शून्य ही
रखना
जुड़ सकू
कही भी
नही सम्भाल
पाऊँगा
दम्भ
मद
सा
खुद को...
अट्टहास
कराने को
न
बनू
दशानन
या
जलाया
जाऊँ
जन जन में...
आहार
बनू
चीटियों का
और
ओढ़
सके
कोई उरंग
ढेर को....
@व्याकुल
आस पास तड़पते लोगो को देखना और कुछ न कर पाना कितनी कोफ़्त होती है न। व्याकुलता ऐसे ही थोड़े न जन्म लेती है। कितना तड़प चुका होगा वो। रक्त का एक एक कतरा बह रहा होगा। दिल से कह ले या आँखों से। ह्रदय ग्लानि से कितना विदीर्ण हो चुका होगा। पैर भी ठहर गए होंगे। असहाय इस दुनिया में सिवाय एक निर्जीव शरीर के।
शून्य ही
रखना
जुड़ सकू
कही भी
नही सम्भाल
पाऊँगा
दम्भ
मद
सा
खुद को...
अट्टहास
कराने को
न
बनू
दशानन
या
जलाया
जाऊँ
जन जन में...
आहार
बनू
चीटियों का
और
ओढ़
सके
कोई उरंग
ढेर को....
@व्याकुल
मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...