमां सूना हो गया है।
बुलंदियों पर अब आकर पेंचे लड़ाए कोई।।

मोहल्ला न कहिये इसे। संस्कृति का मजबूत अनौपचारिक केंद्र। भाषा में ठेठपन लिये आचार विचार में एकसमान।

मोहल्ला में हल्ला शब्द भी कमाल करता है। ये न हो तो मोहल्ला का भी कोई अस्तित्व है क्या।

मेरे मोहल्ले में एक हल्ला गुरू रहते थे एक बार अगर बाँग दे दिये तो क्या मजाल कोई सोता रह जायें।

हर मोहल्ले की अलग अलग संस्कृति होती है। रंगबाजी भी अलग टाईप की। मजाल कोई दूसरा वहाँ आ जायें।

हर शहर के कुछ मोहल्ले वहाँ की जाति के नाम पर भी होते थे। कुछ मोहल्ले का नाम किसी खास व्यक्ति के नाम पर। जरूर वो व्यक्ति अपने जमाने से आगे रहा होगा।

मेरे हिसाब से तो परफेक्ट मोहल्ला वही होता है जहाँ अपने मकान के चबूतरें पर बैठे बैठे सामने अपने चबूतरे पर बैठे हुए से अनवरत बात हो सके

नये मोहल्लों में वो बात कहा। पता पूछने निकल जाओं तो सांय-सांय की आवाज या घर से भूँकते कुत्ते।
पुराने मोहल्ले मे किसी का पता पूछो तो पूरा खानदान का हुलिया बताने के साथ साथ घर तक पहुँचा कर ही दम लेते है।

जब आप शहर से दूर होते है तो वही पुराने मोहल्ले ही स्मृतियों मे रह जाते है। होली पर तो उन्ही पुराने मोहल्लों की सैर हो जाया करती थी जो उत्साह व उमंग वहाँ देखने को मिलता है वो बात भद्र लोक में नही आ सकती।

तभी तो गुलजार सा'ब भी कह ही देते है -

बचपन में भरी दूपहरी में नाप आते थे पूरा मोहल्ला।
जब से डिग्रीयां समझ में आई पाँव जलने लगे।।

मै भी कहा मानने वाला हूँ हँसते रहे हँसने वाले। सलीम अहमद की शेर को फलीभूत कर ही देता हूँ -

मोहल्ले वाले मेरे कार-ए-बे-मसरफ़ पे हँसते हैं।
मैं बच्चों के लिए गलियों में ग़ुब्बारे बनाता हूँ।।

@व्याकुल

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

पत्थर




पत्थर से पाला बहुत ही छोटी उम्र में ही पड़ गया था। हमारे मोहल्ले में प्रतिदिन पत्थरबाजी होती थी। एक ग्रुप जो कारगिल जैसी चढ़ाई पर था हम लोग नीचे रहते थे। लेकिन जीतते हम लोग ही थे।

दूसरा पाला पड़ा जब थोड़े समझदार हुए। कुछ मकानों की नींव पर पत्थर देखा। पता किया तो शंकरगढ के पत्थर थे।

पत्थर को अगर समझना हो तो तीन शब्दो से समझा जा सकता है 'कड़ी कलेवरवाली सामग्री'।

फिर थोड़े बड़े हुए तो मुहावरों में पढ़ा
'पत्थर का कलेजा'  मतलब कठोर ह्रदय। आजकल इस मुहावरे को उल्ट भी सकते है।

मुहावरा पढ़ने की श्रंखला में एक मुहावरा ये भी पढ़ा 'पत्थर की छाती' मतलब कभी न हारनेवाला दिल। ये भी दिख जाता है जब हमारी सुरक्षा दल धैर्य का पूर्ण पालन कर रही होती है।

इसी श्रृंखला में एक और मुहावरा मिला 'पत्थर को जोंक लगाना' मतलब अनहोनी बात करना। भाई पत्थर पर जोंक लगाने का कोई मतलब नही। जोंक लगाना ही है उनके दिमाग पर लगाओं जिनका दिल पत्थर का हो गया है।

पत्थर में वो भाव नही आ पाते जो भाव शिला से आते है। शिला में एक ठहराव दिखता है पत्थर तो खुद टूटा हुआ है नकारात्मकता तो होगी ही।

कही मै पढ़ रहा था तो पता चला कि रोमानिया के किसी गाँव में पत्थर का आकार दिन प्रतिदिन वहाँ बढ़ रहा है। काश! यहाँ पर भी छतों पर रखे पत्थर का आकार बढ़ जाये जिससे उठाने वालो का हाल.....

