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शनिवार, 31 जुलाई 2021

अबोध

घना कोहरा था। जाड़े की कड़कड़ाती ठंड थी। बाहर से आवाज आयी, 

"मूँगफली ले लों" 

मैंने खिड़की खोली तो देखा 10-12 वर्षीय एक बालक मूँगफली बेच रहा था। 

मैं आश्चर्यचकित था किं इतना छोटा बच्चा वो भी इस ठंड में।

मूँगफली जाड़ें के मौसम में असीम सुख देती है। मूँगफली के साथ की चटनी तो और भी सुखद। 

मैंने घर के अंदर से ही पूछा था उससे, "चटनी भी लिये हो क्या????" 

उसने कहा था,  "जी साहब!!!"

मैं तुरंत घर से बाहर आ गया। 

उस लड़के को नजदीक से देखते ही मेरे पाँव से जमीन खिसक गई थी। मैं अवाक् रह गया था। मेरे मुँह से इतना ही निकल पाया, "अरे!!!!! तुम..."

उसकी यह हालत देख मैं शुन्यता में चला गया था। कुछ समझ ही नहीं आ रहा था क्या बोलूं????

खुद को संभालते हुए मैंने पूछा, "बेटा, तुम ऐसी हालत में....."

प्रचंड ठंड में महीन सूती कपड़े की पायजामा व पुरानी शर्ट पर हाफ स्वेटर पहने दयनीय हालत बयां कर रहा था मेरा ध्यान उसकी कटकटातें दाँतों पर था....  मैंने उससे आधा किलों मूँगफली ली। सोचा थोड़ा बढ़ा कर पैसा दे दूँ पर उसने साफ कह दिया था, "पैसे, इतने ही हुये है.."

मै उसकी ईमानदारी पर खुश था

उस छोटे से बच्चे की मासूमियत का इस तरह से बर्बादी मुझसे देखी नहीं जा रही थी।

मैं और भी कुछ पूछता बच्चा बोला, "अंकल चल रहा हूं बाद में बात करूंगा, चलते वक्त माँ ने बोला था किं बेटा बहुत ठंड है जल्दी घर आना"

"पापा अब नहीं रहे है न..."

इतना कहते हुए वह वहां से चला गया था।

मैं कुछ पूछता उससे पहले ही उसने बोला था। 

मै निःशब्द हाथ में मूँगफली लिए बहुत देर जड़वत रहा। 

मेरा हृदय पसीज गया था। क्या बोलता मैं????

कुछ भी कहने को नहीं था। बस मेरी आँखों के सामने उसके पिता की तस्वीर घूम रही थी। नशे में धुत उसके पिता का साइकिल लहराते हुये व डगमग-डगमग सड़क पर चले जाना व उसकी माँ का गोद में छोटा बच्चा होने के बावजूद पति को संभालते रहना। पीछे से छोटा सा यह बालक।

कई वर्षों से मैं यही क्रम देखता चला आ रहा था। 

नियति का ही खेल था पिता की गलत आदतों की सजा बच्चा भुगत रहा है.. व्यसन इंसानों को कहीं का नहीं छोड़ती। धन-तन-मन कुछ भी शेष नहीं रहता।

स्टेशन पर उसका एक कैंटीन था जिससे उसकी जीविका चलती थी। जैसे ही उसने पैसा कमाना शुरू किया गलत संगत से आदतें बिगड़ती रही। 

कहते हैं धन बहुतायत में हो तो व्यक्ति की आदतें बिगड़ने की संभावनाएं बहुत बढ़ जाती है। अत्यधिक शराब पीकर रहना उसकी मौत का एक कारण बन गया था।

शायद उसे पता नही था अपने पीछे उस मासूम के स्कूली बैग लदे कँधे को भी वीरान कर रहा है जो मजबूूत कर रही थी भविष्य निर्माण कों।

ये काँधे मूँगफली की डलिया संभाल नहीं सकती थी।

आँखें हमेशा प्रतीक्षा करती उस बालक का और मन में एक प्रश्न रहता कैसे देख पाऊंगा उन नन्हे से हाथों से तराजू की सुइयों को साधते हुए....

