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शनिवार, 17 जुलाई 2021

मंडेला

कुछ कुचक्र इंसानों ने अपने लियें ऐसे बना रखे है कि उन्ही कुचक्रों से इंसानी समाज आजीवन निकलने का प्रयास करता रहता है। हाँ... नेल्सन मंडेला के साथ कुछ यही हुआ था। उन्हे ऐसे ही कुचक्रों में फँसाकर जीवन के महत्वपूर्ण कितने वर्ष जेल को समर्पित करने पर मजबूर कर दिया था। पूरा इंसानी समाज भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्गो व वर्णों में बँटा हुआ है। 

रंगभेद के विरुद्ध आंदोलन चलाने के लिये मंडेला को 12 जुलाई 1964 से सन् 11 फरवरी 1990 तक जेल की सजा मोबीन द्वीप पर काटने के दौरान उनके उत्साह में आश्रितों को संगठित करने के मामले में कोई कमी नहीं आई थी। 10 मई 1994 को आप दक्षिण अफ्रीका के प्रथम राष्ट्रपति बने जो नई ऊर्जा का संचार कर देने वाला था।



जिस धरती पर अन्याय के खिलाफ की शुरुआत गांधी जी ने कई वर्ष पहले किया था गांधीजी के विचार धारा अहिंसा के पद चिन्हों पर चलते हुए उसी धरती पर भारत रत्न से विभूषित पहले विदेशी मंडेला ने फलीभूत किया।

आंदोलनों व त्याग की यही खूबियां होती है कि विरोधियों के हौसले पस्त कर देती हैं। वर्ष 1993 में नोबेल शांति पुरस्कार विजेता मंडेला के इन्हीं छवि की वजह से दक्षिण अफ्रीका के लोग उन्हें राष्ट्रपिता मानते थे।

आज 18 जुलाई को उनका जन्मदिन है। 10 नवंबर, सन् 2009 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने रंगभेद विरोधी संघर्ष में उनके योगदान को देखते हुए प्रत्येक वर्ष के जन्मदिन 18 जुलाई को "मंडेला दिवस" घोषित किया।

@व्याकुल

गुरुवार, 15 जुलाई 2021

वादा

 

वैभव की कुछ दिन पहले ही नई नौकरी की ज्वाइनिंग गुडगॉव में हुई थी। छोटे शहर भदोही से निकलकर बनारस से उसने उच्च शिक्षा ली थी। वो अपने जीवन में कभी भी बड़े शहर नही गया था। बड़े शहर का चकाचौंध छोटे शहर से निकले हुये इंसानों आकर्षित करता रहा है।

वैभव के अपार्टमेंट में सुबह से शाम सभी भागते हुये नजर आते है। वो अकेला फ्लेट में रहता था। एक दिन शाम को उसके फ्लेट की कॉल बेल बजी। उसने देखा उससे मिलने नवयुवती आई हुई है। वो नवयुवती जिसकी आँखे बड़ी-बड़ी, चमकीला व हँसता चेहरा व माथे की बड़ी बिंदी जो किसी को भी आकर्षित कर ले। वैभव दरवाजा खोल ही पाया था कि उस नवयुवती ने पूछा,

'आप क्या पड़ोस में नये-नये आये है?'

मै सिर्फ सर ही हिला पाया था।

"कोई दिक्कत हो तो बतलाना", वो बोली थी।

मैने कहा, 'जी'।

मेरे इतना कहने पर वो चली गयी थी।

अगले दिन सुबह फिर वो लिफ्ट में मिली। बोली, 
'आप कहाँ से है' , 'किस कम्पनी में जॉब कर रहे' इत्यादि इत्यादि।

मै सिर्फ उसके बक बक में उलझ कर रह गया था।

अॉफिस से आते जाते मुलाकात होती रही।

एकाध बार अपने छोटे से बच्चे के साथ दिख जाती थी वों। मैने अनुमान लगा लिया था कि ये बच्चा जरूर उसका ही होगा। पति शायद कही शहर से बाहर नौकरी कर रहे होंगे। मेरी कभी हिम्मत नही हुई उससे व्यक्तिगत प्रश्न करने की।

पहनावा से ऐसा लगता था जैसे वो पतिव्रता नारी हो।

समय कब पंख लगाकर उड़ जाता है पता ही नही चलता। इस तरह से मेरे तीन महीने गुजर गये थे। उस फ्लेट में रहते हुये वो जब भी मिलती बक बक लगाये रहती। मै भी चुपचाप उसकी सुनता रहता। इन महीनों में कभी उसके पति नही दिखे।

