बेस्वादू सा क्यों लगे यें कबीर चौरा
खून लगे हो जैसे बाजार ख़ास का
भूल बैठे है काशी के घाटों की सीढ़ीया
झूठें ख्वाब बाँधे हो टूटते पतंगो सा
कँधे न मिले अश्क ही मिले रुसवाई में
हर शख्स मोल लगाने को तैयार मिला
कई हाथ उठे थे उन तंग गलियों में
उड़ते शहरों की बेरुखी का क्या
ऊँगलियाँ छूटती कैसे घूमते भीड़ में
जेबें जो रहे बेख्याली में "व्याकुल"...
@व्याकुल