@व्याकुल

बुधवार, 28 जुलाई 2021

भूल

चंदन के गाँव में जैसें खुशी की लहर झूम उठी हो। चंदन ने तो गाँव का सीना आसमान जैसा ऊंचा उठा दिया था। गाँव के छोटे-बड़े सभी उस को सीने से लगा रहे थे। चंदन ने मेडिकल की परीक्षा में ऑल इंडिया टॉप किया था।

बारहवीं की परीक्षा पास करने के पश्चात मेडिकल की तैयारी चंदन ने पिता के बचपन के मित्र के यहाँ रह कर की थी। चंदन बचपन से ही बड़ा मेधावी था, उसके पिता को उस पर बहुत ही विश्वास था। चंदन कम बोलने वाला शर्मीला लड़का था।

वह घड़ी भी आई जब सारा गाँव चंदन को छोड़ने स्टेशन पर आया था। सभी उसको लाड़-प्यार कर रहे थे। चंदन भी बड़ों का आशीर्वाद ले रहा था, उसने मेडिकल की पूरी पढ़ाई अच्छे अंको से उत्तीर्ण किया।

चंदन को पढ़ाई खत्म होते ही पटना के बड़े चिकित्सालय में सेवा करने का अवसर मिल गया। वह बड़ी तन्मयता से अपनी सेवाएं चिकित्सा के क्षेत्र में देने लगा। कोई गरीब मरीज दिख जाता तो उसकी पैसे से भी मदद कर देता था। इस तरह से चंदन की ख्याती सुदूर क्षेत्रों तक फैल चुकी थी। चंदन जब कभी गाँव जाते गाँव के लोग अपनी बीमारियों का इलाज कराते। चंदन पूरा समय गाँव वालों को देता था गाँव वालों से उसे भरपूर स्नेह मिला करता था।

चंदन की शादी के लिए रिश्ते आने लगे थे। वह दिन भी आया जब चंदन सांसारिक जीवन में प्रवेश कर गये। वह अपने पारिवारिक व सामाजिक जीवन से बहुत ही प्रसन्न थे।

चंदन की पत्नी सीमा डॉक्टर थी। दोनों पति-पत्नी अपने कार्य क्षेत्र में व्यस्त रहते थे।

एक दोपहर चंदन अचानक किसी  कार्य से घर आना हुआ। एक अनजाने शख्स को अपने घर से निकलते देखा था। जब तक चंदन कुछ समझ पाते वह व्यक्ति ओझल हो चुका था। 

घर आते ही चंदन ने पत्नी से पूछा था,

"सीमा, वह कौन था???"

"कोई तो नहीं।" सीमा ने जवाब दिया था।

चंदन मन का भ्रम समझ चुप हो गया था। फिर से वह अपने कार्य में व्यस्त हो गया।

एक दिन अचानक चंदन को दिन के समय पत्नी के अस्पताल में सर्जरी हेतु जाना पड़ गया। चंदन को वहाँ सीमा नहीं दिखी। चंदन ने अस्पताल के स्टॉफ से पूछा, तो लोगों ने बताया.. मैम, रोजाना तीन घंटे के लिए घर को जाती हैं।

चंदन अवाक् रह गया था। उसे तो आज तक नहीं पता चला था की हर रोज दोपहर वह घर जाती थी। दोपहर घर आने वाली बात की सीमा ने भी कभी कोई चर्चा नहीं की थी। चंदन का दिमाग नकारात्मकता की ओर कभी नहीं गया। उसने सोचा, सीमा थक जाती होगी इसलिए दोपहर आराम करने जाती होगी।

फिर वह अपने कार्य में व्यस्त होने के कारण सीमा से पूछना भूल गया था। 

समय बीतता जा रहा था। एक दिन पुनः चंदन को दोपहर किसी काम से घर आना पड़ा। घर के अंदर देखा वही व्यक्ति ड्राइंगरूम में बैठा था, जिसे उसने कभी घर से निकलते देखा था। 

सीमा ने आगे बढ़कर कहा,

"यह सुमित है, मेरे कॉलेज के दिनों के मित्र" 

