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बुधवार, 4 अगस्त 2021

प्रारब्ध

जेल के सीखचों के पीछें आ चुका था वों। छोटी सी काल कोठरी अंधकार से भरा हुआ था। सिर्फ पॉव फैला कर लेट सकता था। टहलना तो सपना जैसा था। एक थाली, छोटा गिलास व एक छोटीं सी बक्सीं ही साथ दे रही थी। मेरे कोठरी के बगल में पूरे जेल का कॉमन टॉयलेट होने से सड़ाँध जैसी बदबू आती थी। छोटे-छोटे मच्छर कान में दिन भर भन भन करते रहते थे। कभी-कभी चूहें मेरे बदन को छूते हुये निकल जाते थे। 

रात में एक प्रहर ही नींद आती थी। फिर गॉव से लेकर शहर और प्रशासनिक सेवा में चयन तक आँखों के सामने तैरने लगते थे। 

अतिशय महत्वाकांक्षा व्यक्ति को हर वो गलत कार्य करने पर मजबूर कर देता है जो वो कभी सोचा नही होता।

जब कभी रात को नींद उचट जाती थी वों छोटे बक्सियाँ से कुछ पुराने कपड़े निकालता और देर तक सीने से लगाये रखता। ये कपड़े उसको प्रेरणा देते रहते थे। 

ये कपड़े उसे मॉ ने किश्तों में खरीद कर दिये थे जब वह दसवीं कक्षा में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ था। बहुत ही खुश थी मॉ उस दिन। सिर्फ यही एक ही कपड़ा था उसके पास। गंदे होने पर रात को धो देता था। दिन में तभी पहनता जब स्कूल जाना होता था, बाकि समय गमछा। रात को सलीके से मोड़ कर तकिये के नीचे दबा देता था।

सफेद पायजामा व हरे रंग की कमीज थी। यही एक ऐसी थाती थी जों मॉ व संघर्ष के दिनों की याद दिलाती थी। जरूरी नही तपस्या पहाड़ पर ही हो... धरातल कम नही मोक्ष के लियें....

मॉ के लिये एकमात्र सहारा मै ही तो था। मै घोर गर्मी में अथक पढ़ सकूँ..मॉ रात भर बेनी (हाथ की बनी पंखी) हिलाती रहती थी। नींद आने पर जब अपने हाथों से मेरे मुँह पर गीले हाथों से सहलातीं... मेरा मन  उनके ठोस हाथ पड़ते ही उद्विग्न हो उठता था... दिन भर बच्चों के बैग काँधे व हाथों पर रहता था... रो पड़ता था...ईश्वर संघर्ष के दिनों में ईमान भी कूट कूट कर डाल देता है पर आज ईमान धन तले रौंद दिया था मैने...जब तक कुछ समझ आता बहुत देर हो चुका था।

पिता के गुजर जाने के बाद शहर अपने चाचा के यहॉ कुछ महीने रह पाया था। चाचा-चाची की प्रतिदिन किचकिच होती थी। एक दिन मेरे स्कूल से आते ही मॉ ने कहा था,

"बेटा!!! आज शाम को पास के धर्मशाला में रहने के लिये चलते है.."

मैने बोला था...

"ठीक है मॉ.. पर ऐसा क्यूँ????""""

मेरी मॉ गंभीर व्यक्तित्व की थी। मॉ कुछ भी नही बोली थी। मौन थी। मैने मॉ की आँखों में देखा था। आँसू शायद अंदर की ओर बह रहे थे पर मुझे वों कमजोर नही करना चाहती थी.....

धर्मशाला के सामने बाजार था। दिन भर शोर रहता था। धर्मशाला से लगा हुआ बड़ा सा चबूतरा था। कोने में मेरा नया ठीकाना हुआ.. धर्मशाला के स्वामी जी ने अनुमति दे दी थी चबूतरें पर कपड़ों के टेंटनुमा बना कर रहने के लिये। 

अब सिर्फ मॉ और मै दो ही लोंग थे।

रात में टेंट से कपड़ों को हटा देता था ताकिं सड़क पर लगे ट्यूबलाईट की रोशनी से पढ़ सकूँ।

शाम को बाजार की शोर की वजह से मॉ सुला देती थी जिससे रात में मै पढ़ सकूँ। माँ की त्याग की कहानियाँ ऐसे ही नही लिये जाते रहे... मैने तो गवाह था....मेरी मॉ ऐसी ही थी जो उसी जीवटता से मुझे पाल रही थी..

पूरे मोहल्लें में सब खुश थे... 

"फुलादेई क लईकवा आई ए एस बन ग"

हर शख्स बधाई दे रहा था.... मेरे जीवन में नया सवेरा हुआ था। 

मॉ और मै साथ ही रहे.... हर पेड़ वक्त के साथ ढह जाता है... मुझे भी छाया मिलना बंद हो गया था। उस दिन लगा था मै अनाथ हो गया था।

बाढ़ जब आती है वह रास्ता भूल जाती है... मुझे भी हवा ऐसी लग गयी थी जमाने की। मै धनलोलूपता की बाढ़ में बह गया था और मॉ के दिखायें रास्तें से भटक गया था..

तभी कैदी किशन की आवाज ने तंद्रा भंग कर दी जैसे मेरी नींद टूट गयी हों....

हर दिन की तरह पाकशाला में नाश्ता बनाने की ड्यूटी में जुटा रहा।

@व्याकुल

नियति

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