एक दिन सुबह कॉल बेल बजी। देखा तो वही थी।

मैने पूछा,

'जी मैडम'

वो बोली,

'वैभव जी, आज आपका चाय मेरे साथ होगा।'

मैने कहा,

'इतना परेशान न होइए'

वो बोली,

'मै कोई औपचारिकता नही निभा रही हूँ'

फिर आदेशात्मक लहजे में बोली, 'आइयें'
मै ठहरा संकोची स्वभाव का।

उनके ड्राइंगरूम में महँगे सोफे थे। हर चीज बड़े करीने से सजे हुये थे। तब तक चाय व पकोड़े के साथ हाजिर हो चुकी थी।

वो बोली,

'एक बात कहुँ'।

मैने संकेत से हाँ में सिर हिलाया।

वो बोली,

'छोटे शहर के लोग बहुत संकोची होते है'।

मै सिर्फ मुस्कुरा दिया था।

अब धीरे-धीरे मेरी हिचक जाती रही। अब उनके साथ बाहर घूमने लगा था।

एक दिन शाम की चाय के समय मैने पूछ ही लिया,

"आपके पति कभी नही दिखते"

उसकी आँखो में आँशू आ गये थे।

मै मौन था।

थोड़ी देर बाद वो अपने को सामान्य करते हुये बोली,

'वैभव, मेरा उनसे तलाक हो गया है'।

मै अवाक् रह गया था क्योकिं उनके पहनावा व इतनी उर्जामयी शख्सियत से इस बात का अंदाजा नही लगाया जा सकता था। शायद शादीशुदा सी जिन्दगी जीना समाज से खुद को बचानें के लिये होगा।

मेरे हाथ खुद-ब-खुद उनके हाथ को अपने आगोश में ले सांत्वना दे रहे थे। एक अजीब सी नजदीकियां महसूस हो रही थी दोनों के बीच।

ऑफिस के अलावा सारा वक्त उन्हीं के साथ व्यतीत होने लगा। सारी दूरिया खत्म होने लगी थी। अब वो मेरी जिन्दगी में अच्छी खासी शामिल हो चुकी थी। मै भी अब पूरी तत्परता से उनकी मदद करता।

हमेशा ही वो मुझसे कहती,

'वैभव वादा करो कि तुम मेरे दोस्त बने रहोगे'।

मै संकेतों में सकारात्मक जवाब दे देता।

उस दिन की सुबह हिला देने वाली थी। उसके फ्लेट से लगातार बच्चे के रोनें की आवाज आ रही थी।

मैने उनके घर की बेल बजायी। कोई प्रतिक्रिया नही आयी। मन अनहोनी की आशंका से व्यथित था। अपार्टमेंट के कई लोग इकट्ठे हो चुके थे। पुलिस बुलाई गयी। दरवाजा तोड़ा गया।

आँखे फटी की फटी रह गयी और वो पंखे से लटकी मुझसे कह रही हो,

'वैभव वादा करो कि तुम मेरे दोस्त बने रहोगे'।

हाँ, वादा रहा। मै मन ही मन बुदबुदा रहा था।

मै देरतक उस छोटे से बच्चे के सर पर अपने हाथ से सहलाता रहा था।

@व्याकुल


बुधवार, 14 जुलाई 2021

तारणहार

इलाहाबाद में बारिश के समय नाव को बहते पानी में छोड़ना कितना सुखदाई लगता था। मैं और मेरे बचपन के कई मित्र कागज की नाव बनाकर पानी में छोड़ दिया करते थे। बड़ी अच्छी मित्रता हुआ करती थी। बारिश में केचुओं को इकट्ठा करना.. उनको इधर उधर भटकने ना देना हम सभी का शौक हुआ करता था। हम सभी के एक ही स्कूल व एक ही कक्षा थे। सिर्फ सोने के वक्त हम लोग अलग होते थे।

आज भी बरसात की वह दिन याद है जब मैंने कुछ आहट का आभास किया था जैसे अनिल के घर मारपीट चल रही हो। मेरी उम्र उस वक्त 8 वर्ष की होगी। मैं अबोध बालक देखता हूँ की अनिल के घर से ठेले पर घरेलू सामान लद कर जा रहे थे जो मेरे ह्रदय को विदीर्ण कर देने वाला थे। मैं समझ नहीं पा रहा था कि इतने घनघोर बारिश में कौन घर से बाहर निकलता है पर अनिल व उसके पूरे परिवार का इस तरह से निकलना दुखदाई था।

मैं पूछ भी नहीं सकता था की क्यों यहां से जा रहे हो??? और कहाँ के लिए???

