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रविवार, 27 फ़रवरी 2022

सूखे पत्ते


पतझड़

के मौसम

में

पेड़ से

गिरते

झरते

सूखे पत्ते...



तंद्रा

भंग करती

हर-पल

प्रतिपल

अहसास कराती

साथ होने का

जैसे

छाँव दिया था

कभी....


बसंत 

भले ही गढ़े

खुद को

नयेे कोपलों

से 

पर

ख्वाहिश

रहती

उन सूखे

पत्तों की

जो

गिरते रहे थे

सर पर

जैसे

बुजुर्ग सा

आशीर्वाद

दे रहे हो

काँपते-हिलते

हाथों से.....


@व्याकुल



शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2021

डर

निडरता बहुत आवश्यक है जीवन में। अगर आप डर गये तो समझिये गये काम से। डर आपका आत्मविश्वास छीन लेता है। 

समाज में जो लोग अग्रिम पंक्ति में है वो कही न कही अपनी निडरता की वजह से। हम आधे से ज्यादा समय इस बात पर निकाल देते है कि लोग क्या कहेंगे। इस प्रकार की चिंता ज्यादातर मध्यम समाज में होता है।

एक प्रकार का और भी डर देखने को मिल जाता है। ये है कल्पना कर लेना कि मेरा नुकसान हो रहा या इस व्यक्ति से नुकसान हो सकता है। फिर उसी के इर्द गिर्द ताने बाने बुन लेना। 

अध्यात्म की दृष्टि बहुत जरूरी होती इस डर से उबरने के लिये। इसमे खोने जैसा कुछ नही होता। सब यहीं पाया है कुछ खो भी दिया तो क्या हुआ।

मुझे तो अपने ताऊ जी से बहुत डर लगता था। बड़ी-बड़ी मूँछें, कड़क आवाज। एक बार निडर होकर मित्रवत क्या हुये डर का पता ही नही रहा। पता नही क्यो मीर असर ने ऐसा क्यो कहाँ..

तू ने ही तो यूँ निडर किया है

बस एक मुझे तिरा ही डर है

जो लोग किसी को निडर करते है उनके लिये मन में सम्मान का भाव रहता है। किसी एक के लिये भी आपके मन डर का भाव है तो आप निडर नही हो सकते।

मेरी तो ख्वाहिस है कोई कह दे जैसा तनवीर देहलवी जी कहते है..

साए से चहक जाते थे या फिरते हो शब भर

वल्लाह कि तुम हो गए कितने निडर अब तो



एक बार रात 12 बजे अकेले स्टेशन से अपने गॉव पैदल चला गया था। कुत्तों के भूँकने में डर दिख रहा था। मै था, मेरा साया था चाँदनी रात में और मन में हनुमान चालीसा....

@व्याकुल

सोमवार, 2 अगस्त 2021

सामुदायिक रेडियो

बात वर्ष 2014 की होगी, जब मैं शोध के सिलसिले में टीकमगढ़ अपने मित्र डॉ उमेश जी के साथ जा रहा था। डॉ उमेश बुंदेलखंड विश्वविद्यालय के जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन विभाग में सहायक आचार्य हैं। बहुत ही सौम्य व मेहनती है। वें सभी की मदद के लिए हमेशा ही तत्पर रहते हैं। शोध छात्र के रूप में डाटा संग्रहण का कार्य बुंदेलखंड के सभी जिलों में होना था। स्वाभाविक ही था डाटा संग्रहण का कार्य टीकमगढ़, झाँसी व दतिया जिलों में डॉ उमेश जी के साथ ही होना था। मैं और डॉ उमेश जी टीकमगढ़ के लिए चल निकले थे। 

टीकमगढ़ पहुंचने से पहले रास्ते में ओरक्षा नामक जगह पर बाँए तरफ ताराग्राम जैसा बोर्ड दिखा। यह हम लोगों के लिए बड़ा ही कौतूहल का विषय था की चलकर देखा जाए। दोनों लोग अंदर गए। संयोग से वहाँ एक महिला अधिकारी मिली जो दिल्ली से आई हुई थी। उन्होंने बहुत ही विस्तार में सामुदायिक रेडियो की चर्चा हम लोगों से की थी।

सामुदायिक रेडियो जैसा विषय मैंने तो पहली बार सुना था । उन्होंने चर्चा के दौरान इसके पीछे एक एनजीओ का नाम भी लिया उस एनजीओ का नाम था डेवलपमेंट अल्टरनेटिव्स (Delelopment Alternative)

वहाँ ताराग्राम में अधिकारियों-कर्मचारियों का त्याग व समर्पण देखते ही बन रहा था। उन लोगों ने बारीकी से हर एक पहलुओं व कार्य पद्धति की चर्चा की थी। मेरे मित्र चूँकि मास कम्युनिकेशन के आचार्य थे वह हर एक चीज को समझ ले रहे थे पर मेरे लिए एकदम नई जानकारी थी।

हम लोगों से चर्चा हो ही रही थी तभी दोपहर एक बजे बुंदेली लोकगीत का कार्यक्रम शुरू हो गया। जहाँ वर्तमान् में हम अपनी संस्कृति, अपनी लोकगीत, अपनी बोली, अपनी भाषा से विमुख होते जा रहे हैं वहाँ इस प्रकार का कार्य निःसंदेह ही स्थानीय संस्कृतियों को संरक्षित कर आगे ले जाने का कार्य करेगा।

ऐसे एनजीओ की भूरी भूरी प्रशंसा की जानी चाहिए जों संस्कृतियों को बचाने का कार्य कर रही है। उनकी रिकॉर्डिंग पद्धति व उनका वहाँ के स्थानीय जनता से भावनात्मक लगाव आश्चर्यचकित कर देने वाला था।

हम सभी ने "कोस-कोस पर पानी चार कोस पर बानी" तो सुन ही रखी है। बहुत सी जनजातियों की संस्कृति, बहुत सी स्थानीय संस्कृति, स्थानीय विशेषताओं का लोप होता जा रहा है। ऐसे में तारा ग्राम से सीख लेते हुए सरकार को देशज ज्ञान पर कार्य करना चाहिए जिससे आने वाली पीढ़ियों को हम अपनी सुदृढ़ता से अवगत करा सकें।

@व्याकुल

शनिवार, 31 जुलाई 2021

मूछें

आजकल के युवा पीढ़ी को देखता हूँ तो लगता है किं जैसे उन्होंने प्राचीन परंपरा को आगे बढ़ाने का जिम्मा ले रखा हों। बड़ी-बड़ी मूछें देख कर अहसास होता है महाराणा प्रताप की भी मूछें ऐसी ही रही होंगी।

