FOLLOWER

गुरुवार, 30 दिसंबर 2021

कथरी

घुटने को माथे तक सिकोड़ ली

गरीब की कथरी जब पैरो से सरक गयी...

आँसु बेसुध से बह गये

रोटी की भूख से जब पड़ोसी तड़प गये...

माथे की लकीरे बयाँ कर गयी

खेत की बेहन जब दगा कर गयी...

फंदा तलाशता रहा रात भर

वो भी मुझसे दगा कर गयी...

नजरे चुरा फिरता रहा 'व्याकुल'

खेत रेहन से जो उलझ गयी...

@व्याकुल

शनिवार, 25 दिसंबर 2021

महामना अटल से

अटल दोनो थे

महामना भी..

मालवा की

निशानी भी..

नक्षत्र एक थे

बँटे हुये काल के..

मानक थे

उन विधाओं के..

शिक्षा को 

नभ सा

विस्तार देते..

या

नव आयाम

देते

क्षुद्र होती 

राजनीति

ऊठा-पटक कों..

नमन उन

धीर नमना को..

करू प्रणाम

अटल युक्त

महामना

व 

महामना सा

अटल को...


@व्याकुल


शनिवार, 18 दिसंबर 2021

शादी की उम्र

38 वर्ष(1891 से 1929) लगे 12 से 14 वर्ष होने में... 20 वर्ष (1929 से 1949) लगे 15 वर्ष होने में... सिर्फ छः वर्ष यानि 1955 में 18 वर्ष की गयी... 66 वर्ष लग गये 21 होने में... भारतीय समाज में पहले बच्चों की संख्या ज्यादा होने से शादी पर विशेष फोकस होता था जिससे माँ-बाप जल्दी उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाये.. अधिकतर लड़कियाँ प्राथमिक तक ही सीमित हो जाती थी... इसलिये शादी की उम्र सरकार क्या निर्धारण कर रही.. कोई ध्यान नही देता था। दक्षिण भारत का नही पता पर उत्तर भारत में 30-35 वर्ष पहले तक लड़कियाँ 18 वर्ष से पहले तक व्याह दी जाती थी।शिक्षा का प्रसार व ललक बढ़ने के साथ ही घर से बाहर लड़कियों के निकलने की शुरुआत हुई। प्रेम विवाह के ही समय न्यूनतम  देखा जाने लगा किं कैसे विवाह को अवैध घोषित किया जायें। अब 21 वर्ष होने से इस उम्र से पहले तक प्रेम विवाह करने वालों पर आफत आयेगी। न्यूनतम उम्र बढ़ने का पता नही समाज में इसका क्या असर होगा...कुछ कह पाना मुश्किल होगा...वैसे अमेरिका, फ्रांस व जर्मनी में न्यूनतम आयु 18 वर्ष है जबकि ब्रिटेन जैसे देश में 16 वर्ष। इन विकसित देशों में इतनी कम आयु (खासकर ब्रिटेन में) होने का मतलब वहाँ कम आयु मेें ही बच्चों का परिपक्वता प्राप्त कर लेना ही दर्शाता है। अच्छी बात ये है कि लड़का या लड़की की न्यूनतम आयु में जेंडर आधारित कोई भेदभाव नही किया गया है।बहुत से एशियाई देशों में आज भी जेंडर के आधार पर आयु में विभिन्नताएं मिल जायेंगी।  खैर इससे संबंधित समिति ने 16 विश्वविद्यालय के छात्रों से प्राप्त फीडबैक के आधार पर अपनी संस्तुति दी थी।

@व्याकुल

गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

उपभोक्तावादी संस्कृति

विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान कभी-कभी चर्चा का विषय सुष्मिता व ऐश्वर्या रहती थी। कई तरह के तर्क सुनने को मिल जाया करते थे। आखिर इन भारतीय सुन्दरियों में क्या खूबी रही जो इनको विश्व स्तर पर पहचान दिला रहा था। ये दोनो 1994 में विश्व सुन्दरियां चुनी गयी थी। भारत भी आर्थिक उदारीकरण के दौर से गुजर रहा था जिसकी शुरुआत 1991 से हो चुकी थी। ये समझने में समय लग रहा था कि आखिर भारतीय बालायें सुन्दर हो रही थी या उपभोक्तावादी संस्कृति की नींव पड़ रही थी। समय के साथ समझने में देर नही लगी कि ये सौन्दर्य प्रशाधन के प्रोत्साहन का भी परिणाम हो सकता है व बाकी लड़कियों के लिये ऐसे प्रोडक्ट का प्रयोग करने हेतु उत्साहवर्धन का भी कार्य कर सकता है जो दिखावे की संस्कृति व भोग की संस्कृति की ओर समाज को ले जाने वाला है।

हरनाज संधु का 2021 में मिस युनिवर्स चुना जाना निःसंदेह 1994 के दौर में जाने- अनजाने में ले गया। दुनिया में महिलाओं की कुल आबादी 387 करोड़ है, जिसमें से 15% महिलाएं युवा हैं। जिनमें 18% भारतीय महिलायें है। अब इससे बड़ा बाजार कहाँ मिलेगा?????

@व्याकुल

मंगलवार, 7 दिसंबर 2021

धूमिल गलियाँ

पुरानी गलियों या मोहल्लों में जाने पर नजरे कुछ-कुछ झुक जाती है। 45 डिग्री का कोण बना लेती है। निशान ढूंढ़ने लगती है। कुछ तो मिले। सड़क किनारे के चबूतरे ही मिले जहाँ कभी स्कूल से आते बैठकर थकान मिटाते थे। आइसक्रीम वही तो बैठकर खत्म होती थी। घर आकर सिर्फ नाटक करना होता था बहुत तेज भूख लगने की। उसी चबूतरे पर किसी बुजुर्ग को सुबह चाय को अखबार के साथ सिप करते हुये भी देखना सुखद होता था। अब तो शायद ही किसी मोहल्ले में 75 वर्ष से ऊपर के 10 बुजुर्ग मिल जायें नजरे बोझिल हो उठती है जब उसे कुछ नही मिलता। आँखे मला जाता है फिर से नजरों को साफ करने के लिये। याद आता है ये तो वही चबूतरा है जहाँ हीरो फिल्म की कहानी खत्म हुई थी। शोले फिल्म की कहानी तो हनु ने इसी चबूतरे पर किश्तो में सुनाई थी। 


भूले से कोई शख्स मिल ही जाये अगर तो जैसे हीरा मिल गया हो। हर बाते होने लगती है। हर शख्स मेें बचपन अपनी परछाई ढूढ़ता है। बुढ़ापे ने तो जैसे खुदखुशी कर रखी हो। सेतू ही न रहेगा तो पीढ़ियाँ जुड़ेंगी कैसे.....

सदियों का सफर दिनों में कैसे कट जाता है। कुछ निशानी तो हो जिसे लपेट लूँ.... कुछ वर्ष पहले पिताजी कोलकाता गये थे.. नीरसता ही हाथ लगी थी.. इंसान तो क्षणिक है भूगोल तो नही.. फ्लाईओवर से कैसे तलाशेंगे जमीं की हकीकत.... नजरे धोखा खाती रही...

डलिया पर मकोई रखे रामू काका ही दिख जाते जिसे खाते ही एक बार मूर्छा आ गयी थी या स्कूल के साईकिल स्टैंड पर बनवारी जिन्होंने कत्था खाते देखते ही बोला था, " गया मर्द जो खाये खटाई"

गलियाँ बड़ी हुआ करती थी... "बोनतड़ी" अब कैसे खेलेंगे....बाहर गाड़ियों ने अड्डा जमा लिया... गलियों के किनारे खड़े पुराने मूक मकान असीम सुख दे जाते है अब जैसे कह रहे हो तुम्हारे नाली से निकले गेंदो के निशानों को मैने अब तक संभाल रखा है.....

@व्याकुल

मंगलवार, 23 नवंबर 2021

जाल

सदियों

की शोषित

परम्परा

जाल का 

खेल

कौन 

नही बुनता..


और

शिकारी

टकटकी

लगाये रहता

फिर 

मादकता 

से

चमक उठता

मांसल से

देह का..

