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गुरुवार, 2 जून 2022

पंडोह का इनारा

 


चाँदनी रात थी उस दिन। चाँद बादलों से अठखेलियां खेल रहा था। ट्रेन के प्लेटफार्म से जाते ही स्टेशन भी वीरान हो चुका था। शायद यह अंतिम ट्रेन थी। स्टेशन मास्टर जंभाई ले रहे थे। उनके कक्ष में एक बड़ा सा लटकता बल्ब जल रहा था। हल्की सी हवा चलते ही झूलने लगता था। बाहर एक कुत्ता दोनों टाँगे आगे किये हुये अपना मुँह टिकाये हुये था। लग रहा था जैसे वो भी अर्धनिद्रा में हो। कुल मिलाकर स्टेशन पर तीन लोग थे। मै, कुत्ता और स्टेशन मास्टर।


सोचा स्टेशन से बाहर बाजार में कोई न कोई मिल ही जायेगा। पर सभी दुकानें बंद थी। दुकानों के बाहर खाट पर पसरे हुये लोग थे। खर्राटों की आवाज और भयावह लग रही थी। स्टेशन से घर दूर था। कोई साधन नही था। पैदल चलने का मन बना चुका था। 


सड़क पर अकेला चलता जा रहा था। कभी कभी बादल सड़क पर तैरते दिख जाते थे। मन हो रहा था क्यो इस अंतिम ट्रेन से चलने का भूत सवार हो गया था। जूता भी ऐसा था जो खट-खट की आवाज कर वीरानियों को चीर रहा था। जिससे कुत्तों की नींद में खलल पड़ रहा था। वों दबे पॉव नजदीक आकर भूँकने लगते। मै वही खड़ा हो जाता। प्रतिकार करके आफत मोल नही ले सकता था। माहौल शांत होने फिर आगे बढ़ जाता। 


लगभग 2 किमी. से ज्यादा चल चुका था। गॉव के अंदर प्रवेश कर चुका था। एक बाधा और थी। बचपन से जो चीज डराती आयी थी वह थी "पंडोह का इनारा" (कुँओ को गॉव में इनारा भी कहते है) पंडोह के इनारे में भूत-चुड़ैल है। कोई आज तक बच नही पाया, ऐसी बाते बचपन से सुनता आ रहा था। दूर से पंडोह का इनारा दिख रहा था। भूत दिमाग में तैरने लगे थे। कदम ठीठक रहे थे। जैसे-जैसे "पंडोह का इनारा" आ रहा था डर बढ़ता ही जा रहा था। तभी हनुमान चालीसा का पाठ तेज तेज पढ़ने लगा था। "भूत पिशाच निकट नही आवै..." वाली पंक्ति के बाद बढ़ ही नही पा रहा था। आँखे सीध मे कीये हुये पंडोह के इनारे को जैसे ही पार किया जान में जान आयी। 


घर पहुंचते ही पिता की डांट मिली। इतनी रात को खाने में कुछ नही मिलेगा। चुपचाप सो जाओ। 


पर मेरी जान "पंडोह के इनारे" पर ही लटकी थी। नींद कैसे आती!!!!!!


@डॉ विपिन पाण्डेय "व्याकुल"

शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

बॉयोग्राफी

किसी ने मुझसे बहुत वर्ष पहले कहा था... स्वास्थ्य ठीक करना हो तो अपने birthplace पर जाओ.. क्योंकि ये शरीर उसी माटी की है उस माटी से मिलकर प्रफुल्लित हो जाती है। हर्ष का अनुभव स्वंयमेव हो जाता है... आज बॉयोग्राफी एक सोशल मीडिया में लिखते वक्त कई बाते आँखों के सामने तैर गये....

कहानी सनाथपुर, सुरियाँवा, भदोही से शुरु होती है। कच्चा मकान तो नही कच्चे दलान को देखा था। ताश व आती-पाती बगीचे में दिन भर खेलते रहने... पुरानी बाजार में कपड़ा प्रेस कराना... डाकखाने में उत्सुकता से चिट्ठियों को खोजना फिर गॉव में उसका पत्र पढ़कर सुनाना... चौथार में आज भी पकोड़े का आनन्द लेना क्योंकि उसमे देशीपना की सोंधी महक होती थी। क्रासिंग के पास भरोस की दुकान की मिठाई व चाय से बच कौन पाया। टिनहवा टॉकिज व एक बंद कमरा में VCR से सिनेमा का आनन्द। मेरी बचपन से शिक्षा इलाहाबाद में होने के बावजूद छुट्टियों में चचेरे भाई के साथ उनके स्कूल मनीगंज.. जूनियर हाई स्कूल में एस. डी. आई. की आयत पर प्रश्नोत्तरी फिर सेवाश्रम कॉलेज में नकल कराना (चूँकि उस भाई से मै एक कक्षा आगे था)। बी.एल.... पी. पी... अपर इण्डिया... बुन्देलवा.... बम्बईया... (काशी एक्सप्रेस नही जानता था)... इलाहाबाद स्टेशन के पूछताछ काउंटर पर बम्बईया ट्रेन पूछना.. आस-पास वालों का व्यंग्यात्मक मुस्कान.. ए. जे. वा टरेन जंघई तक का सफर बाकी साथी विद्यार्थियों के साथ सफर गर्मियों में किसी पहाड़ों के सफर कम नही था। मेरा उत्तर मेरे बॉयोग्राफी में और मेरे अच्छे जीवन का यह बेहतरीन हिस्सा सदैव रहेगा जब भी कोई पूछेगा तुमने क्या जीवन जीया आज तक... 