दोनों ने एक दूसरे को हाय-हैलो किया।

थोड़ी देर की बातचीत के बाद चंदन के साथ सुमित भी निकल गया था।

अब जब कभी भी चंदन घर को आता सुमित से मुलाकात हो जाती। चंदन के मन में शक समाने लगा था। उसने सीमा से कई बार बात भी की। सीमा मित्र कहकर बात टाल दी थी।

सुमित का आना जाना काफी बढ़ गया था। चंदन दिनों-दिन परेशान रहने लगा।

सीमा से चंदन की छोटी-मोटी चीजों के लिए लड़ाइयां भी होने लगी। चंदन कुछ समझ नहीं पा रहा था क्या किया जायें ???? सीमा ज्यादा खुश रहने लगी थी और चंदन उतना ही विक्षिप्त। धीरे-धीरे चंदन बीमार पड़ने लगा।

इधर सीमा के पास सुमित का आना जाना बढ़ गया था।

उस दिन सुबह से ही चंदन को बुखार था। वह छुट्टी पर था जो सीमा के लिए परेशान कर देने वाला था। वह सोच रही थी चंदन बीमार है तो क्या... अस्पताल में ही जाकर रहे। इतना बड़ा डॉक्टर है वो, उसकी सेवा अस्पताल में ही हो सकती है। उसने इस बात को चंदन से कहा भी। 

सुमित के घर आते ही सीमा ने सुमित से कहा था, 

"तुम भी बोलो ना चंदन से.. सुमित अस्पताल में ही जाकर रहे" 

सुमित ने चंदन के सामने ही सीमा का हाथ पकड़ लिया और ड्राइंगरूम के सोफे पर सट कर बैठ गया। चंदन से यह देखा नहीं गया। उसने बोला, 

"मेरे आँखों के सामने यह तुम क्या कर रही हो???? मुझे और कितना कष्ट दोगी???"

इधर चंदन की तबीयत दिनोंदिन खराब होती जा रही थी उधर अपनी आँखों के सामने प्रतिदिन सुमित और सीमा की रंगरेलियां देखता था।

आज सुबह से ही सीमा बहुत खुश थी उसने चंदन को नाश्ता दिया। दवाइयाँ भी समय से दी। चंदन को सीमा का यह बदला व्यवहार समझ नहीं आ रहा था। 

तभी सुमित आ गया था। दोनों ने इशारों-इशारों में कुटिल मुस्कान के साथ कुछ बात की। सुमित ने सीमा को इंजेक्शन देते हुए यही कहा था,

"इस इंजेक्शन से चंदन ठीक हो जाएंगे।"

सीमा ने दोपहर का भोजन चंदन को अपने हाथों से खिलाया। चंदन खुश हो गया था। मन ही मन में सोच रहा था सीमा में यह बदलाव कैसा????

चंदन ठहरा दयालु व संस्कारी प्रवृत्ति का। क्या समझ पता दिखाने वाला इंजेक्शन कुछ और था लगाने वाला कुछ और।

इंजेक्शन लगने के बाद चंदन सीमा से यही बोल पाया था, 

"सीमा!!! मुझे बहुत तेज नींद आ रही है, तुम अपना ध्यान रखना।" 

उसके बाद चंदन सो गया था।

शहर के सभी बड़े डॉक्टर ने हाथ खड़े कर दिए थे चंदन के पिता की आवाज चली गई थी।


@व्याकुल

रविवार, 13 जून 2021

किराये का घर

मसालों का शहर यही तो पढ़ा था इस जगह के बारे में। वास्कोडिगामा भी यही आये थे कालीकट में । भारत की प्राण "मानसून" भी यही जन्म लेती है।  साक्षरता भी यही है। देवेश इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने यही तो आया था।  उसके लिए ये नया शहर था। हॉस्टल का खाना उत्तर भारतीयों के लिहाज़ से उसे पसंद नहीं आया। उसने बाहर कही रूम लेकर पढ़ाई करने की ठानी। अनुशासित बहुत था वो। पिता के इकलौते पुत्र।  बाहर रहने लगा देवेश।  खुद ही खाना भी बनाने लगा। जिस मकान में रहता था वो बहुत ही खूबसूरत था। मकान के पास का चित्रण करने बैठ जाइयें तो यथार्थ में स्वर्ग का गाथा लिख जाए। करीने  से नारियल का पेड़ और केले की खेती एक अलग  दृश्य उत्पन्न कर रहे थे।  