@व्याकुल

बुधवार, 17 नवंबर 2021

बिग बॉस

शिल्पा शेट्टी पर हुये बवाल के बाद हिन्दुस्तान में बिग ब्रदर जैसे किसी कार्यक्रम की जानकारी आमजन को हुई थी। तब इस तरह के कार्यक्रम विदेशों तक ही सीमित थे। 'बिग बॉस' 'बिग ब्रदर' का भारतीय वर्ज़न है. वहीं 'बिग ब्रदर' में ही एक्ट्रेस शिल्पा शेट्टी को 2007 में रंगभेद का सामना करना पड़ा था। इसका प्रचार प्रसार विश्व के 42 देशों तक फैल चुका है।

2007 में बिग बॉस ने भारत में शुरुआत की। अब ये घर-घर तक घुसपैठ कर चुका है। साल के तीन महीने सब समीक्षा में लग जाते है। कौन कैसा खेल रहा... किसके जीतने की सम्भावनाये है..कौन फाईनलिस्ट होगा.. इत्यादि इत्यादि।

अच्छे खासे पढ़े- लिखे लोगों के रिव्यु करते दिख जायेंगे.. अगर आपकी प्रवृत्ति ताक-झाँक की है तो ये कार्यक्रम निश्चित रूप से पसंद आयेगी जैसे- कौन किसके साथ फ्लर्ट कर रहा... कौन कैसी चुगली कर रहा... कौन नारद की भूमिका में है... कौन शब्दों से पलटी मार रहा.... सामान्य जीवन में ये सब प्रत्यक्ष रूप से देख नही पाते है। यहॉ ये सब कैमरा दिखा देता है।

प्रपंच न हो तो जीवन कैसा- मसाला भरा न हो जीवन में तो जीवन कैसा- प्रपंच ऐसा कि सब दिख रहा पर जैसा जीवन जी आये उससे मुक्ति कैसे हो। प्रवाह में बह ही जाना है...अहं बहता है गाली-गलौज व अपशब्दों में। दर्शक आँखे फाड़ कर खिखियाता है और बच्चों में नये संस्कारों का इंजेक्शन धीरे से घुसपैठ बना लेती है....

@व्याकुल

शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

ज्येष्ठाश्रमी

"दूध का उबलना" एक सटीक बहाना होता था पत्नी को शहर अपने साथ ले जाने के लियें। कुछ लोंग हाथ जला लेते थे। मॉ-बाप पत्नी को साथ ले जाने की अनुमति दे ही देते थे किं ये समझते हुये कि ये बहाना बना रहा। 

कुछ तो मुँह ऐसा बना कर घर आते थे जैसे सालों से खाना न खाया हो। ये संकेत होता था लड़का व्याकुल है बाहर साथ ले जाने को।

मूलतः ये समस्या संयुक्त परिवार में ज्यादा होता था। बड़े-बुजुर्गो को भी डर लगा रहता था कहीं बच्चें बाहर जाकर बिगड़ न जायें। पाबंदी होती थी पर अभिनय में सफल में हो गये तो समझिये काम बन गया।

मेरे साथ तो सही में एक घटना हो गयी थी। पत्नी प्रयागराज थी। सुबह दूध गर्म करने को रखा था। अॉफिस निकलने के समय तक याद ही नही रहा। दूध, भगोने सब जलने लगे। मकान मालिक क्या करते बेचारे???तब मोबाइल फोन का चलन भी नही था। टेलीफोन डायरेक्टरी में एच. बी. टी. यू. का नं. खोजा गया। मेरे डायरेक्टर का फोन मिला। उनके पी. ए. को फोन पर सूचना मिला। मुझे व्यंगात्मक लहजे में बताया गया, "क्या गुरु, कहाँ भगोना जला रखे हो" मुझे मामला समझ आ गया। तुरंत घर आया। धुँयें से घर भर गया था।

तभी से लापरवाही का ठप्पा लग गया था। किचेन कार्य से मुक्ति भी मिल गयी थी।

खैर!!!! आप सभी ऐसा जोखिम न लीजियेगा....

@व्याकुल

बुधवार, 10 नवंबर 2021

अलगौझी

भैया बम्बई जबसे कमाने गये, भाभी के तो जैसे पंख लग गये। भैया गॉव छोड़कर कही नही जाना चाहते थे। वे खुश थे अपने बाप-दादाओं की जमीन पर। स्वाभिमान की रोटी खाना उन्हे पसंद था। कहते थे जितनी मेहनत हम दूसरों के लिये करेंगे उतना मेहनत अपने गॉव में रहकर करना पसंद करेंगे। 

भैया दर्शन शास्त्र से परास्नातक थे। विश्वविद्यालय स्तर पर गोल्ड मेडलिस्ट थे। पढ़ाई के बाद गॉव का मोह उन्हे खींच लाया था। 

भाभी को बहुत परेशानी थी। कहती रहती निठल्ले जैसे पड़े रहते हो। मेरे पिता ने किसी निठल्ले से शादी नही की थी। दिन भर ताना मारा करती थी।

अपने दोस्त सुरेश को देखिये। मुम्बई में बच्चे साफ-सुथरे कपड़े पहनते है। बाहर खाना खाते है और आप यही कथरी ढोते रहिये।

भैया मजबूत इच्छा शक्ति वाले थे। कोई फर्क नही पड़ता था उन्हे।पढ़ाई  के दौरान प्रो. रामकृष्ण ने कई बार उनसे कहा भी था, "निखिल बेटा, पी. एच. डी. भी कर लो।" पर निखिल कुछ और ही सोचे बैठा था।

आज सुबह से ही भाभी घर सर पर उठा रखी थी। बर्तनों को पटकने का दौर जारी थी। जिद्द पकड़ ली थी बाहर कमाने के लिये। बोली,  "मै इतने लोगों का खाना नही बना सकती।" भाभी के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था। डर के मारे पिता कुछ नही बोले थे। भैया बेचारे क्या करते!!!!!

अगली सुबह ही भैया बैग लटकाये बम्बईया ट्रेन से मुम्बई चले गये थे। भाभी के खुशी का ठीकाना नही था। सुरेश की पत्नी जैसा जीवन जीने का मौका मिलेगा उसे। 

निखिल भैया के मुम्बई जाने के बाद भाभी का जो मन होता वही करती।


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निखिल के मुम्बई जाने के बाद से ही पिता घर की कलह सह न पाने की वजह से चल बसे थे। छोटा भाई अखिल पर जैसे दुःखों का अम्बार टूट पड़ा था। भाभी भैया के एक-एक पैसे का हिसाब रखने लगी थी। पिता के जाने के बाद सारे परिवार की जिम्मेदारी अखिल पर आ गयी थी। भैया का परिवार से कोई मतलब नही रह गया था। 

अखिल सुबह 3 बजे उठ कर चौराहे पर पहुंच जाता था जिससे अखबार की फेरी लगा सके। उससे सबसे ज्यादा चिन्ता छोटी बहन के ब्याह की थी।

अखिल सेठ के घर दरवानी (चौकीदारी) की नौकरी करने लगा था। जब मौका मिलता कुछ न कुछ पढ़ता रहता। प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठता। 

बहन-मॉ का कष्ट देखा नही जाता था अखिल को। जो मेहनत करके कर सकता था करता रहता। निखिल भैया या भाभी से कुछ कह नही सकता था। 

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भैया को मुम्बई से आये चार दिन हो चुके थे। आज तक बात करने को किसी को मौका नही मिला था। भाभी बात करने का मौका ही नही देती थी। निखिल भैया भाभी के सामने आत्मसमर्पण कर चुके थे।मजाल है कोई बात कर ले। 

आज सुबह फेरी लगाकर आने के बाद से ही भैया मॉ के पास बैठे थे। मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। पर थोड़ी देर बाद मॉ के सुबकने की आवाज सुनाई दे रही थी। 

भैया कठोर हो चले थे। थोड़ा बहुत आवाज जो सुनाई पड़ रही थी। कह रहे थे, "अब अलगौझी (बँटवारा) हो जाना चाहिये"

मै हतप्रभ था। घर बँटा नही था पर मानसिक तौर पर दूरी तो पिता के अवसान के बाद से ही बन गया था। भैया अगर न भी कहते अलग होने को तो भी दिल के टुकड़े तो बहुत पहले ही हो गया था। ये घोषणा की क्या जरूरत थी।

आज सुबह से ही सारे घर में शांति थी। सारे घर के सदस्य उदास लेटे हुये थे। बीच-बीच में भाभी के चहकने की आवाज शूल जैसा चुभ जाता था।

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आज अखिल का चयन बैंक में हो गया था। खुशियाँ किससे बाँटता। खुशियाँ भी अलगौझी का शिकार हो गया था। भैया सुबह से दिख नही रहे थे। पैर छू कर आशीर्वाद लेता पर उनके कमरा का ताला लटका मिला। पड़ोसियों ने बताया था भाभी-भैया मुम्बई चले गये। खुशियाँ बार-बार आँखों पर आँसु बन टपक जाता। 

पिता बारम्बार याद आ रहे थे। 

मन रो पड़ा था। 

हाय रे अलगौझी!!!!!!!

@व्याकुल

रविवार, 7 नवंबर 2021

नमकीन फिल्म

कई दिनों से फेसबुक के वीडियों सेक्शन में एक फिल्म के क्लिप दिख रहे थे। संजीव कुमार के अभिनय का शुरू से ही कायल रहा हूँ। फिल्म का नाम था - "नमकीन"

रात 11 बजे मूड बना कि ये फिल्म देखी जाये। 2 घंटे 9 मिनट की फिल्म रात 1 बजे तक देखी गयी। 

एक बेहतरीन फिल्म। शबाना आजमी की एक्टिंग गजब की है। आधी फिल्म तक पता ही नही चला वों गूँगी है। जब हीरो को बताया गया तभी पता चला। वैसे भारत में दूरदर्शन की क्रांति 1984 में आयी थी। तभी ज्यादातर पुरानी फिल्में देखी थी। ये फिल्म 1982 की है। शायद तब नयी होने की वजह से दूरदर्शन पर न दिखायी गयी हों। वहीदा हो या शर्मीला.. सभी बेहतरीन अभिनय करते दिखे। 

हर उन छोटी-छोटी चीजों को दिखाना जो हम अपने प्रतिदिन के जीवन में करते है फिल्म की यही विशेष खाशियत है जैसे- बिजली का स्विच अनजाने में ऑन कर देना जबकि पता है बिजली का कनेक्शन ही नही है या खाते वक्त खुले व खाली टिफिन को संभाले रखना।

मजबूरी व्यक्ति की दशा और दिशा दोनो बदल देता है। आशा की किरण थोड़ी दिखायी दी थी पर हीरो के घर छोड़कर चले जाने से रही सही कसर जाती रही। गरीबी व असहाय से दुःखी व्यक्ति को जो करना था वही किया। एक का प्राणांत व दूसरी का नौटंकी में काम।

अब इंतेजार है दूसरे फिल्मी क्लिप का....