जिन लोगों ने मूंछें बढ़ा रखी है उनको देखकर ऐसा लगता है जैसे उन्होंने हल्की-फुल्की जिम्मेदारी ले रखी हो। मूछें रखना कोई आसान काम नहीं है। शीशे के सामने प्रतिदिन सेट करना एक महत्वपूर्ण दिनचर्या है।

हम लोग तो नब्बें के दशक में युवा हुए थे। समाज फैशन फिल्मी दुनिया से सीखता है, हमारे जमाने से मूछों का युग खत्म हुआ था। सलमान-शाहरुख अामिर का पदार्पण हो चुका था, मुछमुंड थे सब। क्या करते हम लोगों को मुछमुंड होना ही था। मेरी तो जैसे इज्जत ही बच गई हो विरल मूछों से कैसे अपनी साख बनाता, सघन होने का नाम ही नहीं ले रही थी। खेतों को आप देख लीजिए विरल खेत उतने आनंददायक नहीं होते जितने की सघन फसल।

अच्छा था अस्सी के दशक में युवा नहीं हुए नही तो अमिताभ बच्चन जी के डॉयलाग पक्का तंग करते, "मूछें हो तो नत्थू लाल जैसी वरना ना हो" 

जैकी श्रॉफ अनिल कपूर जैसे लोग तो सघन मूछों की प्रेरणा दे रहे हो। बच गया था मैं बाल-बाल।

हमारे गांव वाले चच्चा तो आज भी मूछें रखें है। जब तक वों थोड़ा सा भी नही हँसते है तब तक हम सभी को गम्भीर रहना पड़ता हैं। 

हमारे एक भांजे दाढ़ी मूँछ से बड़े प्रभावित रहते थे। अपने कॉलेज में दाढ़ी-मूँछ वाले प्रोफ़ेसर को गुरु मान लिए थे। गुरु के अगर मूँछ के साथ ढाढ़ी भी हो तो विद्यार्थियों पर अलग ही विद्वता का छाप छोड़ देते हैं। ऊपर से वक्ता हुए और ज्ञानी हुए तो आजन्म महिमा बनी रहती है। भांजे महाराज का भ्रम छः माह बाद ही टूट गया था, जब उन्हें पता लगा किं मूंछ ढाढ़ी वाले गुरुजी पढ़ाई छोड़ हर विधा में विद्वान है। 

मुंशी प्रेमचंद जी (आज जयंती भी है) की मूछें हो या चार्ली चैप्लिन जी की मूछें.... एक अलग ही दुनिया में ले जाती हैं। जैसे दोनों ने समाज से अलग हटकर कुछ करने की ठान ली हो, दोनों ही लीक से हटकर मूछों का पोषण कर रहे थे।

वैसे मुझे गोविंद वल्लभ पंत की मूछें भाती थी जैसे हँस रही हो।

गाँव में कुछ लोगों की मूछें मट्ठा पीते समय डूब जाया करती थी। पक्का ही वों मस्त हो जाया करती होंगी। दो मिलीमीटर मूछों का मट्ठा में भीगना एक अलग ही शोभा बनाता था। 

मूछों का दाढ़ी से मिलन भी किसी किसी विराट पुल से कम नहीं। फ्रेंच कट में कम से कम ऐसा ही बोध होता है।

भारत में मूंछों का नीचे होना बहुत ही अशोभनीय माना जाता है। मूंछों को अनवरत ऊपर ही होना चाहिए। मूंछों से सम्मान का बड़ा ही गहरा संबंध है। जितनी बड़ी हैसियत उतनी ही नूकीली व बड़ी मूछें। अगर आप माफिया बनने जा रहे हैं तो मूछें रखने का शौक पालना ही होगा।

मूंछ बेचारा बहुत ही संभल कर चलता है क्योंकि थोड़ा सा संतुलन इसका बिगड़ा तो इंसानों की शान मानों गयी। लड़ाई भी मूछों की ही होती है... लखनऊ के एक नवाब ऐसे मुकदमे की पैरवी कर रहे थे जिसमे तारीख व आने जाने का खर्च मुद्दें के खर्च से कही ज्यादा था पर बात मूंछो की थी... 

अच्छा था मैने मूंछो को अपने से अलग ही रखा...

@व्याकुल

अबोध

घना कोहरा था। जाड़े की कड़कड़ाती ठंड थी। बाहर से आवाज आयी, 

"मूँगफली ले लों" 

मैंने खिड़की खोली तो देखा 10-12 वर्षीय एक बालक मूँगफली बेच रहा था। 

मैं आश्चर्यचकित था किं इतना छोटा बच्चा वो भी इस ठंड में।

मूँगफली जाड़ें के मौसम में असीम सुख देती है। मूँगफली के साथ की चटनी तो और भी सुखद। 

मैंने घर के अंदर से ही पूछा था उससे, "चटनी भी लिये हो क्या????" 

उसने कहा था,  "जी साहब!!!"

मैं तुरंत घर से बाहर आ गया। 

उस लड़के को नजदीक से देखते ही मेरे पाँव से जमीन खिसक गई थी। मैं अवाक् रह गया था। मेरे मुँह से इतना ही निकल पाया, "अरे!!!!! तुम..."

उसकी यह हालत देख मैं शुन्यता में चला गया था। कुछ समझ ही नहीं आ रहा था क्या बोलूं????

खुद को संभालते हुए मैंने पूछा, "बेटा, तुम ऐसी हालत में....."

प्रचंड ठंड में महीन सूती कपड़े की पायजामा व पुरानी शर्ट पर हाफ स्वेटर पहने दयनीय हालत बयां कर रहा था मेरा ध्यान उसकी कटकटातें दाँतों पर था....  मैंने उससे आधा किलों मूँगफली ली। सोचा थोड़ा बढ़ा कर पैसा दे दूँ पर उसने साफ कह दिया था, "पैसे, इतने ही हुये है.."

मै उसकी ईमानदारी पर खुश था

उस छोटे से बच्चे की मासूमियत का इस तरह से बर्बादी मुझसे देखी नहीं जा रही थी।

मैं और भी कुछ पूछता बच्चा बोला, "अंकल चल रहा हूं बाद में बात करूंगा, चलते वक्त माँ ने बोला था किं बेटा बहुत ठंड है जल्दी घर आना"

"पापा अब नहीं रहे है न..."

