ये
हिचकियां
सिर्फ
इंसानो के
गले में
अटकी
नही होती..
इंसानों से
इतर
हिचकियां
समेट लेती है
यादों को
और
मिला देती
है
अपनों को
आपस में..
जैसे
पहाड़ टूट
कर जमीं
से मिले
या बर्फ
पिघल कर
नदी में
या बहकते
समुद्र के
ज्वार
तटों को
सराबोर कर दें....
@व्याकुल
आस पास तड़पते लोगो को देखना और कुछ न कर पाना कितनी कोफ़्त होती है न। व्याकुलता ऐसे ही थोड़े न जन्म लेती है। कितना तड़प चुका होगा वो। रक्त का एक एक कतरा बह रहा होगा। दिल से कह ले या आँखों से। ह्रदय ग्लानि से कितना विदीर्ण हो चुका होगा। पैर भी ठहर गए होंगे। असहाय इस दुनिया में सिवाय एक निर्जीव शरीर के।
ये
हिचकियां
सिर्फ
इंसानो के
गले में
अटकी
नही होती..
इंसानों से
इतर
हिचकियां
समेट लेती है
यादों को
और
मिला देती
है
अपनों को
आपस में..
जैसे
पहाड़ टूट
कर जमीं
से मिले
या बर्फ
पिघल कर
नदी में
या बहकते
समुद्र के
ज्वार
तटों को
सराबोर कर दें....
@व्याकुल
मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...