@व्याकुल

ओरहन

वैसे ऐसा कभी कोई काम नही किया जिसमे कभी किसी ने मेरी ओरहन (शिकायत) की हो। बचपन में एक गुस्ताखी की थी वों भी एक भईया ने कहलवाया था। 

छत पर बैठा हुआ था। थोड़ी दूर के छत पर टहलते हुये एक सज्जन डी. एम. कहने से चिढ़ते थे। मै चिल्ला कर बोला था "डी. एम."

मुझे देख तो नही पाये थे पर समझ गये थे इसी मकान से किसी ने संबोधन किया है। तुरंत ही घर आये। बड़ो से शिकायत की। घर के सब बच्चों को बुलाकर डांट लगाया गया।

कुछ दिनों बाद किसी ने बताया किं "देहाती मग्घा" का संक्षिप्त रूप है "डी. एम."

उनके चिढ़ने की शुरूआत कैसे हुई- ये पता नही चला। 

फिलहाल अब वों हमारे बीच नही है। नमन उनकों।

@व्याकुल

बुधवार, 3 नवंबर 2021

दीपावली


घटनायें कभी-कभी बड़ी सीख दे जाती है। अनुभवहीनता भी घटनाओं को जन्म देता है। दिवाली के दिन की घटना है। मै ममेरे भाई, जो मुझसे 3-4 वर्ष छोट होंगे, के साथ रॉकेट छुड़ाने जा रहा था। तब मै 8-10 वर्ष का रहा था और वह 6-7 वर्ष का। गोल-मटोल था वह। भैया, ये रॉकेट छुड़ा दीजिये। हम लोगो ने खाली बोतल का इंतजाम किया। छत पर कोई और नही था। रॉकेट को बोतल में डालकर माचिस लगाई। मेरे तो जान निकल गयी थी। रॉकेट के दिशा को देखा ही नही था। वो उसके बाल को छूते निकल गयी थी। मेरे हाथ-पाँव सूज गये थे। बहुत दिन तक परेशान था कि अगर वह रॉकेट उसके चेहरे से टकरा जाता तो क्या होता??? और वो हँसते मुस्कुराते चला गया था किं मैने रॉकेट छुड़ाया। उसे शायद आभास ही नही था कि एक बड़ी दुर्घटना से वो बच गया था। 

आज तक कभी किसी से शेयर करने से डरता रहा। बच्चों को जब भी पटाखे दें साथ जरूर बैठे। थोड़ी चूक जिन्दगी भर की मुसीबत बन सकती है। उस घटना के बाद जब भी पटाखे छुड़ाने जाता पूरी सुरक्षा का ध्यान रहता।

कोई ऐसी दिवाली नही जब मैने उस घटना को याद न किया हो। मजे की बात आज वो भाई इंजीनियर है और अमेरिका मेट्रो में अपनी सेवायें दे रहा।

@व्याकुल

रविवार, 31 अक्तूबर 2021

एकता


सारे मोहल्ले में कोहराम मचा हुआ था धूँ धूँ कर घर जल रहे थे। दंगाई लूट में लगे हुए थे। उन्हें लग रहा था कितना ही सामान लूट ले। कुछ सामानों को जलाने में लगे हुए थे, कुछ और भी गिरी हुई हरकतें कर रहे थे। 

मेरा घर मोड़ पर था। एक महिला अपने दो जवान बेटियों को लेकर भागी थी। मेरा घर मोड़ पर होने की वजह से जैसे ही वो सब दंगाइयों की आंखों से ओझल हुई बड़ी तेजी से उन लोंगो ने मेरा घर का दरवाजा खटखटाया था। मेरी माँ ने तुरंत ही गेट खोल कर उन माँ बेटियों को घर के अंदर सुरक्षित कर लिया था। वो सब बुरी तरह से डरी हुई थी। दंगाई जैसे ही मोड़ पर मेरे घर पर पहुंचे उनको ये लोग नहीं दिखे।

हताश दंगाइयों को जब कोई नही दिखा वो सब लौट चुके थे।

अब बड़ी समस्या थी उनको उनके स्थान तक पहुँचाना। मेरी माँ ने उस महिला से पूछा था 

"आपको कहाँ पहुंचा दिया जाए" 

उस महिला ने बड़े ही मासूमियत से जवाब दिया था पास के ही पूजा स्थल तक छुड़वा दीजिए। 

माँ बड़ी ही दयालु थी उन्होंने मुझे आदेश दिया था "बेटा, गंतव्य स्थल तक पहुंचा दो।"

मैंने भद्र महिला, जो शायद विधवा थी, को उनके पूजा स्थल तक पहुंचाया। उनकी आँखों में आंसू था। शायद उन्हें अपनी जान से ज्यादा परवाह अपने बेटियों की इज्जत की थी।

मानवीय दृष्टिकोण से ही एकता का रास्ता जाता है। धर्म की कट्टरता मानव का सबसे बड़ा दुश्मन है सही धर्म कभी भी मानवता को चोट नहीं पहुंचा सकती।

मेरी आयु तब 12-13 वर्ष की रही होगी। लेकिन उस दिन की घटना आज भी मेरे मन में तैरती रहती है। मन में सिहरन सी मच जाती है ये सोचकर किं वों पुत्रियाँ अगर दंगाइयों के हाथ लग जाते।

दंगाइयों का उपद्रव तभी शांत हुआ जब सेना ने फ्लैग मार्च किया लेकिन तब तक बहुत ही नुकसान हो चुका था।

उसके बाद फिर शायद ही कभी दिखे हो वो सब। एकता दिवस में जेहन में ये पुरानी घटना उतर आयी।

मर्यादा और सम्मान ही इंसानों को एकता का पाठ पढ़ा सकती है।

@व्याकुल

शनिवार, 30 अक्तूबर 2021

अबे!!!!

एक चौराहे पर "Obey the rules" पंक्ति देखी.. दिमाग पर जोर आया... obey शब्द तो किसी चिर परिचित शब्द से मिलता जुलता है.. एकाएक स्मृतियों के किसी कोने से 'अबे' की आवाज आई। अवध के किसी भी शहर यानि प्रयागराज, लखनऊ कही भी चले जाइये 'अबे' शब्द की धूम का पता चल जायेगा। फिर क्या था गुस्सा होने की बजाय मुस्कुराहट ने स्थान ले लिया। अंग्रेजो पर गुस्सा बहुत आ रहा था। पर जैसे मुझे उत्तर मिल गया हो। 'अबे' बड़ा पावरफुल शब्द है। अगर किसी ने बोल दिया 'अबे'... उसके बाद आगे कोई और शब्द बोलने की जरूरत नही.. इस एक शब्द में इतनी शक्ति छुपी हुई है कि कुछ ज्यादा समझाने की जरूरत नही। कही-कही इसका भी अपभ्रंश हो गया जैसे 'कस में' 'अबे' से 'बे' और फिर 'में' में रूपान्तरण। सामने वाले ने 'अबे' को ठीक से समझ लिया तो समझो काम पक्का.. इस शब्द को बोलने के साथ ही साथ अगर आँखे लाल है तो समझो सामने वाले की ह्रदयागति कब रूक जाय कुछ नही कह सकते। अंग्रेजो का अपना दिमाग शब्दकोष के मामले में तंग था.. चुरा लिये हमारा शब्द.. a (abey) को o(obey) कर दिये.. उनका काम हो गया..

चिरकुटई की भी हद होती है..


@व्याकुल

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2021

कनक

कनक-कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय, या खाये बौराय जग, वा पाये बौराय।

बचपन में अलंकार पढ़ते समय उक्त पंक्तियाँ रट ली थी।धतुरा तो गॉव में एक पड़ोसी को खाते देखा था। चार दिन तक बुत पड़े रहे वों। उनकी माई सारे संगी-साथी को गरियाती रही थी।  कम समय में ही पहले वाले कनक का अनुभव हो गया था। 

दूसरी वाली कनक तो ज्यादा खतरनाक थी। वैभव से जुड़ी चीज थी। समझने में समय लगा। गॉवों की शादी में कलेवा का परम्परा है। बौराने का प्रत्यक्ष उदाहरण कलेवा के समय देखा। दुल्हा रिषिया गया था सोने की चेन के लिये। बड़ा मनवनिया हुआ तब जाकर सब खत्म हुआ।

फिर तो जिनकों सोने की चेन मिली वो बुशर्ट या कुर्ते के ऊपर की बटन खोलकर लापरवाही वाले अंदाज में चेन निकाल देते थे जिससे लोगों को उनके बौराने का अंदाज लग जायें।

कुछ वर्ष पहले कानपुर में एक मजेदार घटना हुई। किसी बाबा ने घोषणा कर दी थी कि फलां जगह खुदाई की जाये तो सोने का भंडार मिलेगा। सरकार लग गयी थी खुदाई में। सारा हिन्दुस्तान बौरा गया था।

देख लीजिये कही आप में बौराने का कीड़ा तो नही लग गया..........

