FOLLOWER

शनिवार, 3 मार्च 2018

गॉव

जब से गाँव छूटा
पोखरा और तालाब छूटा
द्वारे क रहटा छूटा
तारा (तालाब) क नहाब छूटा
आती पाती क खेल छूटा
सुरेश क द्वारे सुर्रा पट्टी छूटा
दया क बाबू क राग छूटा
दूसरे क पेड़े क आम छूटा
बबा क कठ बईठी छूटा
 दोस्तन क साथ छूटा
दिन भर क मस्ती छूटा
सुदामा क पुरवा छूटा
सूबेदार क बार (बाल) छूटा
खलीफा क तार छूटा
इस्राइल क बात छूटा
भैंसिया पर बईठई क लाग छूटा
गाव क नाच छूटा
कुकुर क दौडाउब छूटा
उखी क चुहब छूटा
होलिका क चुराउब छूटा
होलई क फाग छूटा
बाबू क डांट छूटा
अम्मा क प्यार छूटा
एक एक कर सब कुछ छूटा
मनई से मनई क प्यार छूटा...
@व्याकुल

सोमवार, 26 फ़रवरी 2018

हिंदी

हिंदी हमारी मातृ भाषा है पूरे हिंदुस्तान सबसे ज्यादा बोली जाने वाली व समझी जाने वाली भाषा है। यह गौरव की बात है की हम सब हिंदी दिवस मनाते है वो भी एक दिन.. ये तो वही बात हो गयी की माँ को साल में एक दिन खूब पूजिए फिर उनकी उपेक्षा वर्ष भर करिये.. 

वो ठीक है तकनीकी के अनुप्रयोग में कुछ समय लग सकता है चीन कहता भी है आप तकनीकी का तुरंत अनुप्रयोग कर लेते हो पर मेरे यहाँ भाषा की समस्या है वो सिर्फ अपनी भाषा में ही चीजों को ढालते है जापान की उन्नति को कौन नकार सकता है ऐसे ही फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश इत्यादि.. 

यह जानकर आपको अत्यधिक आश्चर्य होगा की अंग्रेजी के बाद आज भी स्पेनिश में वैज्ञानिक लेख छपते है.. हमारा मानक ठीक उलटा है अपनी भाषा में छपी हुई विज्ञानिक लेख को संदेह की दृष्टि से देखते है और कम आंकने का कुत्सित प्रयास करते है.. क्यों ना हम सभी वर्ष भर हिंदी दिवस मनाये तभी हम अपनी भाषा और अपनी मातृ पर गर्व कर पाएंगे 

@व्याकुल

जयंती

गांधी जयंती हो गयी.. कुछ तो छुट्टी मना कर खुश हुए.. कुछ अच्छे प्रवचन से.. कुछ दुखी इस बात से है की कल फिर ऑफिस जाना है.. त्याग समर्पण सब दुसरो के लिए है.. अच्छी अच्छी बाते करना संभव है.. हकीकत में करने का प्रयास किया तो लोगो के लिए बेवकूफ .. कई बार खुद भी प्राश्चित की भूमिका.. ये क्या कर रहा हु.. अब कौन सिद्धांतो में जी रहा है सब स्वार्थ परस्त जीवन में लिप्त... परेशान कौन हो रहा है.. आपके अंदर की सत्यता को जान रहा है.. झूठ का प्रदर्शन ऐसे करो सत्य भी शर्मा जाए... किसी को इतना मजबूर कर दो भटक जाय.. तुम्हारे जैसा हो जाय झूठा... फिर आराम से खेलो.. 

@व्याकुल

नाम

एक बात तो समझ में आती है की सिर्फ नाम अच्छे हो जाने से ही प्रसिद्धि नही मिलती... कभी कभी यह देखने में आता है इतिहास में खलनायक के रूप में प्रसिद्द व्यक्ति का नाम रखने से भी कुछ अच्छा हो जाता है.. लोग नामकरण को लेकर परेशान रहते है... नाम कुछ भी रखिये संस्कार जबरदस्त होने चाहिए... मेरे यहाँ एक विद्यार्थी जिसका नाम दुर्योधन था, बड़ा ही शर्मिला था, जब पूूँछू ये नाम क्यों रखा, हमेशा बोलता सर नाम में क्या रखा है... 