दिक्कत तो तब है अगर पत्थर अपने अपनो पर फेंके। सुहैल अज़ीमाबादी लिखते भी है -

'पत्थर तो हज़ारों ने मारे थे मुझे लेकिन
जो दिल पे लगा आ कर इक दोस्त ने मारा है'

हम तो ठहरे पक्के हिन्दुस्तानी पत्थर में भी देवता तलाश लेते है।
पत्थर बन गये लोगो को भी तार देते है ।

पत्थर की मुश्किलों को कौन समझ पाया है आजतक। समझना हो तो मदन मोहन दानिश की पंक्तियों को पढ़ो -

'पत्थर पहले ख़ुद को पत्थर करता है
उसके बाद ही कुछ कारीगर करता है'

अब चूँकि सोशल मीडिया का जमाना है तो ख्वाहिश व्यक्त कर ही दूँ एक ईमोजी पत्थर फेकने का भी हो जो पोस्ट अच्छा न लगे उस पर एक पत्थर तो बनता ही है!!!!!!!!!!!

@व्याकुल

सोमवार, 13 अप्रैल 2020

इलाहाबाद

कहाँ से शुरू करू??
कर्मस्थली इलाहाबाद!
बचपन इलाहाबाद!
आध्यात्मिक इलाहाबाद!

मीरापुर के एम. एल. कान्वेंट से स्कूली शिक्षा प्रारम्भ होकर जमुना क्रिश्चियन से होते हुए जी. आई. सी. तक हुई।

जमुना क्रिश्चियन में पढ़ाई के दौरान बेंत आज भी याद है। यहॉ पढाई के दौरान कॉलेज के पीछे जमुना घाट तक चले जाने का साहस करना फिर डरते रहना कोई गुरू जी न आ जायें।

जी. आई. सी. इलाहाबाद में पढ़ाई के दौरान हिन्दी की कक्षाओं में गायब हो जाना और कई बार पकड़े जाना। हिन्दी के वही गुरू जी का हमारी आयु के हिसाब से बाते करना व साथी विद्यार्थीयों का ठसाठस कक्षा में पुनः अवतरण।

कौन इलाहाबाद को भूलना चाहेगा चप्पल घिसना माघ मेले में। एकाएक मूड बना लेना फिर साईकिल से कटरा स्थित सिनेमा देख आना।

बड़े होने का या बौद्धिक प्राणी का अहसास करना होना हो तो कॉफी हाऊस घूम आना।

दोस्तों के साथ रात में पार्टी फिर सिविल लाईन्स चर्च पर फोटो खिचवाना।

अंतहीन सिलसिला है.. तन कही भी रहे मन घूम फिर कर इलाहाबाद ही अटक जाता है असीम यादें है जो चिरन्तन है।

वासी मीरापुर। विश्वविद्यालय में प्रवेश करते ही सिविल का भूत समा जाता है वहाँ से गिरे तो डॉक्टरेट या कुछ कर गुजरने का नशा पलकों पर विराज हो ही जाता है।

वाह रे इलाहाबाद!!!!!

@व्याकुल

रविवार, 12 अप्रैल 2020

सुलेमानी कीड़ा



हमारे एक घनिष्ट मित्र जैसे ही टिवट्रर पर अकाउंट बनाये। उनके सबसे पहले फॉलोअर बने सुलेमानी कीड़ा। मै आश्चर्यचकित हो गया कि उस कीड़े को कैसे पता की यें बड़ा वाला कीड़ा है। शब्दकोशो की छानबीन की तो इसका अर्थ न मिला।

कुछ अपनी बची हुई मंद बुद्धि पर पगलाये दिमाग से सोचा तो लगा 'फटे में ऊँगली करना' से कुछ कुछ मिल रहा।

सुलेमानी कीड़ा नीति नियामक का एहसास दिलाता है जबकि 'फटे में ऊँगली करना' कार्यपालिका की भूमिका में।