मैंने अपनी मां से पूछा था, 

"अनिल कहां जा रहा है?" 

मां ने बोला था

"बेटा, यह उसका घर अब नहीं होगा।"

 मैंने पूछा, "क्यों माँ???" 

मां ने बताया, 

"उनके पिता इस घर को जूए में हार गए हैं।" 

मुझे तब जूए का अर्थ भी नहीं पता था। 

मैंने पूछा, "माँ, जूए में जो लोग मकान हार जाते हैं क्या उन्हें ऐसे मौसम में ही मकान छोड़ना होता है???" 

माँ ने मुझे गले लगा लिया था और बोला था, "नहीं बेटा!!!" 

मानवता जब मर जाती है तभी मानव को ऐसे हाल पर छोड़ दिया जाता है चाहे रेगिस्तान हो या बाढ़....

माँ की सुनाई कहानी मुझे स्मरण हो आया था..द्रोपदी का क्या हश्र हुआ होगा, उनके पास तो उनकी लाज बचाने को उस युग में कृष्ण थे क्या इस युग में कोई तारणहार बन सकेगा।

@व्याकुल

सोमवार, 12 जुलाई 2021

निगाहें

निदा फाजली की चंद लाइन....

दुश्मनी लाख सही, ख़त्म न कीजिए रिश्ता

दिल मिले या न मिले हाथ मिलाते रहिये

हाथ मिलाना तो अब हो नही सकता। मै सोच रहा था कोई और विकल्प क्या क्या हो सकता है???? 

अब तो निगाहें ही रह गयी मिलाने को। उसे ढंग से दुरूस्त कर लिया जायें। लोग कहते है कि इसकी निगाहें ठीक नही थी.. फलाँ की निगाह ठीक थी। 

निगाहों का भी अपना वसूल है.. कितने समय तक ये टिकाये रखना है। अगर ज्यादा समय लगा दिये तो समझिये आप गयें। गिरफ्त हुये दुनियादारी में।

"निगाहे मिलाने को जी चाहता है....."

जब से ये चंद लाईन सुनी है। गीतकार को धन्यवाद देने का मन करता है पर निगाहों को चलाने का उन्हें अभ्यास था सेकेंडो में निगाहों को फेरने का। हम कब तक पुतलियों में बैठने का इंतजार करते।

इकबाल साहब तब तो सही कहते है...

मुमकिन है कि तू जिसको समझता है बहारां

औरों की निगाहों में वो मौसम हो खिजां का

इससे बढ़िया साकी है जो मौज से गिरफ्त में है मस्क के.. वरना निगाहें फेर लेते है वो...हम गुनगुना उठते है..

हाय रे इकबाल...

साकी की मुहब्बत में दिल साफ हुआ इतना

जब सर को झुकाता हूं शीशा नजर आता है...

@व्याकुल

सौतन

शादी के मंडप पर बैठा राजन बहुत ही उदास था। उसने शादी के बहुत पहले ही रेडियो की माँग कर दी थी वो भी बुश कंपनी की। इधर कई बार पंडितों ने उसकी तंद्रा भंग की थी पर वह रेडियो के ख्यालों में डूबा था ।

समय कलेवा का था। राजन मुँह बनाए बैठा था। कलेवा शुरू कैसे करें। रेडियो तो दिखा ही नहीं । लड़की वाले भी राजन के धैर्य की परीक्षा ले रहे थे। तड़पा ही दिया था लगभग। तभी राजन के आँखों में चमक आ गई थी। बुश रेडियो को उसने देख लिया था ।

हंसी-खुशी विदाई के वक्त कार में एक तरफ दुल्हन तो दूसरी तरफ रेडियो था राजन के ।

दुल्हन की आंखों में आंसू था। पर राजन रेडियो के बटन को समझने में लगा था। उसने रेडियो ऑन ही किया था कि विविध भारती की चिर - परिचित संगीत सुनाई दी थी। तभी विविध भारती पर बज रहे एक गीत ने उसके खुशी पर पंख लगा दिया था।

'बाबुल का घर छोड़ के बेटी......'