ज्यादा कुछ जानता तो नहीं था मकान मालिक के बारे में। बस आज तक एक भद्र महिला ही दिखी थी। दूरियों की एक वजह भाषा भी थी। महीने एक बार मकान मालकिन आती  थी, मुझे समझते देर नहीं लगती थी किं क्यों आयी है वो। किराया दे देता था और वो चली जाती थी। संवाद के लिए इशारों में बात हो जाय करती थी।  थोड़ी बहुत टूटी-फूटी अंग्रेजी समझती थी। हिंदी तो बिल्कुल नहीं। मै ठहरा ठेठ उत्तर भारतीय। अंग्रेजी में भी आखिर कितने देर तक पिटर पिटर करता,थोड़ा बहुत में लगता बहुत बात हो गया। माथे की शिकन बताती थी उन्होनें अपने जीवन में बहुत संघर्ष झेला था। सामान्यतः केरल के लोगो की तुलना में साफ़ रंग की थी।  ज्यादा कुछ समझने का समय भी नहीं मिलता और कोशिश भी नहीं की।

एक दिन कॉलेज से आने के बाद सोया ही था की वो महिला दौड़ी दौड़ी मेरे पास आयी।  

बोली, "सन, मेरी पद्मिनी का पता नहीं कहाँ चली गई"

"पद्मिनी!!!!  ये कौन ???? "

विस्मित स्वर में मैंने  पूछा था,

"अरे बेटा, मेरी बेटी। "

"ओह " "पर, आंटी मै तो उसको पहचानता नहीं "

उसने तुरंत फोटो लाकर दिखाई। वो को साँवली सी लड़की थी। उम्र कोई 17-18 वर्ष की।  

मैंने फोटो हाथ में लिये कपड़े पहन निकलने को ही था किं मकान मालकिन के यहाँ से तेज-तेज आवाज आने लगी।  माँ-बेटी का वाक् युद्ध मेरे कानों में निरन्तर पड़ रही थी।  मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था बस दोनों के चेहरे के भाव भंगिमा से कुछ समझने की कोशिश कर रहा था। उस लड़की के पास पिट्ठू बैग था।  लग रहा था जैसे वो कही भागने की तैयारी की हो। लड़के ने धोखा दे दिया हो और वो वापस आ गयी हो। ऐसा ही होता है हम हमेशा बहुतों के बारे में ऐसी ही सोच बैठा लेते है।

मै चुप चाप अपने रूम पर आ गया।  

उस दिन के बाद से फिर उनके घर से कोई हलचल नहीं दिखी। कभी कभी अब मेरा भी मन हो जाता था किं आखिर उस दिन हुआ क्या था।

मै अब अंतिम वर्ष में था मुझे थोड़ा  मलयालम समझ आने लगी थी

वो दोनों अब मुझे पहले की तुलना में ज्यादा दिखने लगे थे। कभी-कभी दोनो मॉ-बेटी से बात भी हो जाया करती थी। 

मुझे पद्मिनी अच्छी लगने लगी थी। मैने एक दिन बातों बातों में मकान मालकिन से अपनी इच्छा जाहिर की थी वो कुछ बोली नही मुझे बस देखती रही।

आखिरकार मकान मालकिन ने एक दिन शादी के लिये अपनी हाँ कर दी थी पर इस शर्त के साथ की यही केरल में ही शादी होनी चाहिये। मै अपने घर से किसी को बुला नही पाया था। शादी संपन्न हो गयी। मेरी इंजीनियरिंग की पढाई को भी समाप्त हुये कई महीने बीत चुके थे। मै अपने पिता से कोई न कोई बहाना बना केरल में रुका रहा।उन्हे पता भी नही था किं मै शादी कर चुका हूँ। मैने अब वापस प्रयागराज चलने का मूड बना लिया था। प्रयागराज पहुँचते ही पिता जी का पारा सॉतवें आसमान पर था। वो घर में घुसने ही नही दिये। वो पुरातन सोच व अन्तर्जातीय विवाह के सख्त खिलाफ थें। बहुत दिनों तक हम दोनों घर के बाहर बरामदें मे पड़े रहे। 