@व्याकुल

बुधवार, 13 अक्तूबर 2021

न्याय


महँगा

न्याय 

अमीरी चासनी में 

डूबा हुआ

बचे कतरन

पर निहारते

पसारते

गरीबी...


©️व्याकुल

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2021

डर

निडरता बहुत आवश्यक है जीवन में। अगर आप डर गये तो समझिये गये काम से। डर आपका आत्मविश्वास छीन लेता है। 

समाज में जो लोग अग्रिम पंक्ति में है वो कही न कही अपनी निडरता की वजह से। हम आधे से ज्यादा समय इस बात पर निकाल देते है कि लोग क्या कहेंगे। इस प्रकार की चिंता ज्यादातर मध्यम समाज में होता है।

एक प्रकार का और भी डर देखने को मिल जाता है। ये है कल्पना कर लेना कि मेरा नुकसान हो रहा या इस व्यक्ति से नुकसान हो सकता है। फिर उसी के इर्द गिर्द ताने बाने बुन लेना। 

अध्यात्म की दृष्टि बहुत जरूरी होती इस डर से उबरने के लिये। इसमे खोने जैसा कुछ नही होता। सब यहीं पाया है कुछ खो भी दिया तो क्या हुआ।

मुझे तो अपने ताऊ जी से बहुत डर लगता था। बड़ी-बड़ी मूँछें, कड़क आवाज। एक बार निडर होकर मित्रवत क्या हुये डर का पता ही नही रहा। पता नही क्यो मीर असर ने ऐसा क्यो कहाँ..

तू ने ही तो यूँ निडर किया है

बस एक मुझे तिरा ही डर है

जो लोग किसी को निडर करते है उनके लिये मन में सम्मान का भाव रहता है। किसी एक के लिये भी आपके मन डर का भाव है तो आप निडर नही हो सकते।

मेरी तो ख्वाहिस है कोई कह दे जैसा तनवीर देहलवी जी कहते है..

साए से चहक जाते थे या फिरते हो शब भर

वल्लाह कि तुम हो गए कितने निडर अब तो



एक बार रात 12 बजे अकेले स्टेशन से अपने गॉव पैदल चला गया था। कुत्तों के भूँकने में डर दिख रहा था। मै था, मेरा साया था चाँदनी रात में और मन में हनुमान चालीसा....

@व्याकुल

रविवार, 3 अक्तूबर 2021

फिल्मी स्टार व राजनीति

फिल्मी स्टारों का राजनीति में आना हमेशा से ही रोचक रहा है। मै थोड़ा बहुत समझने लायक हुआ तो अमिताभ को राजनीति में पाया। इनके चुनाव प्रचार में पूरा परिवार सम्मिलित रहा है। जया जी माथे पर चश्मा चढ़ाये वोट माँगते हुये। पब्लिक को जया जी के शब्द सुनाई कहॉ देता था। वोट की परिभाषा तो वो जानते ही थे। वो तो गुड्डी को देख रहे थे। हेमवती नंदन बहुगुणा को हरा पाना कोई आसान बात थी क्या। 

उसी चुनाव प्रचार में अजिताभ बच्चन, हरिवंश राय बच्चन व उनकी मॉ को प्रयागराज के खत्री पाठशाला पर बोलते सुना था। 

                           चित्र: गूगल से

इन चुनावों से पहले बच्चन जी को अमृत प्रभात अखबार में देखा करता था। उस अखबार का एक पृष्ठ सिर्फ टॉकीजों में लगी फिल्मी से भरा रहता था। तब 15-20 टॉकिजों में बच्चन जी की फिल्में लगी रहती थी।

श्लोगन हवा में तैरते रहते थे। हम सभी बच्चे थे। श्लोगन समझ भले ही न आये पर जुबान पर रटा रहता था। 

दूसरे फिल्मी स्टार को सुना करता था वो थे सुनील दत्त। उनकी 2000 किमी की पदयात्रा याद है मुझे। कई वर्षो तक सांसद रहे है। फिल्मी स्टारों के राजनीति में आने वालों मे वो बेहतरीन थे। 

लम्बी फेहरिस्त है शत्रुघ्न सिन्हा, राज बब्बर, धर्मेंद्र, राजेश खन्ना व हेमामालिनी इत्यादि कई लोग राजनीति में आये। कुछ क्षेत्रीय फिल्मों से भी आये जैसे रवि किशन व मनोज तिवारी आदि। कुछ राज्यसभा के लिये मनोनीत भी हुये।

वैसे दक्षिण भारत इस मामले में भाग्यशाली रहा है एन. टी. रामा राव को ही देखिये आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री तक रहे।

तमिलनाडू में एम. जी. रामचंद्रन व जयललिता का नाम विशेष तौर पर लिया जा सकता है। जयललिता 1984 से लेकर 2016 तक राजनीति में सक्रिय रही है।

यह शायद बहुत कम लोगो को पता होगा कि इमरजेंसी के बाद फिल्मी स्टारों ने " नेशनल पार्टी" नाम से पार्टी बनायी थी।

इंतेजार रहेगा फिर किसी सुपर स्टार का.....

@व्याकुल

गुरुवार, 30 सितंबर 2021

बापू

जब भी "रघुपति राघव...." धुन सुनाई पड़ता था। श्रद्धा के भाव उमड़ पड़ते थे। गाँधी जी बापू ऐसे ही नही कहे गये होंगे। संरक्षकत्व का भाव जनमामस में जगा जरूर होगा। 

एक आम इंसान जिसने राजनीति को अपने घोर आदर्श रूपी विचारों से भर दिया। संघर्ष से लड़ने का नया शस्त्र दिया। वों शस्त्र लोहे का नही था। विचारों का था।

विचारवान् व्यक्ति सांगठनिक ढांचा खड़ा करते है। अग्नि रूपी सत्ता की आंच से दूर ही रहते है क्योकि उनका विचार समग्र रहता है। वें पथ प्रदर्शक की तरह होते है। उनका कार्य हर क्षेत्र में पूर्णता का मानक खड़ा करना होता है।

गाँधी जी के अच्छें विचारो का स्वयं में समाहित करने की जो कला थी वो उन्हे श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर की ओर अग्रसर करती चली गयी।

अजातशत्रु बमुश्किल से मिलते है। गाँधी जी कोई अजातशत्रु नही थे। उनके भी कई आलोचक रहे है। दृष्टिकोण भिन्न हो सकते है। नज़रिया अलग हो सकता है पर गाँधी दर्शन अकाट्य व देशकाल से परे ही था। आज की पीढ़ी को लगता है जैसे वे अभी भी हमारे साथ है।

देश भ्रमण करना। बंगाल से पख्तून व कश्मीर से लेकर मद्रास तक अपने विचारों की अपार प्रभाव कौन बना पाया। कोई राजा-महाराजा नही थे जो राजसूय यज्ञ किये थे भारत पर एकछत्र राज्य के लिये। ये विचार का विजय ही था। सीमांत गाँधी से राजगोपालाचारी तक सब गाँधी दर्शन के संवाहक थे।

महामानव कहना समीचीन होगा बापू जी को। आदर्शों से समझौता कोई आसान काम नही। पर बापू जी ने आदर्शो को ऊपर रखा। कभी कोई समझौता नही चाहें असहयोग आंदोलन हो या देश बँटवारा। कही डिगे नही। आदर्श पूर्ण जीवन जीना आसान नही। मजबूत इच्छा शक्ति चाहिये अडिग बने रहने के लिये। वे संकीर्णता से दूरी बनाये रखना चाहते थे। सांप्रदायिक भावनाओ के शिकार हो सकते थे पर अपने इंसानियत को दूर ही रखा।

एक विदेशी, माउंटबेटन, जो पराधीन देश के अंतिम क्षणो में आये थे। माउंटबेटन के उद्गार को भला कौन नकार सकता है, "महात्‍मा गांधी को इतिहास में महात्मा बुद्ध और ईसा मसीह का दर्जा प्राप्‍त होगा।"

सत्य के लिये आग्रह "सत्याग्रह" एक मजबूत माध्यम बना न सिर्फ हिन्दुस्तान में वरन् विश्व में। आग्रह सत्य का हो तो बरबस ही वो संत याद आ जाते है......