इतना कहते हुए वह वहां से चला गया था।

मैं कुछ पूछता उससे पहले ही उसने बोला था। 

मै निःशब्द हाथ में मूँगफली लिए बहुत देर जड़वत रहा। 

मेरा हृदय पसीज गया था। क्या बोलता मैं????

कुछ भी कहने को नहीं था। बस मेरी आँखों के सामने उसके पिता की तस्वीर घूम रही थी। नशे में धुत उसके पिता का साइकिल लहराते हुये व डगमग-डगमग सड़क पर चले जाना व उसकी माँ का गोद में छोटा बच्चा होने के बावजूद पति को संभालते रहना। पीछे से छोटा सा यह बालक।

कई वर्षों से मैं यही क्रम देखता चला आ रहा था। 

नियति का ही खेल था पिता की गलत आदतों की सजा बच्चा भुगत रहा है.. व्यसन इंसानों को कहीं का नहीं छोड़ती। धन-तन-मन कुछ भी शेष नहीं रहता।

स्टेशन पर उसका एक कैंटीन था जिससे उसकी जीविका चलती थी। जैसे ही उसने पैसा कमाना शुरू किया गलत संगत से आदतें बिगड़ती रही। 

कहते हैं धन बहुतायत में हो तो व्यक्ति की आदतें बिगड़ने की संभावनाएं बहुत बढ़ जाती है। अत्यधिक शराब पीकर रहना उसकी मौत का एक कारण बन गया था।

शायद उसे पता नही था अपने पीछे उस मासूम के स्कूली बैग लदे कँधे को भी वीरान कर रहा है जो मजबूूत कर रही थी भविष्य निर्माण कों।

ये काँधे मूँगफली की डलिया संभाल नहीं सकती थी।

आँखें हमेशा प्रतीक्षा करती उस बालक का और मन में एक प्रश्न रहता कैसे देख पाऊंगा उन नन्हे से हाथों से तराजू की सुइयों को साधते हुए....

@व्याकुल

बुधवार, 28 जुलाई 2021

भूल

चंदन के गाँव में जैसें खुशी की लहर झूम उठी हो। चंदन ने तो गाँव का सीना आसमान जैसा ऊंचा उठा दिया था। गाँव के छोटे-बड़े सभी उस को सीने से लगा रहे थे। चंदन ने मेडिकल की परीक्षा में ऑल इंडिया टॉप किया था।

बारहवीं की परीक्षा पास करने के पश्चात मेडिकल की तैयारी चंदन ने पिता के बचपन के मित्र के यहाँ रह कर की थी। चंदन बचपन से ही बड़ा मेधावी था, उसके पिता को उस पर बहुत ही विश्वास था। चंदन कम बोलने वाला शर्मीला लड़का था।

वह घड़ी भी आई जब सारा गाँव चंदन को छोड़ने स्टेशन पर आया था। सभी उसको लाड़-प्यार कर रहे थे। चंदन भी बड़ों का आशीर्वाद ले रहा था, उसने मेडिकल की पूरी पढ़ाई अच्छे अंको से उत्तीर्ण किया।

चंदन को पढ़ाई खत्म होते ही पटना के बड़े चिकित्सालय में सेवा करने का अवसर मिल गया। वह बड़ी तन्मयता से अपनी सेवाएं चिकित्सा के क्षेत्र में देने लगा। कोई गरीब मरीज दिख जाता तो उसकी पैसे से भी मदद कर देता था। इस तरह से चंदन की ख्याती सुदूर क्षेत्रों तक फैल चुकी थी। चंदन जब कभी गाँव जाते गाँव के लोग अपनी बीमारियों का इलाज कराते। चंदन पूरा समय गाँव वालों को देता था गाँव वालों से उसे भरपूर स्नेह मिला करता था।

चंदन की शादी के लिए रिश्ते आने लगे थे। वह दिन भी आया जब चंदन सांसारिक जीवन में प्रवेश कर गये। वह अपने पारिवारिक व सामाजिक जीवन से बहुत ही प्रसन्न थे।

चंदन की पत्नी सीमा डॉक्टर थी। दोनों पति-पत्नी अपने कार्य क्षेत्र में व्यस्त रहते थे।

एक दोपहर चंदन अचानक किसी  कार्य से घर आना हुआ। एक अनजाने शख्स को अपने घर से निकलते देखा था। जब तक चंदन कुछ समझ पाते वह व्यक्ति ओझल हो चुका था। 

घर आते ही चंदन ने पत्नी से पूछा था,

"सीमा, वह कौन था???"

"कोई तो नहीं।" सीमा ने जवाब दिया था।

चंदन मन का भ्रम समझ चुप हो गया था। फिर से वह अपने कार्य में व्यस्त हो गया।

एक दिन अचानक चंदन को दिन के समय पत्नी के अस्पताल में सर्जरी हेतु जाना पड़ गया। चंदन को वहाँ सीमा नहीं दिखी। चंदन ने अस्पताल के स्टॉफ से पूछा, तो लोगों ने बताया.. मैम, रोजाना तीन घंटे के लिए घर को जाती हैं।

चंदन अवाक् रह गया था। उसे तो आज तक नहीं पता चला था की हर रोज दोपहर वह घर जाती थी। दोपहर घर आने वाली बात की सीमा ने भी कभी कोई चर्चा नहीं की थी। चंदन का दिमाग नकारात्मकता की ओर कभी नहीं गया। उसने सोचा, सीमा थक जाती होगी इसलिए दोपहर आराम करने जाती होगी।

फिर वह अपने कार्य में व्यस्त होने के कारण सीमा से पूछना भूल गया था। 

समय बीतता जा रहा था। एक दिन पुनः चंदन को दोपहर किसी काम से घर आना पड़ा। घर के अंदर देखा वही व्यक्ति ड्राइंगरूम में बैठा था, जिसे उसने कभी घर से निकलते देखा था। 

सीमा ने आगे बढ़कर कहा,

"यह सुमित है, मेरे कॉलेज के दिनों के मित्र" 

दोनों ने एक दूसरे को हाय-हैलो किया।

थोड़ी देर की बातचीत के बाद चंदन के साथ सुमित भी निकल गया था।

अब जब कभी भी चंदन घर को आता सुमित से मुलाकात हो जाती। चंदन के मन में शक समाने लगा था। उसने सीमा से कई बार बात भी की। सीमा मित्र कहकर बात टाल दी थी।