एक दिन सुबह आँख खुली तो घर पर ताला लगा देखा। पता चला वो मकान बेच चुके है। मै अपनी ही माटी में बेगाना हो चुका था। इस छोटे से शहर में तत्काल नौकरी मिलना टेढ़ा काम था। पद्मिनी को सिलाई अच्छी आती थी। वों कही से किराये की मशीन ले आयी और घर के बाहर प्लास्टिक की शीट डालकर सिलाई करने लगी थी। मै बेरोजगार काम तलाशता रहता। तभी एक दिन कोई नये लोग मेरे अपने ही घर में शिफ्ट होते रहे।

मै अपने ही घर में बेगाना सा उनसे थोड़ी सी जगह व किराये के लिये गिड़गिड़ाता रहा....

©️व्याकुल

गुरुवार, 10 जून 2021

आहट - 6

 

गतांक से आगे..

वो शाम आज भी नही भूली थी जब साकेत दुःखी था। बोला था," अवनि, तुम कहीं और शादी कर लो।

मेरे घरवाले तैयार नही हो रहे"

अवनि अनुत्तरित थी। अपना सब कुछ समर्पण कर चुकी थी। जिंदगी ठहर गयी थी। समझ नही पा रही थी क्या बोलें। उस दिन घर आकर रात भर रोती रही। 

उस दिन के बाद बहुत दिनों तक साकेत फिर कभी नही दिखा था। एक दिन उसके घर के पास चहल-पहल बहुत थी, पता चला उसकी किसी दूसरे शहर में शादी हो गयी। मेरे ऊपर वज्रपात टूट गया हों।

अंदर से बहुत ही टूट चुकी थी। भाई का भी पढ़ने से मन उचट चुका था। जुआ और आवारगी उसका मुख्य धंधा।

गरीबी और बेबसी में ही इंसानों का असली चेहरा सामने आता। कोई सहानूभूति जता मेरे अकेलेपन का फायदा उठाना चाहता था, कोई सच्चा होने का झूठा नाटक करता। 

एक दिन पापा के पुराने मित्र आयें। भावेश का फोटो दिखाकर शादी का प्रस्ताव रखे। बस इतना ही बताये कि लड़का विधुर है। मै, असहाय, सिवाय सहमति के कर भी क्या सकती थी।

मै भावेश के साथ दूसरे शहर आ गयी थी। भावेश बहुत ही खुशमिजाज था।

तभी भावेश ने मेरे आँख बँद कर दिये। बोला, "अवनि, एक सरप्राईज है" "आँखें न खोलना, जब तक न कहूँ"

मेरा प्रोमोशन हो गया। दूसरे शहर शिफ्ट होने की तैयारी करों। मै फिर उदास हो गयी। इस शहर ने मुझे नवजीवन दिया था। रिश्तों की कई उलझनों को पार कर यहॉ तक आ पहुँची थी। मै तो मानती ही नही ईटें, दिवारें और सड़के नही बोलती। इनसे भी हमारा अनवरत संवाद होता रहता है और ये हमारे व्यक्तित्व निर्माण में अहम् भूमिका निभाते है।

मै भावेश से यहीं कह पायीं थी किं "एक बार मेरे मायके घुमा दों"

"कल ही...", इतना कह भावेश नहाने चला गया। 

मुझे अपने मॉ-पिता की धरा पर जाने की व्याकुलता हो रही थी।

अगली सुबह मै बस में भावेश के साथ बैठी थी। रास्ते भर जो जगह मेरे जीवन से जुड़ी थी, उसकों दिखातें चली जा रही थी। उत्सुकता थी जल्द पहुँच जाने की। 

दुर्योग रहा!!!!  मै बस से उतर रही थी और साकेत की पत्नी सफेद साड़ी पहने बस पर चढ़ रही थी। बस इतना ही पता चल पाया कि साकेत अपनी शादी के बाद से बहुत दुःखी रहने लगा था। कुछ दिन पहले रात दों बजे उसने इहलीला समाप्त कर ली थी, जैसे मेरे सपने की वों "खट्" की आवाज उसी की हों। 

मै निःस्तब्ध बस को ओझल होते देख रही थी....