@व्याकुल




शुक्रवार, 11 जून 2021

बोरसी का दूध

 

रात के दस बज चुके थे। मेरी बड़ी मॉ मुझे उठा रही थी। मै दिन भर का थका हुआ गहरी नींद में सो चुका था। उनींदा हालत में मै एक गिलास दूध हाथ में लिया और गट-गट पी गया। मै बस यहीं पूछ पाया किं चीनी है। उन्होनें हॉ में जवाब दिया था। दूध की मिठास और सोंधपन बता रही थी किं चीनी होना चाहिये। 



खैर!!! नींद की हालत में मष्तिष्क तर्क नही करता। मै सों गया। सुबह तक स्वाद बना रहा था। शहर के दूध का स्वाद कुछ अलग हुआ करता है और ये कैसा स्वाद। लग रहा था कुछ अमृत पी गया। गॉवों के हर घर में एक खिड़की हुआ करता है। खिड़की तो सिर्फ नाम का बोलते है वो निकासी का द्वार होता है जहॉ से महिलायें बैठा या निकला करती थी। सुबह देखा तों बोरसी (गॉवों में मिट्टी का पात्र जिस पर आग जला करती है) जो खिड़की के एक कोनें में अड्डा जमाये थी, जिस पर मट्टी का मटका दिखा। झाँक कर देखा तो मलाई की एक परत वो भी हल्कें पीले रंग की थी जों बरबस ही अपने तरफ खींच रही थी। बस फिर क्या था चम्मच लियें कटोरी भरा गया। आज भी उस दूध की मिठास याद करता हूँ तो मन प्रफुल्लित हो उठता है....

©️व्याकुल

शनिवार, 5 जून 2021

भूतहा पीपल

 

पत्तियों की खरखराहट दिन भर शोर मचाती रहती थी। उत्साह सा माहौल घर में बना रहता था। हॉ.. पीपल का ही पेड़ था, हवा के झोंको के साथ खुद भी झूम जाया करती थी। बचपन जब कभी उसकों देखती मन प्रसन्न हो उठता था।



पीपल के पेड़ के नीचे बैठना भी सुखद अनुभव रहता था। भगवान बुद्ध को तब पढ़ा नही था। बाद में समझ आया कि एक राजकुमार बोधिशाली इसी वृक्ष के नीचे हो गया था। कभी-कभी परिवार में लोगों को पूजते देखता था तो अथर्ववेद में लिखी बाते याद आ जाती है "अश्वत्थ देवो सदन, अश्वत्थ पुजिते यत्र पुजितो सर्व देवता" यानी पीपल के पेड़ की पूजा से सर्व देवताओं की भी पूजा हो जाती है।पतझड़ में भी कभी पीपल को पत्ता विहीन नही देखा इसीलिये पीपल को अक्षय वृक्ष भी कहा जाता रहा है।


कुछ दिनों के बाद फुसफुसाहट होने लगी। यही वृक्ष है जो घर में शांति नही होने दे रहा। ये मन को अशांत कर दे रहा है। बेचारा!!!! एक सजीव वृक्ष निर्जीव की भाँति कुतर्को को सुनता रहा। लोंग कैसे कैसे बात कर रहे। घर में हो रहे कई प्रपंचों का साक्षी रहा यह वृक्ष। वृक्ष को वास्तुदोष से जोड़ा गया। लोगों के मन में इतना भय व्याप्त हो गया कि आस-पास फटकना छोड़ दिया था। पीपल कैसे कहता "मै ही कृष्ण हूँ।"

गॉवों में हर एक पीपल के वृक्ष को बरम बाबा का निवास मान कर हाथ स्वयं ही दिल तक पहुँच जाता था। मन कैसे ये मान ले कि ये वृक्ष भुतहा भी हो सकता है। खुद को हर खता का दोषी इंसान मान ही नही सकता। आदमी लगाये गये और उसकों अंग अंग से धाराशायी कर दिया गया। आह भर रोया तो जरूर होगा नही तो मन की अशांति में ऐसी बढ़ोत्तरी न देखने को मिलता!!!!!

विश्व पर्यावरण दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ

@व्याकुल

शनिवार, 29 मई 2021

बड़का तारा और गंगा मैया


छु्ट्टियाँ गर्मी की। गॉव का सैर ही ठीकाना रहता था दो महिने। बड़का तारा हम बच्चों के अन्वेषण का केन्द्र।बड़का तारा (हमरे गॉव की भाषा में तालाब को तारा बोलते है) में गॉव के तमाम खेल हुआ करते थे। तारा गोलाई में था और उसकी परिधि 400 मीटर से कम नही। चारों ओर आम के पेड़ गोलाई में एक अलग ही दृश्य बनाते थे। पशुओं में हाथियों को भी डुबकी लगाते देखा था तारा में। इंसान तो स्नान करते ही थे। बड़का तारा पहुँच गये तो समझिये साँझ होने पर ही घर वापसी।  एक बार हम सभी थक ही गये थे। प्यास बहुत जोरों की लग गयी थी। मध्य दुपहरी। अब वहॉ से घर जाने को कोई तैयार ही नही था। हम सभी ठहरे महान चिंतक। एक बार कुछ बोल दिया तो मतलब गलत हो ही नही सकता। हम सभी के उस विचार मंथन में तय हुआ किं 'ई तारा क पानी क कनेक्शन गंगा मैया से बा। तबई ई कबहू नाही सूखत।' फिर तो आप सभी समझ ही सकते है।


जै हो गंगा मैया अऊर हमार तारा मैया


©️व्याकुल

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...