सुमित का आना जाना काफी बढ़ गया था। चंदन दिनों-दिन परेशान रहने लगा।

सीमा से चंदन की छोटी-मोटी चीजों के लिए लड़ाइयां भी होने लगी। चंदन कुछ समझ नहीं पा रहा था क्या किया जायें ???? सीमा ज्यादा खुश रहने लगी थी और चंदन उतना ही विक्षिप्त। धीरे-धीरे चंदन बीमार पड़ने लगा।

इधर सीमा के पास सुमित का आना जाना बढ़ गया था।

उस दिन सुबह से ही चंदन को बुखार था। वह छुट्टी पर था जो सीमा के लिए परेशान कर देने वाला था। वह सोच रही थी चंदन बीमार है तो क्या... अस्पताल में ही जाकर रहे। इतना बड़ा डॉक्टर है वो, उसकी सेवा अस्पताल में ही हो सकती है। उसने इस बात को चंदन से कहा भी। 

सुमित के घर आते ही सीमा ने सुमित से कहा था, 

"तुम भी बोलो ना चंदन से.. सुमित अस्पताल में ही जाकर रहे" 

सुमित ने चंदन के सामने ही सीमा का हाथ पकड़ लिया और ड्राइंगरूम के सोफे पर सट कर बैठ गया। चंदन से यह देखा नहीं गया। उसने बोला, 

"मेरे आँखों के सामने यह तुम क्या कर रही हो???? मुझे और कितना कष्ट दोगी???"

इधर चंदन की तबीयत दिनोंदिन खराब होती जा रही थी उधर अपनी आँखों के सामने प्रतिदिन सुमित और सीमा की रंगरेलियां देखता था।

आज सुबह से ही सीमा बहुत खुश थी उसने चंदन को नाश्ता दिया। दवाइयाँ भी समय से दी। चंदन को सीमा का यह बदला व्यवहार समझ नहीं आ रहा था। 

तभी सुमित आ गया था। दोनों ने इशारों-इशारों में कुटिल मुस्कान के साथ कुछ बात की। सुमित ने सीमा को इंजेक्शन देते हुए यही कहा था,

"इस इंजेक्शन से चंदन ठीक हो जाएंगे।"

सीमा ने दोपहर का भोजन चंदन को अपने हाथों से खिलाया। चंदन खुश हो गया था। मन ही मन में सोच रहा था सीमा में यह बदलाव कैसा????

चंदन ठहरा दयालु व संस्कारी प्रवृत्ति का। क्या समझ पता दिखाने वाला इंजेक्शन कुछ और था लगाने वाला कुछ और।

इंजेक्शन लगने के बाद चंदन सीमा से यही बोल पाया था, 

"सीमा!!! मुझे बहुत तेज नींद आ रही है, तुम अपना ध्यान रखना।" 

उसके बाद चंदन सो गया था।

शहर के सभी बड़े डॉक्टर ने हाथ खड़े कर दिए थे चंदन के पिता की आवाज चली गई थी।


@व्याकुल

रविवार, 25 जुलाई 2021

शेखर

उसने जिद पकड़ ली थी। मेरा हाथ पकड़ कर बोला, 

"मुझे कहीं नहीं जाना, मुझे सिर्फ तुम्हारे साथ ही रहना है।" 

मैं क्या जवाब देता। मैंने कहा, 

"ठीक है भाई, तुम मेरे साथ ही रहना।"

शेखर को आये हुए कुछ घंटे ही व्यतीत हुए थे। मैंने सुन रखा था शेखर की मानसिक हालत ठीक नहीं। शुरुआती बातचीत में मुझे तो सब कुछ ठीक लग रहा था। लगा ही नहीं की उसकी तबीयत ठीक नहीं है।

जब वह घर आया था पुरानी चर्चाएं छेड़ दी थी उसने। मैं भी बहुत देर तक पुरानी यादों में खोया रहा।

बातचीत के बीच में कई बार उसने रिया का नाम लिया था। रिया से वह बहुत प्यार करता था और शायद रिया भी उससे उतना ही प्यार करती थी।

शेखर एक जिंदादिल इंसान था। सिर्फ जिंदादिल इंसान ही नहीं बल्कि पढ़ाकू भी था। ये कह सकते हैं कुछ विशेष गुण जो लोगों को अपने सम्मोहन में बांध देते थे मैं भी शेखर के ही सम्मोहन में बंधा हुआ था। अस्सी के दशक में प्रयागराज के सिविल लाइंस में राजदूत से घूमना हम लोगों का शौक बन गया था कोई नही कह सकता था किं शेखर सोलह वर्षीय बालक है।

तब तक तो सब ठीक था पर अचानक से इन तीन वर्षों में ऐसा क्या हो गया जो शेखर को इतना बदल कर रख दिया था। मेरे सर में दर्द होने लगा था। शेखर की बातें मुझे सुनाई नहीं दे रहे थे। मन द्रवित हो रहा था। 

हाय!!!! किस्मत का खेल... 

शेखर को आज क्या हो गया। वह आज भी ऐसे बात कर रहा था जैसे रिया से मिलकर आया हो।

रिया मोहल्ले की निहायत खूबसूरत लड़की थी आंखें ऐसी थी जैसे बोल रही हो। सुन्दर इतनी जैसे ईश्वर ने खुद रचा हो। उसके पास से जो गुजरता देखता ही रह जाता।

रिया के जादू में वह पूरी तरह आ चुका था उसने रिया के छत पर जाने का समय व रिया के बाहर निकलने का समय हर चीज पता कर लिया था। बाद में से उसका मिलना जुलना भी जारी हो गया था।

याद है मुझे, जब रिया ने उससे मंदिर में मिलने का वादा किया था। पहली मुलाकात में शेखर बहुत घबराया हुआ था मुझे भी साथ ले गया था। मैं मंदिर के बाहर बैठा रहा शेखर रिया के साथ मंदिर के अंदर गया। कब दोनों दूसरे दरवाजे से निकल गए पता ही नहीं चला। मैं बाहर बैठा इंतजार कर रहा था। एक घंटे बाद जाकर देखा तो दोनों नदारद थे। शेखर रिया का मिलना जुलना जारी हो गया था। कभी कंपनी बाग तो कभी मिंटो पार्क दोनों मिलते रहते थे। मेरी शेखर से मुलाकात अब कम होने लगी थी मुझे लग गया था शेखर का जीवन ठीक चल रहा था। शेखर ने सोच लिया था शादी करना है तो सिर्फ रिया से। 