समाप्त...

©️व्याकुल

आहट - 5

 

गतांक से आगे...

एक सुबह तो हद ही हो गयी। घर के ड्राइंग रूम में बैठा साकेत पापा को समझा रहा था, "अंकल, एडमिशन का आप चिंता नही करियेगा। लखनऊ विश्वविद्यालय में मै सब करवा दूँगा"

पापा उस पर बहुत विश्वास कर उसकी हॉ में हॉ मिला रहे थे। 

मेरा एडमिशन उसने लखनऊ विश्वविद्यालय में करवा दिया था। हॉस्टल में मै रहने लगी। अब लखनऊ से अपने घर ज्यादातर उसके साथ आने-जाने लगी।

साकेत मेरा बहुत ख्याल रखने लगा। प्रथम वर्ष पूर्ण होने पर एक दिन छुट्टियों में मेरे घर आया। पापा उस पर बहुत विश्वास करने लगे थे। 

"अंकल, क्यों न अवनि अगले वर्ष से मेरे चाचा के घर रहे???"

"ठीक है बेटा, जैसा तुम उचित समझों" 

फिर क्या था, अब मेरा बसेरा उसके चाचा के घर हो गया। साकेत भी ज्यादातर समय लखनऊ और मेरा ध्यान रखने लगा।

अब तो जैसे मुझे उसकी आदत ही पड़ गयी थी। कब उसके प्यार में आ गयी, पता ही नही चला।

इस बीच साकेत के चाचा का ट्रांसफर हो चुका था। अब उस मकान में सिर्फ मै और साकेत ही थे। मैने अपने घर वालो से चाचा के ट्रांसफर की बात छुपा रखी थी। 

मेरे स्नातक तक हम दोनों पत्नी-पति जैसे ही रहे। 

मेरा स्नातक पूर्ण हुआ ही था किं एक दर्दनाक घटना घटित हो गयीं। मेरे पापा का देहांत सड़क दुर्घटना में हो गया। भाई छोटा था और कोई कमाने वाला नही। मै वापस अपने शहर एक छोटे स्कूल में टीचिंग करने लगी थी। 

साकेत से प्रगाढ़ता बनी रही। वों मुझे ढाढ़स बँधाया करता था। 

मेरे घर की माली हालत खराब होती रही। मॉ व पिता दोनों हम भाई-बहन को अनाथ कर बहुत दूर जा चुके थे।

क्रमशः

©️व्याकुल

सोमवार, 7 जून 2021

आहट - 4

 

गतांक से आगे...

भावेश को आज अॉफिसियल मीटिंग की वजह से देर से आना था। अवनी बेचैन थी। रात भर न सोनें की वजह से कब नींद आ गयीं, पता ही नही चला। शाम को जब बाई ने कॉल बेल बजाई तब नींद से अवनी जागी। 

"मेमसाहब, तबियत ठीक नही क्या?"

"ठीक हूँ, एक कप चाय पिला दे।" बात को टालने के लिहाज से बोला था उसने।

बाई तुरंत चाय बना लायी। चाय पीते हुये अवनी को विमल ढाबा याद आ गया, जहॉ वों अनगिनत बार हर शाम साकेत के साथ चाय-कॉफी पीने जाती थी। 

साकेत मध्यमवर्गीय परिवार से था। गेहुँआ रंग.. दुबला-पतला.. मुस्कुराता चेहरा। माता-पिता का इकलौता संतान। 

उस पहली शाम को उसे अपने घर की तरफ आते देखा था। मेरी तो धड़कन बढ़ गयी थी। मै तुरंत नीचे आ गयी थी। संयोग से सब घर के अंदर थे। मै जैसे ही मेन गेट पर आयी, वो हकलाता हुआ बोला था, 

"छत पर पतंग आ गयी है"

मैने वापस पतंग उसको दी ही थी।

"मुझे लोग "साकेत" कहते है। आपका नाम?"