जो लोग सुलेमानी कीड़ा के रोग से ग्रसित होते है उनका कोई इलाज नही। बड़े बड़े डॉक्टर हाथ जोड ही लेते है।

प्रश्न उठता है इसके उद्भव का। इसका उत्तर आपको खुद ही खोजना होगा व पहचानना होगा इस महान कीड़े से ग्रसित महानुभावों कों।

अगर बैठे ठाले आप किसी को मुसीबत में डालने मे सक्षम हो जाय या खुद किसी मुसीबत में फसते रहे तो आप समझिये आप इसके विशेषज्ञता की श्रेणी में आ गये है।

हो रहे न आप आश्चर्यचकित। ज्यादा बोलने की गुस्ताखी की तो आपके अंदर का सुलेमानी कीड़ा शिकार न बना ले। फिलहाल आनंद ले हाल फिलहाल के सुलेमानी कीड़ा का।

@विपिन पाण्डेय "व्याकुल"
#सुलेमानीकीडा

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

रिक्शा


यूँ जिन्हे तलाश रहा
वों डरे हुए से बैठे है
नज़र कर मुझ पर
बावस्ता मंजिल हूँ

सिल दिये क्यों मुझें
तड़पता सा राह पर
इशारा ही कर देना
गले आ लिपटूँगी 

वजह हो खफा का
या गुम हो शहर से
इधर महकती हवा से
पैगाम खुद का दे जाना

लहर सी तरंगे पैरों मे
खुद ब खुद चल दे
करे महसूसियत उनका
या आ जाना ख्यालों में

@व्याकुल

इलाहाबादी चुनाव

मुझे अपने जीवन का पहला चुनाव याद है जब अमिताभ जी चुनाव लड़े थे इलाहाबाद से । उस समय का एक नारा बड़ा प्रसिद्ध हुआ था..आई मिलन कि बेला .........ऐसे ही कई नारे प्रचलन में आ गये थे..स्कूल मे अध्यापिकाएं सिर्फ अमिताभ कि बात करती थी। प्रतिदिन कुछ न कुछ नयी कहानी कक्षाओं में होती थी। ऐसा लगता था फिल्मी स्टार दूसरी दुनिया से होंगे। बड़ा मजा आता था उन दिनों। मेरे घर के बगल से जया जी की गाड़ी निकली तो सारा मोहल्ला पीछे पीछे। शॉल को बाँह के नीचे से लपेटकर पहनने का फैशन की शुरूआत भी तभी से मानी जाती हैं।  

उस समय चुनाव में मेला जैसा माहौल हुआ करता था। अनाप सनाप खर्च होता था और ध्वनि प्रदुषण अलग से।

अब तो इतनी सख्ती हो गयी है कि पता ही नहीं चलता और चुनाव हो गया .............................

@व्याकुल

बुधवार, 1 अप्रैल 2020

गुमशुदा

मत पूछ धुँआ क्यों उड़ा रहा हूँ
उदासियाँ पिघल रही हो जैसें

ढरक गये अश्क जो पोरो से
गमों का सागर उमड़ आया हो जैसें

सिलवटें बता रही बिस्तर की
ख्वाबों को भुला आया हो जैसें

चला गया आज उसी मोड़ पर
खबर उसने भिजवा दिया हो जैसें

बुत बना रह गया आज उसी जगह
राहे जुदा हो गयी हो जैसें

मुस्कुराता रहा जमाने भर से
दर्द छुपा रहा हो जैसें

हाथ जो मिलाता रह गया उनसे
खुद कही गुम हो गया हो जैसें

@विपिन "व्याकुल"

सोमवार, 30 मार्च 2020

कुतुबखाना



यूँ न कर दूर मुझसे खुद को
कबूतरखाना न कहा जाऊँ
भटक क्यो रहा दरबदर
मुकम्मल ठीकाना हूँ मै

वो भी जमाना था कभी
कई उस्ताद गिरफ्त में थे
तलाश फिर उनकी
शहर बियाबां क्यो हैं..

धूल झाँक रही किताबों से
तेरे निशां छुपे हो जैसे
उँगलिया छूँये उन्हे ऐसे
जमाने से तरस रहा हो जैसे

पन्नों के सुर्ख गुलाब
राज छुपायें हो जैसे
दस्तक से खिले ऐसे
बयां कर रहे हो जैसे

आज भी वही वैसे ही हूँ
प्यार से जहाँ छुपाया तूने
हर शख्स में तलाश तेरी
आप सा रहनुमा हो जैसे

@व्याकुल

शनिवार, 28 मार्च 2020

आवरण

आवरण
चेहरें पर
क्यों!!!