पर होनी को कुछ और ही मंजूर था।

इधर शेखर रिया के प्यार में था, उधर शेखर की मां चल बसी पर शेखर को सहारा देने के लिए रिया तो थी ही ना। मां का गम धीरे धीरे शेखर भूल गया था। उसके पिता ने दूसरी शादी कर ली थी जो शेखर को पसंद नहीं करती थी। शेखर पूरी तरह रिया पर निर्भर हो गया था रिया के जादू में सब कुछ भूल बैठा था। 

बी.एस.सी. प्रथम वर्ष का परिणाम आया शेखर फेल हो चुका था। इधर रिया बगल में रहने वाले पीयूष की ओर आकर्षित हो गई थी। एम.बी.ए. था पीयूष। एक अच्छी जॉब में था रिया से बड़ा था पर प्यार उम्र कहां देखता है।

रिया ने बात करना बंद कर दिया था। शेखर अब अकेला रह गया था। घर पर सौतेली मां का व्यवहार अन्जाना सा था। इधर रिया ने बात करना बंद कर दिया था।

शेखर बी.एस.सी. में फेल होने के पश्चात पूरा समय जमुना नदी के किनारे मछलियों को गोते लगाते देखा करता था। सोचता था एक दिन मैं भी ऐसे ही गोते लगाऊंगा।

तभी उसने मेरी बाँह बहुत तेजी से झक-झोरी। मैं जैसे तंद्रा से जाग उठा।

उसने कहा, "भाई, मुझे यही रहना तुम्हारे साथ।" 

मैं क्या कहता। मैंने कहा, "हां भाई, अब हम लोग एक साथ ही रहेंगे, वह मेरे साथ कई दिन बना रहा"

चार-पांच दिनों के बाद एक सुबह जब मैं उठा तो देखता हूँ किं शेखर नहीं था। एक कागज पर कुछ शब्द लिखे थे, शायद मैं अपनी धुँधली आँखों से यही पढ़ पाया था,

"मुझे भी गोते लगाने हैं भाई," "मुझे भी गोते लगाने हैं भाई।" 

@व्याकुल

शनिवार, 24 जुलाई 2021

गुरूपूर्णिमा

सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड।

तीन लोक न पाइये, अरु इकइस ब्रह्मणड॥

कबीर दास जी गुरू की महिमा ऐसे ही नही कह दिये कुछ तो तर्क रहा ही होगा। मजे की बात ये है कि चातुर्मास को पड़ता है ये गुरू पूर्णिमा। भगवान विष्णु शयन को चले जाते है। कहते है इन चार मास में कोई भी शुभ कार्य नही कर सकते। कहा भी गया है गुरू की महिमा ईश्वर से ऊपर है।

आज के दिन को व्यास पूर्णिमा के लिये भी मनाया जाता है। कृष्ण द्वैपायन व्यास को आदिगुरू माना जाता है। वे वेदो के प्रथम व्याख्याता भी थे।

आधुनिक काल में लोग कई कई गुरू को साधे रहते है.. गिरते है तो कोई संभालने वाला नही होता। रहिमन की वाणी तो मुझे मूलमंत्र लगती है -

एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाय। 

रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय।।

विदेशी विद्वान जॉन ड्यूवी शिक्षा को सामाजिक बदलाव के महत्वपूर्ण कारक के रूप में देखते है और उससे भी ज्यादा नैतिक रूप से प्रबल मानवों के निर्माण में शिक्षकों की भूमिका को अहं मानते है।

बचपन से एक दोहा जो जबान पर रहता था-

गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।

बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।

इसका अर्थ तो तभी समझ आया जब सामाजिक रूप से धक्के खाया। कितने ही बार गिरे और हर बार कोई न कोई गुरू बन उठाता रहा।  शनैः शनैः ही सही गोविंद तक पहुँचाता रहा।

@व्याकुल

शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

तिलक

आज तिलक जी की जयंती है। 

तिलक जी का नाम आते ही दिमाग में लाल-बाल-पाल की तिकड़ी गूंज उठती है। स्वतंत्रता आंदोलन के समय में राष्ट्रवादी चिंतकों में दो दल हुआ करते थे। पहला, उदारवादी और दूसरा उग्रवादी। बाल गंगाधर तिलक की गिनती उग्रवादी नेताओं में की जाती थी।

तिलक जी न सिर्फ देश की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्नशील थे वरन वह मानसिक परतंत्रता से भी देश को मुक्त कराना चाहते थे। पूर्व में गीता के जितने भी टीकाकार थे सभी ने मोक्ष की बातें ज्यादा की थी कर्म पर फोकस कम ही था जो तिलक जी को उद्विग्न करती थी।

वह सोचते थे जो गीता अर्जुन को कर्म के लिए प्रेरित कर रही वही गीता सिर्फ मोक्षदायिनी कैसे बन सकती है वों गीता की व्याख्या कर्म को केंद्रित रखकर करना चाहते थे गीता रहस्य पुस्तक की रचना उन्होंने इसी कर्म को ही केंद्रित रखकर की थी।


जिस वक्त देश पराधीनता के दौर से गुजर रहा था उस वक्त भारतीय समाज की आवश्यकता थी कि हम मोक्ष की बात ना करें कर्म की बात करें। तिलक जी इस बात को समझते थे इसलिए उन्होंने गणेश उत्सव जैसे कार्यक्रम का आयोजन किया था जो आज भी बड़े धूमधाम से मनाई जाती है।

गीता रहस्य तो उन्होंने बर्मा के मांडले जेल में लिख डाली थी वह भी पेंसिल से। गीता रहस्य में उन्होनें सामंजस्य पर जोर दिया उनका कहना था यदि आपके पास नीति है तो आप आधे सफल हो सकते हैं इसका बेहतरीन उदाहरण जरासंध के वध से किया जा सकता है तब कृष्ण की नीति थी और भीम का पराक्रम।

तिलक जी का गीता रहस्य पढ़ने से पहले मै भी यही सोचता था की गीता कर्मों से विमुख होने की सलाह देती है या कर्म में रत रहने की, पर गीता रहस्य आवरण हटा ही देता है सांसारिक जीवन में होते हुये भी बेहतरीन कर्म कर सकते हैं।

अधुना काल में यदि आप द्वंद में हो तो जरूर गीता रहस्य नेत्र के सामने रखिए। भाव को मन से चिंतन करें निःसंदेह आपके जीवन में एक नया सवेरा होगा और यही शायद तिलक जी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

@व्याकुल

बुधवार, 21 जुलाई 2021

मोल

कबाड़ी ढूंढ़ लेता हूँ

धुँधले होते पन्नों को..


मुस्कुरा भी लेता हूँ

सौदा होते देखता हूँ..