राजन चकित था जैसे विविध भारती सब देख रहा हो।

दुल्हन ने फिर सुबकना शुरू कर दिया था।

राजन बहुत ही खुश था अब उसको नागेश के घर नहीं जाना पड़ेगा। गाना सुनने के लिए उसका सबसे पसंदीदा कार्यक्रम दोपहर के दो बजे का था। उस वक्त भोजपुरी गीत का कार्यक्रम होता था। 

शादी के अगले दिन राजन नीम के पेड़ के नीचे खाट पर लेटा हुआ था। उसके सर के पास रेडियो पर गाना बज रहा था। आज दो बजे जैसे ही पहला गाना शुरू हुआ वो झूम उठा था। 

'हे गंगा मैया, तोहे पियरी चढ़इबे...'

खेत - खलिहान कहीं भी जाता रेडियो साथ ही रहता। उसके शरीर का एक आवश्यक अंग बन चुका था। दिलीप कुमार का एक गाना सुनते ही नाचने लगा था वो.... 

'नैन लड़ जैंहे तो मनवा में कसक....'

दुल्हन के सामने गाने की आवाज तेज कर देता था। वह प्रतिक्रिया जानने का प्रयास करता पर दुल्हन को उसके रेडियो से चिढ़ हो गई थी। रेडियो को सौतन जैसे देखती थी वो।

रात को मनपसंद गीत सुनते - सुनते सो गया था वह। सुबह उठा तो रेडियो गायब था। बहुत परेशान था वह। रेडियो के बिना उसे लगा जैसे उसका प्राण निकल गया हो। 

शायद दुल्हन की आँखों को खटकती वो सौतन बलि चढ़ गयी।

@व्याकुल

रविवार, 11 जुलाई 2021

जनसंख्या पलायन

आज विश्व जनसंख्या दिवस है। देश की जनसंख्या इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि नियंत्रण करना मुश्किल हो गया है वह दिन दूर नहीं जब हमारी जनसंख्या चीन की जनसंख्या को पछाड़ देंगे।

अपने देश में जनसंख्या एक समस्या तो है ही दूसरी समस्या पलायन की है। गांव में आप आज की तारीख में पाएंगे कि लोगों के घरों में ताले लगे हुए हैं। आपको बुजुर्गों की संख्या गांवों में पर्याप्त रूप से मिल जाएंगे । पहले गांव से शहर की ओर पलायन, फिर शहर का बड़े शहरों की ओर पलायन, बड़े शहरों से दूसरे देशों की ओर पलायन एक बड़ी समस्या हो सकती है काम-काज, रोजी-रोटी की तलाश में ही पलायन हो रहे हैं, यह चिंताजनक स्थिति है। 

आज से 20 वर्ष पहले ब्रेन ड्रेन शब्द समाचार पत्रों और बड़े मंचो पर सुनाई देता रहा है पर अब उदारवादी अर्थव्यवस्था के परिणाम स्वरूप ब्रेन ड्रेन या प्रतिभा पलायन जैसे शब्द कहीं खोह में छुप गए है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में प्रतिभा पलायन या प्रतिभाओं का देश छोड़कर दूसरे देश को जाना कई मामलों में सामाजिक व्यवस्थाओं चिंतित करता है। जब हम प्राचीन भारत की बात करते हैं तब सात समुंदर पार पर कैसे भारतीय समाज हथकड़ी लगा देता था, आज गर्व का विषय माना जाता है की मेरा लड़का विदेश में है जबकि यहां उसके बुजुर्ग माता-पिता असहाय हो जाते हैं। विदेशियों के परिपेक्ष्य में पारिवारिक व्यवस्था जमीनी स्तर पर नगण्य है। वहां की सामाजिक व्यवस्था भारतीय व्यवस्थाओं के ठीक विपरीत मालूम होती है। भारत में विश्व जनसंख्या दिवस के संदर्भ  में नियंत्रण की कोशिश के साथ-साथ पलायन को भी हर स्तर पर रोकना होगा।

अगर जनसंख्या पलायन को हर स्तर पर नहीं रोका गया तो जनसंख्या का संतुलन बिगड़ सकता है। जहाँ सुविधाओं का स्तर अच्छा होगा वहाँ जनसंख्या का घनत्व ज्यादा होगा। इससे मूलभूत सुविधाओं के अकाल का सामना करना पड़ सकता है।

सरकार को दो स्तर पर कार्य करना होगा, जनसंख्या नियंत्रण के साथ-साथ जनसंख्या पलायन पर भी ध्यान देना होगा। यह तभी संभव है जब मूलभूत सुविधाओं व रोजगार को बड़े शहरों तक केंद्रित न कर ग्रामीण स्तर तक ले जाया जायें।

@व्याकुल

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...