क्याँ
बाँध
पायेंगे
ये
अव्यक्त
भावनाओं
को
या
जकड़
सकेंगे
मेरी
बेचैनियों
को...

जो
मेरे साथ
ही
जन्म लेती
और
बह
जाती
राख
बनकर...

@व्याकुल

गरीबी


उदर पर हाथ रखें मन ही मन स्वयं से बाते कर रही थी तभी ठेकेदार की घुड़की कान पर पड़ी, 'सिर्फ बच्चे पैदा करवा लो' 'ऐसे ही लोग देश पर बोझ बने हुए है।' 

उसको ऐसा लगा जैसे नींद से जग गयी हो। थक कर चूर हो गयी थी व पॉव कपकँपा रहे थे।

पति की बिमारी ने भी तोड़ कर रख दिया था टी.बी. की बीमारी से ग्रसित उसका पति रात भर खासता रहता था। वह सोचती जा रही थी गरीबी अभिशाप है, इससे मुक्ति कब मिलेगी। पिछले कई दिनों से पति की बीमारी व बच्चे को भी जनने की जिम्मेदारी। हमेशा ही पति को जबर्दस्ती करने से भी मना किया पर मानता कहा था और बच्चों के सामने...

आज सोच ही लिया था कुछ भी हो जाय जहर की पुड़िया ले ही आऊँगी । पर क्या, मेडिकल स्टोर तक पहुँची ही थी,  सभी बच्चे उसके आँखों के सामने तैर गये थे वो बेबस भारी मन से लौट आयी थी ।

ईश्वर से उसकी बस यही ख्वाहिश थी सुबह न देखु । लेकिन गरीब की ख्वाहिश भी कभी पूरी होती है क्या??? आँसु ढलक जाते है असहाय सी अभिलाषा लिये, कभी कोई कृष्ण बन आयेगा गरीबी रूपी दुःशासन से उसको बचायेगा ।

©️व्याकुल

शुक्रवार, 27 मार्च 2020

मेरा शहर बेजान सा क्यों हैं..

मेरा शहर बेजान सा क्यों हैं..

चेहरे नदारद से क्यो हैं
जमीदोंज हुई ये रोनकें
हर तरफ खौफ सा सन्नाटा क्यों हैं
मेरा शहर बेजान सा क्यों हैं..

बालों पर पड़े न धूलों की गुबार
न सड़कों पर आदमियों के धक्कें
ढूँढ रही अपनों को क्यों है
मेरा शहर बेजान सा क्यों है..

लाशों पर उदासियाँ सी है
सनद फाँकों का है या कुछ और
सूखी बूँदों की लकीरें चेहरे पर क्यों है
मेरा शहर बेजान सा क्यों है..

क्यों ढूंढ रहा तुझे दरबदर
बेजूबान से क्यों हो
हर शख्स के मुँह पर ताले क्यो हैं
मेरा शहर बेजान सा क्यों है..

शक से भरी ये निगाहें
ढूँढ रही कातिलों को जैसे
खता से यूँ बेखबर हर शख्स क्यों हैं
मेरा शहर बेजान सा क्यों है..

@व्याकुल

मार्च

मार्च बहुत रुलाता है..

कलम बहुत चलवाता है
छुट्टी ये रुकवाता है
कमर ये तुड़वाता है
मार्च बहुत रुलाता है ।

चिंता ये दिलवाता है
परीक्षा ये करवाता है
गर्मी ये बढ़वाता है
मार्च बहुत रुलाता है ।

बारिश जब हो जाता है
रबी फसल हिल जाता है
हाल बुरा हो जाता है
मार्च बहुत रुलाता है ।

विवाह जब पड़ जाता है
कोई आ नही पाता है
यादे ही रह जाता है
मार्च बहुत रुलाता है ।

त्योहार भी आ जाता है
खर्च ये बढ़वाता है
टैक्स भी कटवाता है
मार्च बहुत रुलाता है ।

@व्याकुल

गुरुवार, 26 मार्च 2020

होली

होरी मनाऊँ कैसे!!!!!!

