लॉकडाउन में गॉवों की ओर लौटते मजदूरों पर कविता-
हटा दो
उन बेमानी शब्दों को
जो छद्म लोकतंत्र की
परिभाषाए गढ़ रहे।
कर्ज क्यो नही अदा
कर पाये
और छोड़ दिये तड़पता हुआ
सडकों पर
या
रेल की पटरियों पर।
क्या
कदम बढ़े न
अपनी माटी
की ओर
जो लपेटने को
फैलायें है बाँहे...
आत्ममुग्धता नही
हकीकत हूँ
खुशहाली
का
आधार हूँ
खेतों का
या
ईंटों की
दीवार का..
पसीनें छुपे है
घर की छत हों
या कण आटें का ।
कैसे हो परिशोधन
प्रारब्ध का या
मान लूँ
गरीब जन्मता ही गरीब है
और मरता भी गरीब है।
@व्याकुल