@व्याकुल

बुधवार, 29 सितंबर 2021

अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध दिवस

कुछ दिन पहले एक बुजुर्ग से बात हो रही थी। उस दिन उनका जन्मदिवस था। मैने शुभकामनाओं के साथ 120 वर्ष की उम्र तक दीर्घायु होने की बात कही। वों बोले कम है। मै तो 150 वर्ष तक जिंदा रहने का प्लान किया हूँ। मै सन्न रह गया। ये उनके जिंदादिली का प्रत्यक्ष उदाहरण देख हतप्रभ रह गया। उनके शब्द अन्य बुजुर्गो के लिये प्रेरणादायी है।

इस देश में रिटायर होते ही ये मान लिया जाता है कि कार्य करने की उम्र गयी। कार्यालयों में रिटायर होने के 2-3 वर्ष पहले से ही लोग ढीले पड़ जाते है। मानसिक तौर पर अगर ढीले पड़ गये तो समझिये शारीरिक रूप से आप अक्षम्य हो जायेंगे।

कभी-कभी सोशल मीडिया पर ऐसे वीडियो देखने को मिल जाता है जहाँ बुजुर्ग नाचते गाते मिल जाते है। उन्हे कभी मत कहिये आप नाच नही सकते। आप लोग भी उनके साथ खूब नाचिये। 

मैने african proverb पढ़ा था कि "If you refuse the elder’s advice you will walk the whole day.” सही बात है। बुजुर्गो को नही सुनने का मतलब भटक ही जाना है।

अनुभव बहुत ही कमाल की चीज होती है। अनुभव उम्र के साथ बढ़ता ही जाता है। घर से आप निकले नही कि "फलां रास्ते नही जाना", ये सीख सुनने को मिल जाता है।

                      चित्र: गूगल से
पीढ़ी दर पीढ़ी अनुभव का स्थानान्तरण होता रहता है। बुजुर्ग पीढ़ियों को जोड़ने का काम करती है।

अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध दिवस हर वर्ष 1 अक्टूबर को 1990 से मनाया जाता रहा है। संयुक्त परिवार के विघटन से बुजुर्गों की स्थिति दयनीय हो गयी है जो कि भारत की पुरातन सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप नही है....

@व्याकुल

सोमवार, 27 सितंबर 2021

समौरी

अवधी बोली का एक शब्द है "समौरी" इसका अर्थ है समकक्ष या समव्यस्क। हमारे एक भाई है अशोक। मुझसे तीन माह बड़े है। ये कहा जाता है कि वो मेरे समौरी है। इस शब्द की व्युत्पत्ति कैसे हुई बता पाना सम्भव नही पर अवधी बोली का यह आम शब्द है।

अगर आयु के संदर्भ में लिया जाये तो समौरी में 2-3 माह छोटे भी हो सकते है और बड़े भी।

समौरी का अर्थ सिर्फ आयु से ही नही है भाव के भी परिपेक्ष्य में लिया जा सकता है जब भाव के अर्थ एक हो। 

नीचे दिये गये चित्र में मेरे समौरी अशोक भाई है-



आज से ही शुरू कर दीजिये तलाशना आपका समौरी कौन कौन है......

@व्याकुल

रविवार, 26 सितंबर 2021

हेंगा

गॉवों में बरधा (बैल) दुआर (घर के बाहर) की शोभा मानी जाती रही है। खेती की बात हो तो हेंगा शब्द बरबस ही मुँह में आ जाता है। हेंगा का उपयोग मिट्टी के ढेले को समाप्त कर जमीन को समतल करने के काम आता है। 

छोटे बच्चे हेंगा पर बैठकर स्केटिंग जैसा आनन्द लेते थे। बैलों से बँधी रस्सी को पकड़ लिया जाता था। रस्सी को पकड़ते वक्त इस बात का ख्याल रखा जाता था कि शरीर का ऊपरी हिस्सा पीछे की ओर ज्यादा झुका हुआ हो। आगे झुके तो चलते हेंगा में पैर फसने का डर रहता था। किसान गजब का संतुलन बनाये रखते थे।

हेंगा लम्बा व आयताकार व भारी होता है।



हेंगा को पाटा भी कहते है। वैसे देश के विभिन्न भागों में अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है।

मै पहली बार बैठते समय डर रहा था। जब इसकी टेक्निकल्टी समझ आयी, फिर मजा आने लगा।

आप भी जरूर मजा लीजिये या बच्चों को इस अनुभव से जरूर अवगत कराइयें.....

@व्याकुल

शनिवार, 25 सितंबर 2021

फेसबुक

"घुटनों का ग्रीस कैसे बनाये" गलती से फेसबुक पर देख कर हटा ही था कि दूसरा वीडियो "घुटनों से कट-कट की आवाज कैसे कम करे" आ गया।  फेसबुक की महिमा का बखान कैसे करे। मन की भाव को समझ लेता है। एक वीडियो से हटे नही कि उसी टाईप के वीडियों की झड़ी लगा लेता है जैसे किसी दुकान पर पहुंच बस जाइये। कुछ न कुछ आपको पकड़ा ही देगा। 

मोटापा था तो सोचा "चर्बी कैसे घटाऊ" देख लूँ। फिर क्या था... अजवाईन पानी.. जीरा पानी... पता नही क्या क्या...सलाह पर सलाह...

एक विद्वान से बात की तो बोले ये सब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का कमाल है... मशीनी इंटेलिजेंस... वर्च्युल इंटेलिजेंस और पता नही क्या क्या सुनने को मिल जाते है आजकल। मानवीय इंटेलिजेंस तो जैसे गायब ही हो गये है आजकल।मशीन ही सही मामलों में इस मशीनी युग में रिश्ता निभा रहा है।

मानवीय इंटेलिजेंस तो देखा व सुनता आ रहा हूँ पर वो भी किसी के मनोभावों को समझने व ताड़ने में चूक करता रहा है।

भावुक कर देता है फेसबुक। कुमार विश्वास के कविता से उठा ही था कि कविता तिवारी काव्य पाठ करती आ गयी। बनारस के कवि दुबे जी प्रगट हो गये। थोड़ा आगे बढ़े मुशायरा से वाकिफ हुये।

कुछ तो अनचाहा मेहमान की तरह प्रगट हो जाते है। 

मै तो सोच-सोच कर हैरान रह जाता हूँ... क्या देखूं और क्या न देखूं... 

खैर अब मुझे साँपों से कम डर लगता है क्योंकि मुरलीवाले हौसला का वीडियो देखता रहता हूँ.....

ऐसे ही आनन्द लेते रहियें.. बस मोबाइल में डेटा हो और चार्जर जेब में....

@व्याकुल

गऊखा

गऊखा पूर्वी उत्तर प्रदेश के गॉवों के पुराने मकानों या पुराने ज़माने के पक्के मकानों में देख़ने को आराम से मिल जायेगा। गऊखा लगभग हर मकान का अनिवार्य हिस्सा है... 

पुराने जमाने में बिजली में मामले में बहुत ही पिछड़े थे हम सब। शहरों को छोड़कर बहुत कम जगहों पर बिजली होती थी। ढिबरी रखने के लिये गऊखा ही प्रयोग में लाया जाता रहा होगा। अँधेरे को प्रकाशमयी करने के लिये छोटी शीशी में मिट्टी का तेल डाल कपड़े की बत्ती बनाकर ढिबरी बनाया जाता था। अब तो ढिबरी का कोई चलन ही नही। न तो मिट्टी का तेल ही उपलब्ध है और न ही बिजली की कोई समस्या। 


अधिकतर इसके ऊपर का हिस्सा मेहराबनुमा होती है। गऊखा को अलग-अलग नामों से संबोधित किया जाता है जैसे ताखा, पठेरा, गोखलो, दियरख, आला इत्यादि इत्यादि।

गऊखा में प्रतिदिन उपयोग की छोटे-मोटे सामान भी रखे जाते रहे है। इसे तिजोरी ही समझिये।

अपनी महत्ता बनाये रखे। पता नही कौन आपकों गऊखा में उठा कर रख दें....

@व्याकुल

शुक्रवार, 24 सितंबर 2021

साहस

जो तूफ़ानों में पलते जा रहे हैं 

वही दुनिया बदलते जा रहे हैं 

जिगर मुरादाबादी सही ही लिखते है। दुनिया वही बदल सकते है जो झंझावात झेले रहते है। साहस का जन्म भी यही से होता है। 

उन्हे तो आसमां छूने की ललक होती है। वों चैन की साँस कभी नही लेते। अधिकांश के ऐसे ही लोग आदर्श होते है। 

ऐसे लोग त्वरित (quick) निर्णय भी ले लेते है। ऐसे लोग जब सफलता की सीढ़ी चढ़ने लगते है तब उनके जिद्दी होने की संभावना बढ़ जाती है। फिर वे किसी की नही सुनते। उन्हे लगता है जो वे कर रहे है सही कर रहे है। 

साहस अपने पराकाष्ठा पर जब होता है तो गलत निर्णय भी ले लेते है। किसी की भावनाओं को भी चोट पहुँचा जाते है। स्व-मूल्यांकन का समय नही होता।

साहसी लोग अनोखे होते है। जो कार्य पूर्ण करने की सोच लेते है निष्ठा से लग जाते है फिर कुछ नही सोचते। या तो गिरते है या आगे बढ़ जाते है। गिरने का मतलब उनके लिये ये नही होता कि चुप होकर बैठ जाये। अगले पल फिर कोई नया लक्ष्य।

उनके साहस से डर लगता है। मैने दो बड़े प्रशासनिक अधिकारी ऐसे ही देखे है जिनका साहस ही उन्हे गलत रास्ते पर ले गया और वे सामाजिक परिदृश्य से गायब हो गये।

साहस के साथ भावुकता, विवेक और सकारात्मकता बनाये रखे तभी जीवन की सार्थकता होगी....