स्वाँग रचु गोरी का
या ढपली का थाप
बजाऊँ
या फगुआ अलापू
होरी मनाऊँ कैसे

ऊपले चुराऊ
दहन को
या लट्ठ खाऊँ
जोर की
होरी मनाऊँ कैसे

बनारसी रँग में
ढल जाऊँ
या भंग का
नशा कर लूँ
होरी मनाऊँ कैसे

गुझियाँ चखु
गुड़ की
या होरहा
खाऊँ
होरी मनाऊँ कैसे

पोत लूँ
हरा पीला
या छूपा लूँ
रंगभेद
होरी मनाऊँ कैसे

बासंतिक बयार
में डूबू
या झूम जाऊँ
बौर में
होरी मनाऊँ कैसे

गुलाल लपेट
लूँ
गले में
या भोला बन
विषधारी बनु
होरी मनाऊँ कैसे!!!!!


होरी मनाऊँ कैसे!!!!!!
होरी मनाऊँ कैसे!!!!!!

@व्याकुल

सिर्फ तू

मेरे रोम रोम में
नस नस में
सिर्फ तू
और तू
कैसे कहू
तू
कहाँ नही..

हँसता भी
हूँ
तो
खिलखिलाहट
भी तू
रोता हूँ
तो
बेचैनी
भी तू..

इबादत
में भी
सिर्फ तू
करवटें
जब भी
ली
अचैतन्य
में भी
तू..

क्यों समा
से
गये हो
ये
प्रश्न है
तुझसे
हाँ
तुझसे ही..

हाँ
एक बात
जाना तो
साथ
ही जाना
अकेले
गये
तो
किसी को
मै नही
दिखुँगा
हाँ पर
निष्प्राण
अवश्य
हो
जाऊँगा..

@व्याकुल

अधुना


आओं
गढ़ ले
नित नयी
परिभाषाएं
मूँद ले
आँखो कों
और
कलियुगी
पूर्णत्व को
सिधार जायें....

@व्याकुल

हिन्दू चिन्तन



थियोसॉफिस्ट डॉ. एनी बेसेंट कहती थी "मैंने 40 वर्षों तक विश्व के सभी बड़े धर्मों का अध्ययन करके पाया कि हिन्दू धर्म के समान पूर्ण, महान और वैज्ञानिक धर्म कोई नहीं है।"
ऐनी बेसेन्ट का उल्लेख यहाँ इसलिये किया क्योंकि हम लोगो की प्रामाणिकता विदेशी ही देते है ऐसा मै बचपन से देखता आया हूँ। आप चिल्लाते रहिये हमारी संस्कृति, परम्परा या किसी भी मूल्यवान संस्कार के विषय में। कोई नही सुनेगा। विवेकानन्द जी को प्रामाणिकता शिकागो से मिली।
ये धर्म तो सनातनी है मानव उत्पत्ति से पहले का। यह वेदो पर आधारित धर्म है इतना सब कुछ होते हुए भी यह अपने अंदर कई मत, संप्रदाय व उपासना पद्धतियों को समेटे हुए है व कट्टर तो कभी हुआ ही नही।  दर्शन के दृष्टि से भी हम धनी है क्योकि दर्शन हमे लक्ष्य देता है। हिन्दू धर्म अध्यात्म व संस्कृति के दृष्टि से भी सौभाग्यशाली रहा है
यही द्वंद हमेशा से ही मन मे रही अध्यात्म व संस्कृति की। अध्यात्म वो जो आपके भीतर जबकि संस्कृति में उसका परिलक्षित होना है। यही अंतर आप विज्ञान व धर्म में कर सकते है विज्ञान आपको बाहरी ताकत दे सकता है जबकि धर्म अंदर की।
हिंदू धर्म के संस्कृति की बात करे तो आजकल अक्सर आलोचना सुनने को मिल जाती है "असहिष्णुता" है इसमे। वही पिछले 1000 वर्ष के आततायियों पर नजर डालते है व उनको सामानांतर आत्मसात इतने सरल ढंग से किया फिर मन सकारात्मकता से भर गया। इस धर्म की विशाल ह्रदय का भी द्योतक है।
यही बात तो जर्मन दार्शनिक शॉपनहार भी कहते है कि
"जीवन को ऊँचा उठाने वाला उपनिषदों के समान दूसरा कोई अध्ययन का विषय सम्पूर्ण विश्व में नहीं है। इनसे मेरे जीवन को शांति मिली है, इन्हीं से मुझे मृत्यु के समय भी शांति मिलेगी।"
सर्वधर्म समभाव की भावना जितना हिन्दू धर्म समेटे हुए है उतना विश्व के किसी धर्म में नही। इसके लिये ऋगवेद का एक प्रसिद्ध सूक्त का संदर्भ देना समीचीन होगा ‘आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु वि‍श्वत:’ यानी कल्याणकारी सद्-विचार हमारे लिए सभी ओर से आएं ।
अंत मे एक सबसे प्रसिद्ध श्लोक सहिष्णुता पर प्रामाणिकता देते है
ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्वि नावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै।
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:।।(कठोपनिषद -कृष्ण यजुर्वेद)
ईश्वर हम सब की साथ-साथ रक्षा करें, हम सब का साथ-साथ पालन-पोषण करें, हम साथ-साथ शक्ति प्राप्त करें, हमारी प्राप्त की हुई विद्या तेजप्रद हो, हम परस्पर द्वेष न करें, परस्पर स्नेह करें।