पसंद है खुद को बेचना

कीमत लगा देखता हूँ..


आँखे खुली रह गयी

मोल कौड़ी के बिकता देखता हूँ..


मुझे चौराहे पर खड़ा देख

सिक्के उछाल दिये दोस्तों ने..


धुँआ बन यूँ उड़ा वहम

पीठ पर खंजर घोपते देखता हूँ..


@व्याकुल

गुलेल


गुलेल की खोज कब और कैसे हुई, यह बता पाना तो मुश्किल होगा। गुलेल के चलाने की पद्धति से लगता है किं यह जरूर छापामार पद्धति या गोरिल्ला पद्धति का अंग रहा होगा। शिवाजी महाराज की गनिमी कावा नामक कुट नीति, जिसमें शत्रुओं पर अचानक से आक्रमण किया जाता है, गुरिल्ला पद्धति ही समझ सकते है। ऐसे कहा जायें तो गुरिल्ला के युद्ध प्रयोग का प्रचलन शुरू किया था।


                               चित्र स्रोत: गूगल

गुलेल से तिकोने लकड़ी के ऊपर के दो खुले हिस्सों में रबड़ बांधकर या ट्यूब को बांधकर छोटी ईंट को फंसा कर लक्ष्य को भेदा जाता है।

अमूमन इसका उपयोग चिड़ियाँ या पक्षियों को मारने में होता है इससे यह प्रतीत होता है कि इसके खोज में अवश्य ही जंगलों में रह रहे जनजातियों या शिकारियों का भी हाथ हो सकता है। धनुष-बाण के विकल्प के तौर पर गुलेल का उपयोग होता होगा।

मेरे बड़े भाई को बचपन से ही कुछ नया करने का शौक रहा है चाहे वह पतंगों का पेंच लड़ाना हो या कंचे खेलने हों या गुल्ली-डंडा इत्यादि।

मेरे ननिहाल में घर के पीछे अच्छा-खासा बगीचा हुआ करता था उसमें भांति भांति के पेड़-पौधे लगे हुए थे।

बड़े भाई गुलेल का उपयोग कभी किसी फल को तोड़ने में करते, कभी किसी दूसरे फल को तोड़ने में करते थे, फल तोड़ते-तोड़ते उनको चिड़िया मारने का शौक लग गया था।

घर के पीछे करौंधे का पेड़ था। पेड़ पर आसमानी रंग की सुनहरी चिड़ियाँ ने अपना घोंसला बना रखा था। उस घोंसले पर दो छोटे-छोटे बच्चे थे। चिड़ियाँ को अपने बच्चों को प्यार करते देखा करता था।

एक बार भैया ने गलती से उस चिड़ियाँ पर गुलेल चला दी थी चिड़ियाँ ढेर हो गयी थी। भैया को बहुत ही पश्चाताप हुआ। उन्होंने कसम खा ली थी की आज के बाद कभी भी गुलेल नहीं चलाऊँगा। उन्होंने अपने गुलेल को तोड़ कर उस चिड़ियाँ के साथ जमीन में गाड़ दिए थे इस तरह से गुलेल चलाने का शौक खत्म हुआ।

बहुत दिनों तक उन अनाथ बच्चों को दाने डालने का क्रम चलता रहा। एक दिन पता ही नहीं चला वे बच्चे कहाँ चले गए, यह हम लोगों के लिए बहुत वर्षो तक रहस्य बना रहा।

@व्याकुल

मंगलवार, 20 जुलाई 2021

रूटट रहाड़े

यह कल्पना से परे है कि हमारे कितने ही रीति-रिवाज, परम्परायें व प्रथायें समय के साथ- साथ क्षीण होते जा रहे। इनको सहेजना व संरक्षित करना समय की माँग है ताकि हमारी अगली पीढ़ी व भविष्य अपने इस प्राचीन परम्पराओं पर गौरव महसूस कर सकें। कश्मीर गौरवशाली हिन्दु परम्परा का एक लम्बा श्रृंखला रही है पर हम सभी इसकों विस्मृत कर बैठे है।

जम्मू - कश्मीर में सावन के महीने मे पवित्र देविका नदी के किनारे 'रूटट रहाड़े' पर्व का आयोजन किया जाता है...देविका नदी जम्मू और कश्मीर के उधमपुर ज़िले में ‘पहाड़ी सुध’ महादेव मंदिर से निकलती है और पश्चिमी पंजाब,जो कि अब पाकिस्तान में है, में बहते हुए रावी नदी से मिल जाती है। एक धार्मिक मान्यता के अनुसार, इस नदी को हिंदुओं द्वारा गंगा नदी की बहन के रूप में भी मान्यता प्राप्त है। हालांकि इसकी मान्यता एक गुप्त नदी के रूप में है।

इस पर्व में शादी-शुदा बेटियाँ अपने मायके आकर पिता, भाई, ताऊ, चाचा, आदि के नाम के पौधे रोपती है, और ये लोग उन पौधों के संरक्षण का जिम्मा लेते है।

@व्याकुल

रविवार, 18 जुलाई 2021

कादम्बिनी गांगुली: प्रेरणादायी व्यक्तित्व


पहली भारतीय महिला डॉक्टरों में से एक, कादम्बिनी गांगुली, जिनका जन्म 18 जुलाई, सन् 1861 में हुआ था। जिन्होंने पश्चिमी चिकित्सा में डिग्री के साथ प्रैक्टिस किया। आपने आनंदीबाई जोशी जैसी अन्य अग्रणी महिलाओं के साथ कार्य किया।

आपने 1884 में कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में प्रवेश पाने वाली पहली महिला थीं, बाद में स्कॉटलैंड में प्रशिक्षण प्राप्त किया और भारत में एक सफल चिकित्सा पद्धति की स्थापना की।

उन्होनें फ्लोरेंस नाइटिंगेल का ध्यान आकर्षित किया था और ऐसी न जाने कितनी महिलाओं के लिये आदर्श थी।

गांगुली भारत में सामाजिक परिवर्तन के लिए बहुत ही सक्रिय थी। वह राजनीतिक रूप से भी बहुत सक्रिय थी। वह 1889 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पांचवें सत्र में छह महिला प्रतिनिधियों में से एक थीं और बंगाल के विभाजन के बाद कलकत्ता में 1906 में महिला सम्मेलन का आयोजन किया। 

गांगुली ने महिलाओं के चिकित्सा शिक्षा में प्रवेश को लेकर महान कार्य किया था। आप कलकत्ता मेडिकल कॉलेज पर महिलाओं को छात्रों के रूप में अनुमति देने के लिए दबाव डालने में भी सफल रही थी।