उस अप्रत्याशित बोल ने मेरे होश उड़ा दिये थे। मै तुरंत भाग आयी थी।

क्रमशः

©️व्याकुल

शनिवार, 5 जून 2021

आहट - 3

 

गतांक से आगे...

भावेश ने अॉफिस से आते ही अवनी को उदास देखा, उससे रहा नही गया।

 "क्या बात है अवनी, तबियत ठीक नही क्या?" भावेश ने पूछा था।

"ऐसा कुछ नही, बस यूँ ही..." अवनी कहती हुई चाय बनाने किचेन चली गयी।

अवनी सपने की कोई चर्चा भावेश से करना ही नही चाहती थी।

यादों में तैर गयी थी साकेत के। घर के ऊपरी मंजिला की खिड़की से साकेत का घर साफ दिखता था। दसवीं की परीक्षा थी अवनी की। रात भर पढ़ती रहती थी। पहले तो कभी ध्यान ही नही गया, पर लगा जैसे कोई उसकी तरफ ही देख रहा है। जैसे ही अवनी उधर देखती वों अपनी नजर हटा लेता। रात को साकेत छत पर ही रहता जब तक अवनी सो नही जाती थी।

अवनी को अब स्पष्ट हो गया था कि साकेत के मन में उसके प्रति लगाव है। कर भी क्या सकती थी ऐसे पागलपन का। धीरे-धीरे उसे महसूस होने लगा था कि रास्तें में कोई उसका पीछा कर रहा है या साकेत देख रहा है। साकेत में इतना खो गयी थी। याद ही नही रहा उसे कि चाय को ऊबले बहुत देर हो चुकी थी। 

भावेश ने किचेन में आकर मुस्कुराते हुये कहा था, "अवनी, चाय उबल चुकी है।"

"ओह!!!" इतना ही बोल पायी थी अवनी।

भावेश अपने अॉफिस की चर्चा में मग्न हो गया। अवनी सिर हिलाती रही पर ख्यालों में साकेत ही रहा....

क्रमशः

©️व्याकुल

आहट - 2

 

गतांक से आगे...

शादी के बाद तो वो मायका जा ही नही पायी। न कभी भाई ने सुध ली न ही उसका मन हुआ। शादी होने के बाद मायके जाने के नाम पर लड़कियों का उत्साह देखतें ही बनता है। ससुराल की कितनी बातें होती है बतानें के लिये। कुछ कष्ट भी होता है तो बड़ी चालाकी से छुपा ले जाती है। मॉ- बाप को कोई पीड़ा न पहुँचे इसका कितना ख्याल रखती है वों। 

वो अपना सुख-दुख किससे कहती। कभी मौका ही नही मिला कुछ कहने कों। वर्ष में शायद ही एक-दों बार बमुश्किल भाई से बात होती होगी।

बार-बार फोन हाथ में लेती, फिर कुछ सोच कर कॉल करने की हिम्मत नही हो रही थी। ऐसा ही होता है जब हमें कभी कहीं से अपनत्व नही मिलता तो हम वहाँ बात करने में हिचकिचाते है, रिश्ता भले ही खून का हों।

मॉ का धुँधला चेहरा आज भी उसे याद है, जब वों लाल चादर पर लिपटी थी। मै नासमझ इंतेजार कर रही थी, मॉ अभी उठेगी और मुझे प्यार करेंगी। क्या पता था वों दिन मेरे जीवन का सबसे अभागा दिन था। याद है उस दिन कैसे उसके पिता ने उसे झिड़क दिया था। कोई ऐसे किसी अबोध के साथ करता है क्या। उस दिन के बाद से कभी पिता को हँसते नही देखा था मैने। 

साकेत उम्र में थोड़ा बड़ा था और पड़ोस में ही रहता था...