@व्याकुल

जय हिन्द । जय भारत
#विपिन #सर्वधर्मसमभाव #वेद #हिन्दूचिंतन #सहिष्णुता

बुधवार, 25 मार्च 2020

अधूरी चाह


लूट ही लूट जब मचा हों
पेट तब भी न भर रहा हों
भूखे पेट घूम आना किसी
गरीब बस्ती में..

अहं जब चरम पर हों
खुद को जब इन्द्र समझने लगना
कृष्ण बन छतरी तान आना किसी
गरीब बस्ती में...

कबीर जब बनना हों
या वीणा धारिणी तपस्वी होना हो
कुछ अक्षर उकेर आना किसी
गरीब बस्ती में...

भरी थाली खिसकाने का मन हो
या अन्न देव भा न रहे हो
रोटी के दो टुकड़े खा आना किसी
गरीब बस्ती में...

सम्मान न आ रहा हो मातृ का
या चरित्र शोषक का बन गया हों
स्त्री सा जीवन जी आना किसी
गरीब बस्ती में...

@व्याकुल

अभाव


शिकायत
करूँ किससें
उस
लखन से
या पालनहार राम से
जो अब
तारण को
दिखते नही
क्यों
महीन सी
रेखा खींच
दी
गरीबी-अमीरी
की....


कलियुगी
दशानन
के
छुपे नौ
मुख
ऊपर से
आडंबर
करते
तारण का...


छद्म 
भेष धर
करे
हरण 
और
कर दें
तार-तार
गरीब की
मासूमियत
का..