ऐनी बेसेंट डॉ कादम्बिनी की प्रशंसा करती थी और इसका उल्लेख उन्होनें अपनी पुस्तक 'How India Wrought For Freedom' में किया था।

आप 3 अक्तूबर, 1923 को काल कलवित हो गयी।

@व्याकुल

शनिवार, 17 जुलाई 2021

मंडेला

कुछ कुचक्र इंसानों ने अपने लियें ऐसे बना रखे है कि उन्ही कुचक्रों से इंसानी समाज आजीवन निकलने का प्रयास करता रहता है। हाँ... नेल्सन मंडेला के साथ कुछ यही हुआ था। उन्हे ऐसे ही कुचक्रों में फँसाकर जीवन के महत्वपूर्ण कितने वर्ष जेल को समर्पित करने पर मजबूर कर दिया था। पूरा इंसानी समाज भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्गो व वर्णों में बँटा हुआ है। 

रंगभेद के विरुद्ध आंदोलन चलाने के लिये मंडेला को 12 जुलाई 1964 से सन् 11 फरवरी 1990 तक जेल की सजा मोबीन द्वीप पर काटने के दौरान उनके उत्साह में आश्रितों को संगठित करने के मामले में कोई कमी नहीं आई थी। 10 मई 1994 को आप दक्षिण अफ्रीका के प्रथम राष्ट्रपति बने जो नई ऊर्जा का संचार कर देने वाला था।



जिस धरती पर अन्याय के खिलाफ की शुरुआत गांधी जी ने कई वर्ष पहले किया था गांधीजी के विचार धारा अहिंसा के पद चिन्हों पर चलते हुए उसी धरती पर भारत रत्न से विभूषित पहले विदेशी मंडेला ने फलीभूत किया।

आंदोलनों व त्याग की यही खूबियां होती है कि विरोधियों के हौसले पस्त कर देती हैं। वर्ष 1993 में नोबेल शांति पुरस्कार विजेता मंडेला के इन्हीं छवि की वजह से दक्षिण अफ्रीका के लोग उन्हें राष्ट्रपिता मानते थे।

आज 18 जुलाई को उनका जन्मदिन है। 10 नवंबर, सन् 2009 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने रंगभेद विरोधी संघर्ष में उनके योगदान को देखते हुए प्रत्येक वर्ष के जन्मदिन 18 जुलाई को "मंडेला दिवस" घोषित किया।

@व्याकुल

बुधवार, 14 जुलाई 2021

तारणहार

इलाहाबाद में बारिश के समय नाव को बहते पानी में छोड़ना कितना सुखदाई लगता था। मैं और मेरे बचपन के कई मित्र कागज की नाव बनाकर पानी में छोड़ दिया करते थे। बड़ी अच्छी मित्रता हुआ करती थी। बारिश में केचुओं को इकट्ठा करना.. उनको इधर उधर भटकने ना देना हम सभी का शौक हुआ करता था। हम सभी के एक ही स्कूल व एक ही कक्षा थे। सिर्फ सोने के वक्त हम लोग अलग होते थे।

आज भी बरसात की वह दिन याद है जब मैंने कुछ आहट का आभास किया था जैसे अनिल के घर मारपीट चल रही हो। मेरी उम्र उस वक्त 8 वर्ष की होगी। मैं अबोध बालक देखता हूँ की अनिल के घर से ठेले पर घरेलू सामान लद कर जा रहे थे जो मेरे ह्रदय को विदीर्ण कर देने वाला थे। मैं समझ नहीं पा रहा था कि इतने घनघोर बारिश में कौन घर से बाहर निकलता है पर अनिल व उसके पूरे परिवार का इस तरह से निकलना दुखदाई था।

मैं पूछ भी नहीं सकता था की क्यों यहां से जा रहे हो??? और कहाँ के लिए???

मैंने अपनी मां से पूछा था, 

"अनिल कहां जा रहा है?" 

मां ने बोला था

"बेटा, यह उसका घर अब नहीं होगा।"

 मैंने पूछा, "क्यों माँ???" 

मां ने बताया, 

"उनके पिता इस घर को जूए में हार गए हैं।" 

मुझे तब जूए का अर्थ भी नहीं पता था। 

मैंने पूछा, "माँ, जूए में जो लोग मकान हार जाते हैं क्या उन्हें ऐसे मौसम में ही मकान छोड़ना होता है???" 

माँ ने मुझे गले लगा लिया था और बोला था, "नहीं बेटा!!!" 

मानवता जब मर जाती है तभी मानव को ऐसे हाल पर छोड़ दिया जाता है चाहे रेगिस्तान हो या बाढ़....

माँ की सुनाई कहानी मुझे स्मरण हो आया था..द्रोपदी का क्या हश्र हुआ होगा, उनके पास तो उनकी लाज बचाने को उस युग में कृष्ण थे क्या इस युग में कोई तारणहार बन सकेगा।

@व्याकुल

सोमवार, 5 जुलाई 2021

साझा

 


साझा 

कभी 

टिकता नही

मन का

ख्याल से

वाणी का

विचार से

राह का

पथिक से...


साझा

जिंदा

रहता है

जीवन की 

संझा व

चंद

लकड़ियों

 में....

@व्याकुल

शनिवार, 3 जुलाई 2021

कहकुतिया

 

कहकुतिया या "कहबतिया" ही कह लिजिये। बचपन से ही बड़ों ने कोई सीख दी है तो "कहकुतिया" ही माध्यम हो सकता है।  आंग्ल भाषा में "according to..." व हिन्दी में " के अनुसार" का पर्याय था कहकुतिया। ठेठ अवधी अंदाज में पथ प्रदर्शक का कार्य करता था ये शब्द। मुहावरा जैसा ही इसका वाक्यांश होता है.. सरल व रोचक...

मजाल है किसी ने कहकुतिया शब्द पर ऊँगली उठाई हो। सालों-साल के अनुभव के बाद कहकुतिया की खोज हुई होगी।

"देशी चिरईया मराठी बोल" जैसे बोल सुनने को मिल ही जाता था।

"कम खा काशी बसअ्" जैसे कहबतिया तो रोक ही लेते है परदेश भ्रमण को और संतोष से रहने की सलाह दे डालते है।

"बाड़ी बिसतुईया बाग क नजारा मारई" इसे आप छोटी मुँह बड़ी बात समझ लीजिये।

"बिच्छू क मंत्र न जानई कीरा के बिल में हाथ डालई" का अर्थ स्पष्ट है कि छोटे मोटे समस्या से निपट नही पा रहे और बड़े आफत मोल ले रहे।

"ढोल में पोल" में शब्द का अर्थ स्पष्ट है.. बजता कितनी तेज है पर पोल ही पोल होता है। बड़े लोगो के संदर्भ में प्रयोग किया जा सकता है।

@व्याकुल

गुरुवार, 1 जुलाई 2021

महबूब डाकडर

 सभी डाकडर बाबू को हमरे तरफ से भी शुभकामनाएँ... 