चिढ़ाने के लिये कोई भी नाम रखा जा सकता है... रावण.. कंस इत्यादि इत्यादि। किसी से खफा है तो पक्के तौर पर खलनायक नामों से नवाजते है। एक शख़्स तो अपने ही पिता से इतना चिढ़ते थे कि उनका नाम डॉ डैंग ही रख दिया। ये नाम शायद किसी फिल्मी खलनायक का था। फिल्मी खलनायकों के नाम भी गज़ब ढाते है। गब्बर को ही ले लीजिये। गब्बर नाम कोस- कोस ही नही देश-देश में चल निकला।

हमारे एक मिलने वाले अपने पड़ोसियों के नाम लालटेन-ढिबरी रखे थे।अब बताइयें क्या करेगा पड़ोसी...

भाई अब कानपुर में ठग्गू के लड्डू की ही बात कर लो.. इसमें बुराई क्या है.. जबरदस्त व्यवसाय चल रहा है.. बदनाम चाय ही देख लो काकादेव का.. बुरा नाम रख लो कंस,दुर्योधन, या इस टाइप से कुछ भी.. अगर आप सफल हो गए तो इन नामो को भी मोक्ष मिल जाएगा.. 

@व्याकुल

बुद्धुबक्सा

1984 - 85 की इलाहाबाद की वो शाम आज भी याद है जब खेल के मैदान में पहुचा था तो पूरा सन्नाटा था.. पता लगा की सभी साथी कुमार मंगलम चतुर्वेदी (जो मुझसे बड़े और एक कक्षा आगे थे ) के घर टीवी देखने गए है.. मैं भी पहुच गया.. सभी लोग जमीन पर बैठे फ़िल्म देख रहे है..अद्भुत था वो दृश्य और आज भी नही भूलता... शारीरिक स्वस्थ्यता एक बड़ा प्रश्न रहा है.. फिर कभी उतनी भीड़ नही देखी खेल के मैदानों में.. लोग कम होते गए.. मुझे तो अब भी बड़ी अभिलाषा है.. उसी कब्रिस्तान, जो कभी हम लोगो के लिए खेल का मैदान हुआ करता था, वापस आ जाय.. हम लोग.. बुनियाद.. वाह जनाब.. जैसे टी. वी. सीरियल अपनी धाक जमा रहे थे.. रविवार की सुबह आँख खुलते ही चित्रहार पर अटक जाती थी.. फिर शुक्रवार की रात में फिल्मों का सिलसिला शुरू हुआ..बुद्धुबक्सा की बात बिना रामायण व महाभारत के की ही नही जा सकती... सन्नाटा पसर जाता था गॉवों में.. शोले फिल्म का डॉयलाग याद आ जाता था.. "इतना सन्नाटा क्यों है भाई..."

कितने पुरानी फिल्मों पर दिल अटक जाता था.. अभी तक हैंगर की तरह वैसे ही अटका हुआ है...

@व्याकुल

हाला

(कॉलोनी के सामने मधुशाला। बगल में स्कूल व सामने विश्वविद्यालय)

मेरे कॉलोनी के सामने वाली सड़क पर अचानक निगाह गयी.. देखता रह गया .. इतनी भीड़.. वहाँ कभी रेस्टोरेंट हुआ करता था.. जहाँ शायद ही कभी भीड़ दिख जाए.. देखा तो पता चला की बच्चन साहब की हाला रंग जमाये हुए है.. क्या बूढ़े क्या जवान.. सभी अपने ख़ुशी और गम को एक ही जंक्शन पर आदान प्रदान करते देखे जा सकते है.. इशारों इशारों में बात करते.. कुछ बड़े लोग गाड़़ियों में ही बैठकर अपने चेले से सहायक सामग्री मंगाकर रसपान कर रहे है.. बगल में बैठी सरस्वती कुढ़ती हुई झांकने का प्रयास करती की इसी मधुशाला पर कितनी बार कविता पाठ हो गयी और विद्वता अपने गहरे सागर में गोते लगाई..आज इसी सरस्वती को इस दुर्दशा.. कितनी बार कहा जा चुका है मन पर नियंत्रण नही तो कुछ भी नही। अब मन को एकाग्रता का इतना अचूक साधन.. विद्यार्थियो को 'काक चेष्टा बको ध्यानम्' जैसा मूल मन्त्र के इससे कारगर उपाय.. एक बार जो लत लगी फिर भटकने की आवश्यकता नही..सिर्फ और सिर्फ इसी की धुन फिर तो कुछ भी संभव.. भटकने का सवाल ही नही.. बाल स्कूल तो है ही ..वही से लत लग गयी तो तकनीकी विश्वविद्यालय तक तो गूँज रहेगी ही... 
@व्याकुल

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...