एक मजेदार घटना का जिक्र करता हूँ। कुछ वर्ष पहले मै अध्ययन के दृष्टिगत चित्रकूट में था। उसी समय वहॉ एक संत पधारे थे। अपने भक्तों से बोल रहे थे कि अगर आप सभी को स्वस्थ रहना है तो आटे को कच्चा ही खाये। पका कर न खाये। सब भक्त गण चिंतित। ऐसा कैसे संभव। मेरे समझ में तुरंत आ गया। पकाने की परम्परा की शुरुआत निश्चित रूप जीभ के स्वाद से जुड़ी होगी। पकी हुई चीजों में मूल स्वास्थ्यवर्धक तत्व गायब हो जाता है। तभी सलाद व फल स्वास्थवर्धक रहता है।
हम जितना आधूनिकता की ओर बढ़ते जा रहे उतना ही खान-पान और रहन-सहन भी बदलता जा रहा। जो भी मिल गया खा लिया। यही आदतें हमे बीमारियों की ओर ले जा रही। अगर हमें स्वस्थ्य व दीर्घायु रहना है तो खान-पान में सुधार करना होगा।
हमे इसका ज्ञान होना चाहिये कि हम क्या खायें और क्या न खायें। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य ये है कि हम अन्न में क्या ले रहे। कही हमने अपने लीवर को प्रयोगशाला तो नही बना रखा।
आजकल हम मैदे से बनी सामग्री, तेल या तली हुई सामग्री प्रचुरता में रहे है। जीभ का स्वाद प्रमुख हो गया है। शरीर का स्वाद या लीवर का स्वाद गौण हो गया है।
अम्लीय भोजन ठूसे जा रहे है। अपच्य व गैस की बीमारी का शिकार होते जा रहे। जबकि हमारे आयुर्वेद में क्षारीय भोजन की सलाह दी गयी है। फाइबर प्रचुरता वाले भोजन लेने की बात कही गयी है।
अम्लीय भोजन की अधिकता से तमाम तरह की बीमारियां घर कर रही है। एक बीमारी ने घुसपैठ की तो समझिये बाकी बीमारियों की श्रृंखला बन ही जायेगी।
क्षार पद्धति से इलाज भी दो प्रकार से होता है: 1.पहला, खाने वाला व 2. दूसरा, घाव या अंग पर लगाने वाला।
मौसमी फल अवश्य खाये।
आज से ही शुरु कर दीजिये क्षारीय प्रचुर वाले भोजन की.......
@व्याकुल