@व्याकुल

हिन्दू चिन्तन

हिन्दू चिन्तन#3

मन्दिर में प्रवचन चल रहा होता है अगर सुनने बैठ गया फिर उठने की इच्छा नही होती। पूरा श्रवण कर ही उठने की इच्छा होती है । अगर बीच में उठ कर घर आ गया तो प्रसंग दीमाग में चल रहा होता है कि इसके बाद क्या हुआ होगा। कुछ वर्ष पूर्व 15 दिन प्रवचन सुनता रहा । वह प्रवचन पूरी तरह तार्किक था । श्रवण का अर्थ ही यही होता है केवल ज्ञान की बातें सुनना नहीं है, बल्कि उनका तार्किक रूप से विश्लेषण कर आत्मसात करना है।
श्रवण का महत्व बताते हुए आचार्य चाणक्य ने कहा है-
श्रुत्वा धर्मं विजानाति श्रुत्वा त्यजति दुर्मतिम्।
श्रुत्वा ज्ञानमवाप्नोति श्रुत्वा मोक्षमवाप्नुयात्।।
अर्थात श्रवण करने से धर्म का ज्ञान होता है, सुनकर कुबुद्धि का त्याग किया जाता है, सुनने से ज्ञान की प्राप्ति होती है और श्रवण करने से मुक्ति होती है।
अाध्यात्मिक अभ्यास में तीन चरण होते हैं: श्रवण, मनन और निदिध्यासन। उपनिषद भी व्यक्ति को श्रवण का अभ्यास करने के लिए प्रेरित करते हैं ।
यह सब देख सुनकर ही आभास होता है कि प्राचीन काल में कैसे श्रवण परम्परा से ही वेदों का ज्ञान गुरु से शिष्यों में आया होगा । इसी वजह से वेदों का ज्ञान जीवित रहा अन्यथा ये कभी के भुला दिए गए होते ।
विदेशी आक्रमणकारियों की हमारी संस्कृति से घृणा इस हद तक पराकाष्ठा पर थी कि भट्टियों में लकड़ी की जगह हिन्दुओं के धर्मग्रंथों की पांडुलिपियाँ जलाई जाती रहीं, पुस्तकालयों में जलाई हुई अग्नि महीनों तक जलती रहतीं। करोड़ों ग्रंथों की पांडुलिपियों को नष्ट किया|
वेदों को श्रुति भी कहते है क्योकि वेद श्रवण व याद द्वारा ही संरक्षित रहा है इसे "आम्नाय" भी कहते है। वेदों को अपौरुषेय यानि ईश्वर कृत माना जाता है। यह ज्ञान श्रुति परम्परा के माध्यम से सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने प्राप्त किया था ।
वैदिक संतों के प्रवचनों को सुनते रहना ही सिद्धांत श्रवण है। मन एवं बुद्धि को पवित्र तथा सकारात्मक बनाने के लिए सतत् श्रवण महत्वपूर्ण है।
@व्याकुल

#विपिन
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हिन्दू चिन्तन

हिन्दू चिन्तन#2

बचपन से ही मन्दिर की परिक्रमा करता आया हूँ । परिक्रमा का अर्थ किसी व्यक्ति, देव मूर्ति या स्थान के चारों ओर clockwise घूमना । इसको प्रदक्षिणा भी कहते है । यह हमारे षोडशोपचार पूजा का एक अंग माना जाता रहा है । शादी विवाहों में वर कन्या सात बार अग्नि की परिक्रमा करते है ।
दुनिया के जितने भी धर्म है जहाँ जहाँ प्ररिक्रमा की जाती है हिन्दू धर्म की देन है बाकी के धर्मो में जैन, सिख, बौद्ध व इस्लाम । इस्लाम में प्रदक्षिणा को तवाफ कहते हैं।
गणेश भगवान द्वारा अपने माता व पिता के परिक्रमा कर संदेश दिया था कि यह प्रथा कितनी प्राचीन है ।
हिन्दू धर्म में देवताओं के लियें अलग अलग प्रदक्षिणा का प्रावधान है।
'कर्म लोचन' नामक ग्रंथ में लिखा गया है कि- ''एका चण्ड्या रवे: सप्त तिस्र: कार्या विनायके। हरेश्चतस्र: कर्तव्या: शिवस्यार्धप्रदक्षिणा।'' अर्थात दुर्गाजी की एक, सूर्य की सात, गणेशजी की तीन, विष्णु भगवान की चार एवं शिवजी की आधी प्रदक्षिणा करनी चाहिए।
@व्याकुल

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हिन्दू चिन्तन

हिन्दू चिन्तन#1



थोरो नामक पाश्‍चात्त्य तत्त्वज्ञानीको किसीने पूछा कि आपका आचरण एवं विचार इतने अच्छे कैसे हैं ? इसपर उसने तत्काल उत्तर दिया, ‘’ मैं नित्य प्रातःकाल अपने हृदय और बुद्धि को गीतारूपी पवित्र जल में स्नान कराता हूँ।’’
थोरो का कहना था "प्राचीन युग की सभी स्मरणीय वस्तुओं में भगवदगीता से श्रेष्ठ कोई भी वस्तु नहीं है। गीता के साथ तुलना करने पर जगत का समस्त आधुनिक ज्ञान मुझे तुच्छ लगता है।"
ऐसा था अपना सनातन धर्म। हिन्दू ही क्या विदेशी धरती पर भी लोगो को प्रेरित करती रही है..
अमेरिकावासी  हेनरी डेविड थोरो  विख्यात समाज-सुधारक थे। वे ' सविनय अवज्ञा आंदोलन' के जनक थे जिनसे गांधी ने अपना सविनय अवज्ञा आंदोलन' लिया था। थोरो भारतीय दर्शन की किताबें बड़े चाव से पढ़ते थे उनके पास गीता के अलावा भारतीय दार्शनिकों के कई ग्रन्थ थें। थोरो ने हिन्दू दर्शन व धर्म की कई जगहों पर खुलकर प्रशंसा की है।