@व्याकुल

बुधवार, 22 सितंबर 2021

लसोड़ा

औसत मध्यम वृक्ष लसोड़ा का। थोड़ा घना। फल गोल। अंदर से ताकत इतनी की नगाड़ा बन जाता था। फिर तो धिन् धिन् ता ता धिन् धिन्। 


                         चित्र: गूगल से

ये भी एक नवाचार (innovation) रहा है बालपन का। पुरवा या कुल्हड़ और परई या कसोरा का भरपूर उपयोग। लसोड़ा में इतना दम तो होता ही था कि कागज को मिट्टी के बर्तनों में कस कर बाँध देती थी। हमारा ढोलक व नगाड़ा तैयार हो जाता था। 

वैसे जब थोड़ी समझदारी बढ़ी तब लसोढ़ा का उपयोग सिरके (vinegar) में भी देखा या जाना कि इसकी उपयोगिता आयुर्वेदिक में भी हो सकती है। 

आज से 25-30 वर्ष पहले प्रकृति के बीच से ही खिलौना बना लेते थे तब शायद ही कृत्रिम खिलौना होता हो।  पर लसोढ़ा की पहचान मेरे लिये नगाड़ा और ढोलक बनाने तक था और इससे बेहतरीन खिलौना कुछ और नही लगता था।


                         चित्र: गूगल से

इसके गूदा को पुरवा और परई के किनारों पर लगा कर कागज चिपका दिया करते थे फिर देर तक धूप में सुखाकर उपयोग में लाते थे। ये देखना जरूरी होता था कागज ढीला न हो जिससे ध्वनि में टंकार रहे।

गॉव में शायद 1-2 पेड़ थे लसोड़ा के। मै तो अपने घर के दक्षिण दिशा में लगे हुये लसोड़ा का ही प्रयोग करता था।

लसोड़ा जरूर लगाये अपने आस-पास। सिर्फ जीव-जन्तुओं की प्रजाति ही खतरे में नही हो सकती कुछ पेड़-पौधे भी हो सकते है....


@व्याकुल

रविवार, 19 सितंबर 2021

द्विचक्रिका

 

हवाओं से बात करूँ

जो रख सकूँ पाँव पैडिलों पर

गलियों की हूकूमत करूँ

जो बैठ सकूँ तिकोन सीट पर..


मुनादी करवा दी जंगलों में

जो बजा दी तेज घंटो को

तीनों लोक नाप सके पल में

जो चलाये तेज चक्रों को

@व्याकुल



शनिवार, 18 सितंबर 2021

चिलबिल

चिलबिल का पेड़ मेरे बचपन से जुड़ा एक शानदार पेड़ है। घर के बगल कब्रिस्तान के एक कोने में अकेला खड़ा। तने का रंग जामुन के रंग जैसा। गहरे हरे रंग की आकर्षित करती पत्तियां। पेड़ पुराना था। इतनी ऊंचाई पर था कि हम लोग उसकी छांव नही ले सकते थे। 


 चित्र: गूगल से

अरस्तू कहते थे जिस मनुष्य को समाज की आवश्यकता नही, वह या पशु या देवता होगा। अकेले पेड़ को क्या कहेंगे??? हम बच्चों की कोलाहल से निःसंदेह खुश हो जाता होगा।

जब सूखी पत्ती जैसी फली हवा के झोंको से जमीन पर गिरती रहती थी। याद नही किसने ये बताया था कि इसके अंदर एक छोटा सफेद बीज खाया जा सकता है। उसी ज्ञानी ने यह भी बताया था कि इसका तो लोग हलवा खाते है। फिर क्या था बकझक के बीच इसका बीज खा लिया करते थे।

इसके भी कई नाम है जैसे हम लोगो के होते है - चिलबिल, चिरमिल, पापरी, करंजी, बेगाना, बनचिल्ला। 

थोड़ा इस पर अध्ययन किया तो पाया कि छाल, पत्ती और बीज सभी स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद है। 

फिर क्या?? चिलबिल पर मेहरबान हो जाइये। लगा डालिये कही मैदान या खाली जगहों पर। 

प्रकृति से बेहतरीन चिकित्सक कौन हो सकता है भला...

@व्याकुल

शुक्रवार, 17 सितंबर 2021

कैनवस बॉल टूर्नामेंट

एक दौर था कैनवस की गेंद के टूर्नामेंट का। हर मोहल्ले के गली-कूचों में टूर्नामेंट होता रहता था। उत्साह का माहौल रहता था। 30-40 फिट चौड़ी सड़क पर भी आराम से हो जाया करता था। जरूरी नही टूर्नामेंट का टाईम दिन में हो, अमूमन रात में ही होता था।

जीतने वाले मैच के कप्तान को ट्रॉफी, मैन अॉफ द मैच, मैन अॉफ द सीरिज सबकों ट्राफी मिलती थी। 

एक बार हमारें छोटे भ्राता श्री अपने छोटे दल को लिये एक टूर्नामेंट में भाग लिये थे। 1-2 राउंड जीतने के बाद, मुझे और मेरे कई हमउम्र को शामिल किये थे (वैसे मै क्रिकेट में बहुत अच्छा नही था, पर छोटकी गोल से थोड़ा बेहतर था)।

जब यह टूर्नामेंट क्वार्टर या सेमीफाइनल में पहुँचा ज्यादातर खिलाड़ी बड़े स्तर के आ गये थे। मेरे बड़े भाई, जो उस वक्त 'ए' डिवीजन लीग मैच खेलते रहे थे, की साथियों के साथ टीम में इंट्री हो गयी थी।  

छोटी वाली गोल से सिर्फ छोटे भ्राता कप्तान थे। शुरुआत के सारे खिलाड़ी नदारद थे। 

ये पहला ऐसा मैच था जिसके फाईनल में तीनों भाई थे। घर में पॉच मेडल आये थे।

इसके नियम भी अजीब थे। छक्का एकदम नही था। दो रन और चार रन होते थे। टप्पा खाकर गेंद चॉक के बने बाउंड्रीवॉल से बाहर चला जाये तो चार रन। 

मैच की खूबी यह थी कि संयमित खेल होता था। आस-पास के घरों के शीशे शायद ही कभी टूटते हो।

@व्याकुल

क्षारीय भोजन

एक मजेदार घटना का जिक्र करता हूँ। कुछ वर्ष पहले मै अध्ययन के दृष्टिगत चित्रकूट में था। उसी समय वहॉ एक संत पधारे थे। अपने भक्तों से बोल रहे थे कि अगर आप सभी को स्वस्थ रहना है तो आटे को कच्चा ही खाये। पका कर न खाये। सब भक्त गण चिंतित। ऐसा कैसे संभव। मेरे समझ में तुरंत आ गया। पकाने की परम्परा की शुरुआत निश्चित रूप जीभ के स्वाद से जुड़ी होगी। पकी हुई चीजों में मूल स्वास्थ्यवर्धक तत्व गायब हो जाता है। तभी सलाद व फल स्वास्थवर्धक रहता है।

हम जितना आधूनिकता की ओर बढ़ते जा रहे उतना ही खान-पान और रहन-सहन भी बदलता जा रहा। जो भी मिल गया खा लिया। यही आदतें हमे बीमारियों की ओर ले जा रही। अगर हमें स्वस्थ्य व दीर्घायु रहना है तो खान-पान में सुधार करना होगा।

हमे इसका ज्ञान होना चाहिये कि हम क्या खायें और क्या न खायें। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य ये है कि हम अन्न में क्या ले रहे। कही हमने अपने लीवर को प्रयोगशाला तो नही बना रखा। 

आजकल हम मैदे से बनी सामग्री, तेल या तली हुई सामग्री प्रचुरता में रहे है। जीभ का स्वाद प्रमुख हो गया है। शरीर का स्वाद या लीवर का स्वाद गौण हो गया है। 

अम्लीय भोजन ठूसे जा रहे है। अपच्य व गैस की बीमारी का शिकार होते जा रहे। जबकि हमारे आयुर्वेद में क्षारीय भोजन की सलाह दी गयी है। फाइबर प्रचुरता वाले भोजन लेने की बात कही गयी है। 

अम्लीय भोजन की अधिकता से तमाम तरह की बीमारियां घर कर रही है। एक बीमारी ने घुसपैठ की तो समझिये बाकी बीमारियों की श्रृंखला बन ही जायेगी।

क्षार पद्धति से इलाज भी दो प्रकार से होता है: 1.पहला, खाने वाला व 2. दूसरा, घाव या अंग पर लगाने वाला। 

मौसमी फल अवश्य खाये।

आज से ही शुरु कर दीजिये क्षारीय प्रचुर वाले भोजन की.......