हमरे गॉव के नजदीक मनीगंज नाम क एक जगहा बा। मनीगंज नाम से पाठक लोगन के लगत होये किं कौनो धनी मनी वाल जगहा होये पर अइसन एकदम नाही बा। जाई पर अइसन लगत रहा जइसे कौनो उजड़ा युद्धस्थल बा। कौनो रौनक नाही। ऊहा क दुई दुकान हमरे स्मृति में बा। जेमन से एक ठी रहा महबूब डाकडर क कलीनिक। ऊहा जाई क एकई मकसद रहा महबूब डाकडर।  डाकडर साहब के विषय जोन हम बचपन से सुनत आवत रहे कि ओ कौनो बड़े डाकडर के अंडर में काम केहे रहेन। महबूब डाकडर सिगरेट खूब फूकत रहेन। पतला दुबला शरीर।नान सूती कुरता पायजामा। इहई पहिचान रहा ओनकर।

पिछवाड़े क फोड़ा क आपरेशन कौनो बड़े सर्जन स्टाइल में करत रहेन। इंजेक्शन गरम पानी में कहलुआ देई के बादई लगावई। आतमविसवास एकदम ऊँच स्तर क रहा डाकडर बाबू क।

बाद में ओनकर शर्त रहा कि हम ओनही के इहा जाब जहाँ जे हमके साईकिल पर लई जाये। हम कई बार अपने साईकिल पर बईठा कर घरे लई आवत रहेन।


##महबूब डाकडर अऊर हमार पिताजी

हमरे पिताजी के सीने दर्द उठई पर जान न पावई का भ बा। महबूब देखेन त तुरंतई कहेन.. हे पाण्डेय!!! तोहे एंजाइना बा.. कौनो बड़े डाकडर के दिखाई द पर पिता जी कहॉ मानई वाले... लईकन के तकलीफ नाही देई के बा भले ही कुछ होई जाय... एक दिना फिर महबूब डाकडर क पिताजी आमना-सामना होई ग... महबूब डाकडर कहेन, "अबहई तक गयअ नाही" "लईकन के फोन करय के पड़े" 

फिर का रहा। अगले ट्रेन से पिताजी प्रयागराज.. लखनऊ में बड़े डाकडर देखतई तुरंत आपरेशन केहेन...एहई तरह से पिताजी के जीवन देहेन डाकडर बाबू।

भले ही कुछ लोग या सरकार अइसे डाकडर के झोला छाप नाम से नवाजई  पर ऐ सब गॉव देश में हमार जीवन आधार हैन। देश क 70% आबादी क जीवन प्रदान करई वाले महबूब डाकडर व सभन डाकडर के हमार नमन व शुभकामनाएं।।।💐

@व्याकुल

बुधवार, 30 जून 2021

भदोही: एक ऐतिहासिक विरासत

 "बड़ा ही मुश्किल होता है जब बड़े शख्सियत के मध्य खुद की पहचान बनाना हो।"

ये बात अगर भौगोलिक रूप से फँसे हुये जिला भदोही की बात की जाये तो कुछ भी गलत नही होगा। आध्यात्मिक शहर काशी और तीन नदियों के संगम पर बसे हुये प्रयागराज के महात्म्य व प्रभाव पर बहुत कुछ आत्मिक स्तर पर महसूस किया जा चुका है। 

आज 30 जून है जो कि भदोही के वर्तमान का स्थापना दिवस है। वो वर्ष था 1994 व 65 वां जिला के रूप में स्थापित हुआ था।

वाराणसी का हिस्सा हुआ करता था कभी। शायद यही वजह रही होगी विकास से कोसों दूर रहा था भदोही।

भदोही का इतिहास भारशिव राजवंशों से जुड़ा हुआ है। वर्तमान् का मिर्जापुर (तब का कांतिपुरी) भारशिवों की राजधानी हुआ करती थी। बड़े पराक्रमी थे भारशिव। 

के. पी. जायसवाल की पुस्तक "भारत वर्ष का अंधकार युगीन इतिहास पृ. 10 में भारशिवों के बारे निम्न श्लोक से वर्णन मिलता है:  

अंशभार सन्निवेशित शिवलिंगोदवहन , शिव सुपरितुष्टानाम समुत्पादित राजवंशनाम् पराक्रम अधिगत : भागीरथी : अमल जल मुरघाभिष्कतानाम् दशाश्वमेघ अवमृथ स्नानानाम् भारशिवानाम्

अर्थ: अपने कंधों पर शिवलिंग का भार वाहन करके शिव को सुपरितुष्ट करके जो राजवंश पैदा हुआ उस भारशिव वंश ने पराक्रम से विजय प्राप्त कर , गंगा जल से अवभृत से स्नान कर गंगाजल से ही अपना राज्यअभिषेक करवाकर दस अश्वमेध यज्ञ किए थे।

आधुनिक काल में भदोही ने अपनी अपनी एक अलग ही पहचान बना रखी है औद्योगिक स्थली के रूप में। 15-20 वर्ष पहले तक कालीन उद्योग गॉव-गॉव में फलता फूलता रहा है जो बहुत बड़ा माध्यम था जीविका का। 

जिला मुख्यालय से लगभग तीस किमी दूर गंगा नदी के किनारे बसे द्वारिकापुर व अगियाबीर गांव में किए गए उत्‍खनन (जो हाल फिलहाल में तीन वर्ष पहले कराया गया था) के बाद नव पाषाण काल के भी कई दुर्लभ साक्ष्य मिले हैं।

विशिष्ट पहचान के दृष्टिगत संग्रहालय की स्थापना हो ताकि भदोही की अपनी सांस्कृतिक व ऐतिहासिक विरासत को संरक्षित किया जा सके....

©️व्याकुल

शनिवार, 26 जून 2021

साहिल

 हर ओर मंजर तबाही का था

गुफ्तगु कश्ती का मौत से था 

बेबसी के आगोश में कैसे आता 

किं वों साहिल के जज़्ब में था

©️व्याकुल

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...