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बुधवार, 30 जून 2021

भदोही: एक ऐतिहासिक विरासत

 "बड़ा ही मुश्किल होता है जब बड़े शख्सियत के मध्य खुद की पहचान बनाना हो।"

ये बात अगर भौगोलिक रूप से फँसे हुये जिला भदोही की बात की जाये तो कुछ भी गलत नही होगा। आध्यात्मिक शहर काशी और तीन नदियों के संगम पर बसे हुये प्रयागराज के महात्म्य व प्रभाव पर बहुत कुछ आत्मिक स्तर पर महसूस किया जा चुका है। 

आज 30 जून है जो कि भदोही के वर्तमान का स्थापना दिवस है। वो वर्ष था 1994 व 65 वां जिला के रूप में स्थापित हुआ था।

वाराणसी का हिस्सा हुआ करता था कभी। शायद यही वजह रही होगी विकास से कोसों दूर रहा था भदोही।

भदोही का इतिहास भारशिव राजवंशों से जुड़ा हुआ है। वर्तमान् का मिर्जापुर (तब का कांतिपुरी) भारशिवों की राजधानी हुआ करती थी। बड़े पराक्रमी थे भारशिव। 

के. पी. जायसवाल की पुस्तक "भारत वर्ष का अंधकार युगीन इतिहास पृ. 10 में भारशिवों के बारे निम्न श्लोक से वर्णन मिलता है:  

अंशभार सन्निवेशित शिवलिंगोदवहन , शिव सुपरितुष्टानाम समुत्पादित राजवंशनाम् पराक्रम अधिगत : भागीरथी : अमल जल मुरघाभिष्कतानाम् दशाश्वमेघ अवमृथ स्नानानाम् भारशिवानाम्

अर्थ: अपने कंधों पर शिवलिंग का भार वाहन करके शिव को सुपरितुष्ट करके जो राजवंश पैदा हुआ उस भारशिव वंश ने पराक्रम से विजय प्राप्त कर , गंगा जल से अवभृत से स्नान कर गंगाजल से ही अपना राज्यअभिषेक करवाकर दस अश्वमेध यज्ञ किए थे।

आधुनिक काल में भदोही ने अपनी अपनी एक अलग ही पहचान बना रखी है औद्योगिक स्थली के रूप में। 15-20 वर्ष पहले तक कालीन उद्योग गॉव-गॉव में फलता फूलता रहा है जो बहुत बड़ा माध्यम था जीविका का। 

जिला मुख्यालय से लगभग तीस किमी दूर गंगा नदी के किनारे बसे द्वारिकापुर व अगियाबीर गांव में किए गए उत्‍खनन (जो हाल फिलहाल में तीन वर्ष पहले कराया गया था) के बाद नव पाषाण काल के भी कई दुर्लभ साक्ष्य मिले हैं।

विशिष्ट पहचान के दृष्टिगत संग्रहालय की स्थापना हो ताकि भदोही की अपनी सांस्कृतिक व ऐतिहासिक विरासत को संरक्षित किया जा सके....

©️व्याकुल

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