@व्याकुल

बुधवार, 15 सितंबर 2021

नमक

किसी ने सही कहा है:

"तुम ने एहसान किया है कि नमक छिड़का है 

अब मुझे ज़ख़्म-ए-जिगर और मज़ा देते हैं"

नमक का महत्व हमारे जीवन में गहरे तक जुड़ा हुआ है। खाने में नमक ज्यादा हो या कम ही हो जायें तो कोहराम मच जाता हैं।

नमक का संतुलन नितान्त आवश्यक है। समुद्र के खारे पानी में से भी अपने लायक कुछ निकाल लेना छोटी बात नही है। 

पुराने जमाने में लोंग जल्दी किसी का नमक नही खाते थे। एक बार नमक खा लिया तो साथ देने से मुकरना नही है या ताउम्र वफादार बने रहना है। गुपचुप ऐसा न करना कि कहना पड़े...

"दामन पे कोई छींट न ख़ंजर पे कोई दाग़ 

तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो"


हफ़ीज़ बनारसी सही ही कहते है:

दुश्मनों की जफ़ा का ख़ौफ़ नहीं 

दोस्तों की वफ़ा से डरते हैं...

हम तो रसायन शास्त्र में पढ़े है.. सोडियम क्लोराइड... ये तो मुझे ऐसा ही लगता है दूबे जी विदेश गये हो और कोई कह दे मि. डूबे...

1973 में एक फिल्म आयी थी "नमक हराम।" इस फिल्म का डॉयलाग भी गजब का था:

"जीने की आरज़ू में मरे जा रहे हैं लोग.… मरने की आरज़ू में जीए जा रहा हूं मैं!"

कही कोई लेख पढ़ रहा था तो लिखा भी था। ताउम्र जवाँ रहना है तो नमक कम कर दें।

नमक अकेला नही है। इस दुनियां में कई भाई-बहन है उसके। जैसे- समुद्री नमक.. सेंधा नमक... काला नमक....

मै कुछ भी लिखुँ और बचपन न आये। हो ही नही सकता। 

बचपन में गॉवों में नेवता के लिये भी जाना होता था तो कोहड़े की सब्जी मिल ही जाती थी...हिमालयी सम्मा (पूरा) आलू की तलहटी में कोहड़ा संघर्षरत्। बस नमक मिलाने की देर होती थी। फिर क्या था??? मति हेराय जात रहा.... चुटकी भर नमक का कमाल आज भी जीभ को याद है.....

@व्याकुल

मंगलवार, 14 सितंबर 2021

पाचन

मै पिछले दो वर्षो से बहुत ही परेशान रहा। सन् 2020 में 2-3 महिने लॉकडाउन में घर बैठना हो गया। फिर 2021 में एक महीने। इन दो वर्षो में अपच्य का शिकार हो गया। गैस का तो पूछिये ही मत। दिन भर गैस। जिंदगी में नही सोचा था किं मुझे कब्जियत भी होगी। 

खैर!!!!! होमियोपैथी से इलाज शुरू किया। जब तक इलाज चलता रहा तब तक ठीक रहा। फिर वही लक्षण व बीमारी। मै परेशान हो गया। 

इसके बाद आयुर्वेदी पद्धति पर आ गया। दवाइयां ली। पर फिर वही। मै परेशान हो गया था। इतनी भयंकर समस्या थी कि बाईक नही चला पाता था। कुर्सी पर बैठना तो मुश्किल ही था। ये बीमारी भी ऐसी होती है कि आप ज्यादा किसी से शेयर नही कर सकते। 

वैसे मै हमेशा से ही दवाइयां खाने से बचता रहा हूँ। मुझे लगता है किं किसी भी बीमारी का इलाज नैसर्गिक (natural) तरीके से करना चाहिये। भले ही आपकों खान-पान से समझौता करना पड़े।

मैने दवाइयां सब बंद कर दी। प्रण ले लिया था खान-पान सुधारने के लिये।

सबसे पहले गाज गिरी समोसा व बताशे (फुल्की) पर। पूड़ी, तेल की बनी सारी चीजे बंद की। जब इन सब चीजों पर नियंत्रण पा लिया। फिर आया शाम के भोजन पर। बहुत ही नियंत्रित भोजन लेने लगा। शाम का भोजन छः बजे तक करने लगा। कभी-कभी पौष्टिक तरल से ही काम चलाने लगा। सिर्फ सुबह पूरा भोजन लेता। बाकि समय लिक्विड। 

परिणाम आश्चर्यचकित कर देने वाले थे। गैस का राम नाम सत्य हो गया। कब्जियत शब्द को भूल चुका हूँ। 

अभी सुबह का टहलना... रात जल्दी सोना और नियमित रूप से व्यायाम पर चिंतन जारी है....

@व्याकुल

सोमवार, 13 सितंबर 2021

आई. ए. एस.

हमेशा से ही लाल बत्ती का एक अलग ही क्रेज रहा है। विशेषकर पूर्वांचल और बिहार में। उन दोनों क्षेत्र में और किसी भी नौकरी को उतना सम्मान नही मिलता जितना आई. ए. एस. या पी. सी. एस को। 

अगर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में है तो इसके नशे से शायद ही कोई बच पाया हो। 

60 के दशक या उससे पहले सीट भी कम रहती थी और परीक्षा केंद्र भी सीमित जगहों पर होता था। एक पूर्व पी. सी. एस. टॉपर (1966) ने बातचीत के दौरान बताया कि इलाहाबाद में उस जमाने में पी. सी. एस. परीक्षा का सिर्फ एक केंद्र हुआ करता था।  पब्लिक सर्विस कमीशन में दो हॉल ऊपर-नीचे हुआ करता था। वही परीक्षा होती थी। आजकल तो आई. ए. एस. की परीक्षा में ही एक ही जिला में कई केंद्र हो जाते है।

किसी जमाने में आई. ए. एस. की परीक्षा के परिणाम में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों का बोल-बोला रहता था। अब केंद्र खिसक कर दिल्ली हो गया। उसी प्रकार जैसे साहित्यकारों का केंद्र अब दिल्ली हो गया है।

वैसे आई. ए. एस. का अस्तित्व बचाने में पटेल जी की अहम् भूमिका रही है। देश की आजादी के बाद नेहरू जी आई. सी. एस. पद ही खत्म करने वाले थे क्योकि उनकों आई. सी. एस. का व्यवहार कभी पसंद नही आता था। पटेल जी इसके विरोध में थे। पटेल जी ने नाम में संशोधन कर भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई. ए. एस.) कर दिया था। पटेल जी दूरदर्शी, मजबूत इच्छा शक्ति व व्यावहारिक शख्स थे। बाद में नेहरू जी आई. ए. एस. अधिकारियों के. पी. एस. मेनन और गिरजा शंकर बाजपेयी से बहुत प्रभावित थे।

सोचिये अगर ये पद ही खत्म हो गया होता!!!!!!

@व्याकुल

रविवार, 12 सितंबर 2021

गुरुजन

 सभी गुरुजनों को मेरा अभिनन्दन

💐🙏🏻

माँ-पिता प्रथम गुरु के उपरान्त समस्त गुरुजन् को मेरा प्रणाम् जो वजह बने जगत् को परखने की सद्बुद्धि प्रदान करने का।

🙏🏻🙏🏻


गुरु-वाणी

गूँजते रहते

कानों में

नित् पल

प्रतिपल..


बंद कर

दृगों को

सोचू 

दे जाते

अहसास

असीम

सुखद सा..


बेंत लगे 

थपकी

कुम्हार 

का

प्रसाद सा

डाँटे

जैसे

चरण हो

हरि का..



करते

परिवर्तन

उथल-पुथल

से मन को

भरते

दूलारते

स्नेहिल

शब्दों

से..


अभिलाषित

करूँ

कृष्ण रूपी

गुरुओं की

छाया

जो बाँध

सके

परन्तप के

बहके कदम....


@व्याकुल

पथ

(वो पथ जिसने कई शहीदों को अपने सीने लगाया)

पथ वही

पथिक नही

ढूढ़ रहा

पथिक को

जो 

बनी थी

मुकुट उसकी..


रक्त रंजीत

हो

हर्षायी

तकती राह

उस राही की..


उस 

दृढ़ी की

पावड़े बिछाए

भीड़ों की 

श्रृंखला देखती..


ख़ुशी से 

मगन 

ख़ुशी के 

आँसु

छलक जाते

पुष्प की 

लय

उस पर 

पड़ते..


तंद्रा ही

थी

है पुष्प 

ये

विछोह के..


राह तकती 

उस वीर की

जिसने 

प्राणों की 

बलि की..


समर्पित जीवन 

की 

अभिलाषित

वो पथ 

"व्याकुल" सी...


