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शनिवार, 5 जून 2021

भूतहा पीपल

 

पत्तियों की खरखराहट दिन भर शोर मचाती रहती थी। उत्साह सा माहौल घर में बना रहता था। हॉ.. पीपल का ही पेड़ था, हवा के झोंको के साथ खुद भी झूम जाया करती थी। बचपन जब कभी उसकों देखती मन प्रसन्न हो उठता था।



पीपल के पेड़ के नीचे बैठना भी सुखद अनुभव रहता था। भगवान बुद्ध को तब पढ़ा नही था। बाद में समझ आया कि एक राजकुमार बोधिशाली इसी वृक्ष के नीचे हो गया था। कभी-कभी परिवार में लोगों को पूजते देखता था तो अथर्ववेद में लिखी बाते याद आ जाती है "अश्वत्थ देवो सदन, अश्वत्थ पुजिते यत्र पुजितो सर्व देवता" यानी पीपल के पेड़ की पूजा से सर्व देवताओं की भी पूजा हो जाती है।पतझड़ में भी कभी पीपल को पत्ता विहीन नही देखा इसीलिये पीपल को अक्षय वृक्ष भी कहा जाता रहा है।


कुछ दिनों के बाद फुसफुसाहट होने लगी। यही वृक्ष है जो घर में शांति नही होने दे रहा। ये मन को अशांत कर दे रहा है। बेचारा!!!! एक सजीव वृक्ष निर्जीव की भाँति कुतर्को को सुनता रहा। लोंग कैसे कैसे बात कर रहे। घर में हो रहे कई प्रपंचों का साक्षी रहा यह वृक्ष। वृक्ष को वास्तुदोष से जोड़ा गया। लोगों के मन में इतना भय व्याप्त हो गया कि आस-पास फटकना छोड़ दिया था। पीपल कैसे कहता "मै ही कृष्ण हूँ।"

गॉवों में हर एक पीपल के वृक्ष को बरम बाबा का निवास मान कर हाथ स्वयं ही दिल तक पहुँच जाता था। मन कैसे ये मान ले कि ये वृक्ष भुतहा भी हो सकता है। खुद को हर खता का दोषी इंसान मान ही नही सकता। आदमी लगाये गये और उसकों अंग अंग से धाराशायी कर दिया गया। आह भर रोया तो जरूर होगा नही तो मन की अशांति में ऐसी बढ़ोत्तरी न देखने को मिलता!!!!!

विश्व पर्यावरण दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ

@व्याकुल

बुधवार, 2 जून 2021

सत्तूनामा

 सत्, तम् व रज् गुणों की उग्रता देखना हो तो विद्यार्थी जीवन में जाये। उम्र जैसे जैसे प्रभाव दिखाना शुरू करता है सब कुछ क्षीण होता जाता है। ये तीनों आपसी सामंजस्य बैठा ही लेते है। ऐसे ही एक साथी रहे है जो रज गुणों से भरपूर थे। नाम था सत्तू।

सत्तू छरहरा बदन का लड़का था। एम. एस. सी. का विद्यार्थी था, पर जिद्दी बहुत था। हॉस्टल के कॉमन रूम की टी. वी. उसके रूम की शोभा बढ़ाते थे। मजाल की कोई शिकायत कर दे हॉस्टल वार्डेन से। पूरा हॉस्टल उसका महल था। 8-10 चेले थे। पूरी न्यूज उस तक पहुँचती रहती थी। किसी ने विरोध की अगर को़शिश की तो हाथ-पॉव टूटना तय था। क्षेत्रीय होने का लाभ भी था। आज तक के विद्यार्थी जीवन में पहली बार एक ने चैलेंज कर दिया था। सत्तू की शान के खिलाफ। सत्तू ने उसकों लात घूसों से दुरूस्त करने का मन बना लिया था।  प्लान ये बना किं एक लड़का बिजली के मेन स्विच को रात आठ बजे बंद करेगा। पूरे हॉस्टल की लाईट आधे घंटे तक बंद रहेगी। इसी आधे घंटे में विरोधी की पिटाई होना तय हुआ। लाईट अॉफ होने की वजह से वो किसी को पहचान नही पायेगा। निर्धारित तिथि व समय पर मेन स्विच अॉफ हुआ। पीटना शुरू ही किये थे कि वार्डन का निरीक्षण हो गया। मेन स्विच के पास खड़ा लड़का घबरा कर स्विच अॉन कर दिया। फिर क्या था!!! भगदड़ मच गयी। सत्तू और उनका ग्रुप पहचान लिया गया। कार्यवाई हुई। हॉस्टल से उनका पॉव उखड़ गया था...

©️विपिन

मंगलवार, 1 जून 2021

धर्मयुग

अगर आपकी पैदाइश 60 या 70 के दशक में हुई हो और धर्मयुग से परिचित न हुये हो तो धिक्कार है आपकों। जैसे आज भी लोग गीता प्रेस की 'कल्याण' पढ़ने के लिये तरसते रहते है वैसा ही इतिहास धर्मयुग का रहा है। इसका प्रथम अंक 1950 में आया। इलाचंद्र जोशी व सत्यदेव विद्यालंकार इत्यादि के हाथो रहा। मै तो बहुत दिनो तक सोचता रहा ये पत्रिका धर्मवीर भारती की है। पूरक थे दोनो एक दूसरे के। 1950 से 1960 तक जितने पाठक बने सिर्फ 5 वर्षो में ही इसके उतने पाठक बन चुके थे। आज भी उसी साईज की कोई पत्रिका देखता हूँ तो बरबस ही धर्मयुग याद आ जाती है।