क्रमशः

©️व्याकुल

शुक्रवार, 4 जून 2021

आहट - 1

 

खट्!! खट्!!

कुछ ऐसी ही आवाज सुनी थी उसने। उसकी तंद्रा भंग हुई। पसीने से तरबतर थी वों। इतना डरावना सपना। दो मिनट तो उसे नींद से हकीकत की दुनिया में आने में लगा। समझ ही नही पा रही थी कि खट् की आवाज उसने सपने में सुनी या हकीकत में। इंतजार करती रही फिर से किसी हलचल का। भावेश और वो आज ही वैक्सीन लगवाकर आये थे। मांसपेशियों में गजब का दर्द था, जिसकी वजह से आलस्य पूरे शरीर में व्याप्त था और ऊपर से भयानक स्वप्न। दुःस्वप्न देखते देखते जब अहसास होता है कि वो तो मात्र एक दुःस्वप्न ही था तो बड़ा सुकून मिलता है, लगता है जैसे नयी जिन्दगीं मिल गयी हों।


सुबह चार बजे तक उसे नींद नही आई। चिड़ियों की चहचहाट ने अहसास दिला थी कि सुबह हो गयी पर दिमाग में वही सपना घूम रहा था। साकेत का सपने में ऐसी हालत में देखना उसे परेशान कर रहा था।


रात भर सो न पाने से उसे सुबह से सर भारी था। बाई काम करके कब का चली गयी थी व भावेश कब अॉफिस चले गये उसे कुछ पता ही नही चला।


साकेत को तो वो बचपन से जानती थी। ईश्वर करे सपना सच न हो...

@व्याकुल


क्रमशः

मंगलवार, 1 जून 2021

भ्रमजाल


आज फिर वो ठगा सा महसूस कर रही थी। कुछ भी अच्छा नही लग रहा था।
आज मितेश की कमी खल रही थी उसको। पिछले बरसात की ही तो बात है जब इन्ही बरसात के दिनों में दोनो घूम रहे थे। समय कितना सब कुछ बदल देता है। ऐसा कोई दिन नही जाता था जब दोनो की मुलाकात न होती हो।
मितेश जब पहली बार कॉलेज आया था कितना गुमशुम सा रहता था। पूरा अन्तर्मुखी स्वभाव था उसका। किसी का कभी ध्यान ही नही जाता। सबसे पीछे की सीट पर बैठना क्लास करना फिर निकल लेना।
उसने घर किराये पर मेरे पड़ोस में ही ले रखा था। कई महीनों बाद उसने सब्जी के ठेले पर सब्जी लेते समय पूछ ही लिया था क्या आप फलां कॉलेज से है। बस मै हाँ ही कह पायी थी। पता नही उसने सुना भी था या नही। आगे बढ़ गया था।
अब हम सभी द्वितीय वर्ष में आ गये थे। थोड़ा सभी लोग आपस में घुलने मिलने लगे थे। कब हमारी प्रगाढ़ता बढ़ गयी पता ही नही चला।
कॉलेज के बाद वो ट्यूशन पढ़ाने लगा। मै भी छोटे से स्कूल में पढ़ाने लगी। हम दोनों वीकेंड पर मिलने लगे।
एक दिन उसने शादी का प्रस्ताव भी रख दिया। मै ना नही कर पायी थी। हम दोनो ने चुपके से कोर्ट मैरिज कर ली थी। बाहर रूम ले लिया था।
मेरे घर में सिर्फ मेरा भाई ही था। मॉ-बाप बचपन में ही गुजर गये थे। 2-3 दिन के लिये बाहर का बहाना बना देती तो वो समझ नही पाता था। 4 साल तक सब ठीक ठाक रहा। अब उसने कानूनी रूप से तलाक लेने को कागज रख दिया था। शादी इतना गुप्त रूप में हुआ था कि किसी को अपना दुख भी जता नही सकती थी।
आज कुछ भी अच्छा नही लग रहा था। खिडकियों के बाहर बरसात का पानी ऐसे शोर कर रहे थे जैसे पत्थर मार रहे हो मुझे।
©️
व्याकुल

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...