इन्होने अपनी पुस्तक 'लाइफ इन दी वुड्स' में जीवन में निडरता व शांति के साथ ही साथ सत्य पर विशेष बल दिया । आपके दर्शन में भारतीय दर्शन की छाया परिलक्षित होती है ।

@व्याकुल

#विपिन पाण्डेय
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बुधवार, 11 मार्च 2020

व्यक्तित्व निर्माण


व्यक्तित्व का निर्माण कई सालो की तपस्या के बाद होता है और इसका स्थिर रहना मूल स्वभाव होता है.. जो लोग  किसी के क्षद्म व्यक्तित्व से क्षणिक रूप से प्रभावित होते है वे हमेशा धोखे मे रहते है.. कुछ लोग सामने वाले से जैसा चाहते है वैसे ही व्यक्तित्व देखना चाहते है जबकि सार्वभौमिक और सर्वमान्य व्यक्तित्व से कम लोग ही प्रभावित हो पाते है.. व्यक्तित्व के साथ ही साथ धैर्य भी अपनी अहं भूमिका अदा करती है कब आपका धैर्य टूटा और व्यक्तित्व धाराशायी..हम सबका व्यक्तित्व तो बचपन में कहानियाँ सुन-सुन कर बना जो माँ या घर के बूढ़े-बुजुर्ग बड़े चाव से सुनाया करते थे.. तब कही बाहर से लड़ के घर आने पर उन सबकी डाँट पहले पड़ती, भले ही खुद की गलती ना हो.. अब तो ये पहलू गायब हो चुका है। अंजाने मे वो व्यक्तित्व निर्माण प्रक्रिया गायब हो चुकी है.. आत्मचिन्तन करे.. व्यक्तित्व निर्माण कोई संस्था नही दे सकती सिवाय पारिवारिक संस्था के..

@व्याकुल

चापलूसनामा


बड़े बड़े लोग चापलूसों के आगे नतमस्तक रहते है। चापलूस लोग महिमामन्डन मे पीछे नही रहते है। व्यक्ति को एहसास दिला ही देते है किं इस धरा पर आप जैसा शूरवीर नही.. मजाल है कोई दूसरा सही बात कह पाये.. जिसकी सत्ता आने वाली हो या आ चुकी हो उसकी चिंता कर स्थान बना लेते है ये वैसे भी सत्ता से दूर नही रह पाते.. सत्ता से दूर ये ऐसे लगते है जैसे किसी ने इनको बहुत दिन से भूखा रखा हो या गाल पर जोरदार तमाचा जड़ दिया हो.. इनका प्रयास जारी रहता है कैसे घुसपैठ किया जाय.. कुछ सत्तासीन को यही चापलूस लोग ही पसंद है इनके बिना सत्ता कुछ फीकी फीकी सी लगती है..बड़ी बड़ी साहित्यिक रचनायें रच गयी इस चक्कर में.. चालीसा तक लिख डाली लोगों ने..

चापलूसों की भी श्रेणी अलग-अलग होती हैं। कुछ लोग जीवनी लिखने के बहाने नजदीकी बनाते है। कुछ जरूरत से ज्यादा चिंता करके जगह बनाते है। कुछ सतत् उपस्थिति दर्शाकर। 

ऐसे लोगों का आत्मविश्वास भी गज़ब का होता है। चेहरा भी दयनीय बना लेते है। एक बार वरदहस्त प्राप्त हो जाये फिर तो पूछियें मत।

बहुत ही ज्यादा समर्पण कर देते है यें खुद को। अब तो जमाना सोशल मीडिया का है। मजाल है चरण पादूका सर पर रखने का कोई मौका चूक जायें।

इनका पूरा एक ग्रूप है हर पार्टी में है यही गठबंधन में भी अहम् भूमिका निभाते है.. हर पार्टी को अपने लोगों के बीच में से ही चापलूसों को चिन्हित करना होगा..

@व्याकुल

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...