@व्याकुल

रविवार, 26 अप्रैल 2020

लट्ठ

गये थे फिरने गलियन में
नाकाबिल है फिरन को

दर्शन करन लट्ठधारन को
लउट आयेन पश्च मालामालन को

मुँह बाँध न पावें बाबा घूमन को
बन हनु उदास लौटे दुआरन को

सूजत मुँह दोष देत भ्रमरन को
करत मन ही मन पश्चातापन् को

मन ललचावत ढेहरी से खेलन् को
चोंगा तरबतर  हुई जात पसीनन को

दिन में देखत सपन को रोना को
पलक उलट गयों अनिन्द्रन को

फँस गयें बीच दिल दिमागन कों
"व्याकुल" है बड़ी उलझन कों

@व्याकुल

रविवार, 12 अप्रैल 2020

सुलेमानी कीड़ा



हमारे एक घनिष्ट मित्र जैसे ही टिवट्रर पर अकाउंट बनाये। उनके सबसे पहले फॉलोअर बने सुलेमानी कीड़ा। मै आश्चर्यचकित हो गया कि उस कीड़े को कैसे पता की यें बड़ा वाला कीड़ा है। शब्दकोशो की छानबीन की तो इसका अर्थ न मिला।

कुछ अपनी बची हुई मंद बुद्धि पर पगलाये दिमाग से सोचा तो लगा 'फटे में ऊँगली करना' से कुछ कुछ मिल रहा।

सुलेमानी कीड़ा नीति नियामक का एहसास दिलाता है जबकि 'फटे में ऊँगली करना' कार्यपालिका की भूमिका में।

जो लोग सुलेमानी कीड़ा के रोग से ग्रसित होते है उनका कोई इलाज नही। बड़े बड़े डॉक्टर हाथ जोड ही लेते है।

प्रश्न उठता है इसके उद्भव का। इसका उत्तर आपको खुद ही खोजना होगा व पहचानना होगा इस महान कीड़े से ग्रसित महानुभावों कों।

अगर बैठे ठाले आप किसी को मुसीबत में डालने मे सक्षम हो जाय या खुद किसी मुसीबत में फसते रहे तो आप समझिये आप इसके विशेषज्ञता की श्रेणी में आ गये है।

हो रहे न आप आश्चर्यचकित। ज्यादा बोलने की गुस्ताखी की तो आपके अंदर का सुलेमानी कीड़ा शिकार न बना ले। फिलहाल आनंद ले हाल फिलहाल के सुलेमानी कीड़ा का।

@विपिन पाण्डेय "व्याकुल"
#सुलेमानीकीडा

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

इलाहाबादी चुनाव

मुझे अपने जीवन का पहला चुनाव याद है जब अमिताभ जी चुनाव लड़े थे इलाहाबाद से । उस समय का एक नारा बड़ा प्रसिद्ध हुआ था..आई मिलन कि बेला .........ऐसे ही कई नारे प्रचलन में आ गये थे..स्कूल मे अध्यापिकाएं सिर्फ अमिताभ कि बात करती थी। प्रतिदिन कुछ न कुछ नयी कहानी कक्षाओं में होती थी। ऐसा लगता था फिल्मी स्टार दूसरी दुनिया से होंगे। बड़ा मजा आता था उन दिनों। मेरे घर के बगल से जया जी की गाड़ी निकली तो सारा मोहल्ला पीछे पीछे। शॉल को बाँह के नीचे से लपेटकर पहनने का फैशन की शुरूआत भी तभी से मानी जाती हैं।  

उस समय चुनाव में मेला जैसा माहौल हुआ करता था। अनाप सनाप खर्च होता था और ध्वनि प्रदुषण अलग से।

अब तो इतनी सख्ती हो गयी है कि पता ही नहीं चलता और चुनाव हो गया .............................

@व्याकुल

बुधवार, 11 मार्च 2020

चापलूसनामा


बड़े बड़े लोग चापलूसों के आगे नतमस्तक रहते है। चापलूस लोग महिमामन्डन मे पीछे नही रहते है। व्यक्ति को एहसास दिला ही देते है किं इस धरा पर आप जैसा शूरवीर नही.. मजाल है कोई दूसरा सही बात कह पाये.. जिसकी सत्ता आने वाली हो या आ चुकी हो उसकी चिंता कर स्थान बना लेते है ये वैसे भी सत्ता से दूर नही रह पाते.. सत्ता से दूर ये ऐसे लगते है जैसे किसी ने इनको बहुत दिन से भूखा रखा हो या गाल पर जोरदार तमाचा जड़ दिया हो.. इनका प्रयास जारी रहता है कैसे घुसपैठ किया जाय.. कुछ सत्तासीन को यही चापलूस लोग ही पसंद है इनके बिना सत्ता कुछ फीकी फीकी सी लगती है..बड़ी बड़ी साहित्यिक रचनायें रच गयी इस चक्कर में.. चालीसा तक लिख डाली लोगों ने..

चापलूसों की भी श्रेणी अलग-अलग होती हैं। कुछ लोग जीवनी लिखने के बहाने नजदीकी बनाते है। कुछ जरूरत से ज्यादा चिंता करके जगह बनाते है। कुछ सतत् उपस्थिति दर्शाकर। 

ऐसे लोगों का आत्मविश्वास भी गज़ब का होता है। चेहरा भी दयनीय बना लेते है। एक बार वरदहस्त प्राप्त हो जाये फिर तो पूछियें मत।

बहुत ही ज्यादा समर्पण कर देते है यें खुद को। अब तो जमाना सोशल मीडिया का है। मजाल है चरण पादूका सर पर रखने का कोई मौका चूक जायें।

इनका पूरा एक ग्रूप है हर पार्टी में है यही गठबंधन में भी अहम् भूमिका निभाते है.. हर पार्टी को अपने लोगों के बीच में से ही चापलूसों को चिन्हित करना होगा..

@व्याकुल

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...