गुलेल की खोज कब और कैसे हुई, यह बता पाना तो मुश्किल होगा। गुलेल के चलाने की पद्धति से लगता है किं यह जरूर छापामार पद्धति या गोरिल्ला पद्धति का अंग रहा होगा। शिवाजी महाराज की गनिमी कावा नामक कुट नीति, जिसमें शत्रुओं पर अचानक से आक्रमण किया जाता है, गुरिल्ला पद्धति ही समझ सकते है। ऐसे कहा जायें तो गुरिल्ला के युद्ध प्रयोग का प्रचलन शुरू किया था।
चित्र स्रोत: गूगल
गुलेल से तिकोने लकड़ी के ऊपर के दो खुले हिस्सों में रबड़ बांधकर या ट्यूब को बांधकर छोटी ईंट को फंसा कर लक्ष्य को भेदा जाता है।
अमूमन इसका उपयोग चिड़ियाँ या पक्षियों को मारने में होता है इससे यह प्रतीत होता है कि इसके खोज में अवश्य ही जंगलों में रह रहे जनजातियों या शिकारियों का भी हाथ हो सकता है। धनुष-बाण के विकल्प के तौर पर गुलेल का उपयोग होता होगा।
मेरे बड़े भाई को बचपन से ही कुछ नया करने का शौक रहा है चाहे वह पतंगों का पेंच लड़ाना हो या कंचे खेलने हों या गुल्ली-डंडा इत्यादि।
मेरे ननिहाल में घर के पीछे अच्छा-खासा बगीचा हुआ करता था उसमें भांति भांति के पेड़-पौधे लगे हुए थे।
बड़े भाई गुलेल का उपयोग कभी किसी फल को तोड़ने में करते, कभी किसी दूसरे फल को तोड़ने में करते थे, फल तोड़ते-तोड़ते उनको चिड़िया मारने का शौक लग गया था।
घर के पीछे करौंधे का पेड़ था। पेड़ पर आसमानी रंग की सुनहरी चिड़ियाँ ने अपना घोंसला बना रखा था। उस घोंसले पर दो छोटे-छोटे बच्चे थे। चिड़ियाँ को अपने बच्चों को प्यार करते देखा करता था।
एक बार भैया ने गलती से उस चिड़ियाँ पर गुलेल चला दी थी चिड़ियाँ ढेर हो गयी थी। भैया को बहुत ही पश्चाताप हुआ। उन्होंने कसम खा ली थी की आज के बाद कभी भी गुलेल नहीं चलाऊँगा। उन्होंने अपने गुलेल को तोड़ कर उस चिड़ियाँ के साथ जमीन में गाड़ दिए थे इस तरह से गुलेल चलाने का शौक खत्म हुआ।
बहुत दिनों तक उन अनाथ बच्चों को दाने डालने का क्रम चलता रहा। एक दिन पता ही नहीं चला वे बच्चे कहाँ चले गए, यह हम लोगों के लिए बहुत वर्षो तक रहस्य बना रहा।
@व्याकुल