@व्याकुल

भस्मासुर

अभी हाल ही में अफगानिस्तान की घटना देखी व सुनी। तालिबान का जिस तरह से काबुल में कब्जा किया गया भस्मासुर की याद दिला गया। जहॉ तक मुझे समझ है ये तीन घटनायें एक जैसी ही है। 

पहली घटना भस्मासुर की है, भस्मासुर को शिव जी का वरदान था वो जिसके सर पर हाथ रखेगा भस्म हो जायेगा। भस्मासुर वापस उल्टा शिव जी को ही भस्म करने का मन बना लिया। बड़ी मुसीबत में फसे वों। खैर, धन्य हो विष्णु भगवान जी का। स्त्री रूप धर चतुराई से भस्मासुर का वध कर दिया, तब जाकर शिव जी की जान बची। 

दूसरी घटना, भारत के पंजाब की। कैसे अकाली दल के वर्चस्व को खत्म करने के लिये भिण्डरावाले को खड़ा किया। उसके बाद की घटना से तो आप सभी वाकिफ ही है। पूरा देश धूँ-धूँ कर जल उठा था।

तीसरी घटना तालिबान की है। सोवियत संघ के वर्चस्व को खत्म करने के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान का सहारा लिया था। पाकिस्तान सोवियत संघ से सीधे टकराने की बजाय तालिबान का गठन व प्रशिक्षित किया था। आधुनिक हथियार जैसे हवा में मार कर विमान को उड़ा देने वाले राकेट लॉन्चर, हैण्ड ग्रैनेड और एके ४७ आदि अमेरिका द्वारा उपलब्ध कराया गया था। बाद में खराब आर्थिक स्थिति के फलस्वरूप सोवियत संघ को अफगानिस्तान छोड़ना पड़ा था। 

चित्र: गूूूगल से

फिर वही हुआ जिसकी चर्चा यहॉ कि जा रही है। 2001 में अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर में हमला हुआ। अमेरिका खिलाफ हो गया उन साँपों के खिलाफ जिसकों कभी उसने दूध पिलाया था।  

हम इतिहास से सीख नही लेते। दुश्मनी में बदला लेने में ये नही सोच पाते कि किसकों बढ़ावा दे रहे है। यही काम अमेरिका ने किया था। वों शीत युद्ध का समय था। सोवियत संघ के गिराने में खुद उस खंदक में गिर चुके थे।

फिर बारम्बार वही भस्मासुर को जन्म देते रहते है.....

@व्याकुल

शनिवार, 11 सितंबर 2021

बताशा: डायबिटीज निवारण सूत्र

बहुत से शहरों में बताशा गली... बताशा मंडी मिल जायेंगे... हमारे जिला भदोही के एक ब्लॉक सुरियाँवा में भी बताशा गली है... किसी जमाने में उस गली में गजब की भीड़ हुआ करती थी। आखिर हो भी क्यों न??? बताशा किसी दिव्य मिठाई से कम थी क्या???? दिव्य तो थी... छोटे वाले बताशा तो दैवों के प्रिय हो गये पर बड़े वाले अनाथ हो गये। ऐसे अनाथ हुये कि बेगारी के शिकार हो गये।

मुझे तो उस गली के मुहाने पर चाय-पकोड़ी की दुकान बखूबी याद है। फिर क्या????कौन छोड़ता है भाई।

बड़े बताशे को पानी में डूबोकर खाने में जो आनंद प्राप्त होता था वो हमे सिखाता था किं हम timing या समय पर कैसे किसी कार्य को करें। बताशा गले भी न और पानी से डूबोकर खाना मन प्रफुल्लित कर देता था।

           चित्र: गूगल से

मुझे तो बताशे के ऊपर की चिकनाई बेहद पसंद थी। बस छूते रहो। इसकी चिकनाई और बिच्छू की चिकनाई एक जैसी लगती थी।  एक बार तो बिच्छू को घंटो सहला डाला था। बताशे के चक्कर में ऊँगली में पता नही क्या जादू आ गया था किं बिच्छू तक ने डंक को सिकोड़ लिया था।

इलाहाबाद की फुलकी कानपुर आकर बताशा बन गयी और अमर हो गयी....

वैसे तमाम बिमारियों का संबंध हाजमें से है और ये हाजमें को दुरूस्त रखता है...

डायबिटीज वालों को विशेष रूप से बताशों को खाना चाहिये। हो सकता है उन सबकों बताशा का श्राप लग गया हो.....

देर किस बात की... घूम आइये आप भी किसी बताशा गली में..............


@व्याकुल

मंगलवार, 7 सितंबर 2021

साक्षरता


विश्व साक्षरता दिवस की शुभकामनाएँ

साक्षर
वो जो
लिखे शब्दों 
की
चतुराई
भाँप सके
न की
जोड़ें
वर्णमालाओं को
घंटों में..

@व्याकुल

सोमवार, 6 सितंबर 2021

कुलगुरु

नाम बदलने से क्या शिक्षा व्यवस्था सही हो जायेगी.. गुरु शब्द का अर्थ भारी या वजनदार भी होता है.. ये शब्द जोड़ने से क्या पद वजनदार हो जायेगा???? खैर मेरे कई मित्र एक कुन्तल के है... मै भी हूँ..वर्तमान परिदृश्य में तैरना आना चाहिये... हल्का इतना भी न हो... इधर की उधर करता रहे... नाम बदलने का मुख्य उद्देश्य पुरातनता का बोझ देना होगा.. तभी इतना भारी शब्द लाद दिया... देखते है कौन किसको ढो पाता है... व्यवस्था गुरु को या गुरु व्यवस्था को....!!!!!!!


विश्वविद्यालय में पहले वाले गुरु का कद अब छोटा हो जायेगा... वो कैटेगरी में छोटे गुरु हो जायेंगे... ये वाले बड़े गुरु... सब कहते फिरेंगे बड़े वाले गुरु.. माफ कीजियेगा.. बड़े वाले नही..सिर्फ बड़े गुरु...

किसी ने अगर कह दिया किं "जा रहा हूँ गुरु से मिलने", तुरन्त प्रत्युत्तर आयेगा "कौन वाले????"

अब कुछ लोग गुरु के अलग-अलग अर्थ निकालेंगे... पता नही कौन वाला अर्थ सेट हो जाये...

मुझे तो चिंता "गुरु गोविंद दोऊ खड़े..." की हो रही..

जय हो!!!!!!!!!

@व्याकुल

शनिवार, 4 सितंबर 2021

तपस्वीं

प्रयाग ज्ञानियों का आश्रयस्थल कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी.. न डिगे.. न टरे वाले तपस्वीं जो मेज-कुर्सी ठेले पर लाद लॉज तक बाखुशी लाये होंगे जहॉ बैठ अथक तपस्या कर सके। तौलिया का आश्रय स्थल जरूर कुर्सिया रही होंगी। हाथों की कुहनियॉ को सहारा देते मेज की भी आह निकल गयी होगी। कई बार तो उसने माथों को चूमा होगा जब हताश परेशान मेज पर सर टिका दिया होगा। तपस्या का आलम देखिये किं मेरे एक जानने वाले की कुहनियों पर चटाई का निशान बन गया था। 


भारत देश के लोग वैसे भी भरपूर आध्यात्मिक  होते है.. किसी पूर्व तपस्वी ने जरूर मार्ग बताया होगा कि यही वो जगह है जहॉ पर तपस्या सफल होती है.. फिर क्या था अनगिनत तपस्वियों ने योग मार्ग अपना लिया।


अल्लापुर हो या दारागंज या एलनगंज या कटरा हो... इलाहाबाद के तपस्वियों के लिये किसी एकांतवास से कम नही.. मन भटक ही नही सकता.. बगल के तपस्वी को देख पूर्णरूपेण दार्शनिकता व उर्जा घर कर जाती है.. मन भटकने का सवाल ही नही...


प्रयाग टेशन पर ट्रेन रुकते ही माघ जैसा दृश्य... साथी द्वारा तुरंत सामान की तलाशी जैसे कोई जड़ी-बूटी ढूंढ़ रहे हो। लईया.. गुड़..गट्टा.. बताशा.. कुछ भी मिल जाये.. ये किसी विटामिन से कम है क्या..लिये नही किं फिर हो जाते है ईश्वर में लीन। 


भगीरथ जरूर गंगा धरा पर लाये होंगे.. पर न जाने कितने भगीरथ प्रयास हुये होंगे ज्ञान रूपी गंगा को जन-जन तक पहुँचाने में। 


सरस्वती मॉ की रात दिन वन्दना करते इन तपस्वियों को बारम्बार नमन करता हूँ.... और यह श्रृंखला 135 वर्षो से जो आज तक सतत् बनी हुई है.... भविष्य में भी ऐसी ही धारा बनी रहनी चाहिये...

@व्याकुल

बुधवार, 1 सितंबर 2021

व्यथा चश्मे की

 


सुबह उठते ही

मुझे ही ढूढ़ते थे

कितने धीर हो

जाते थे तुम..


बड़े ही शौक से

तुमने चुना था मुझे

कई थे वहा

मेरे प्रतियोगी में..


जब तुमने मुझे 

देखा तो

फिर कोई और

पसंद नही आया..


ध्यान इतना देते

थे कि

थोड़ा सा भी

मैल नही होने 

देते थे..


एक दिन

मैं गिरा

डंडा 

बदलवाया

फिर तू

लापरवाह

हो गया..


आज 

गज़ब कर

दिया

एक हाथ 

दिया और

गुस्से में मुझे

गिरा दिया..


पहले भी 

मेरे ऊपर 

बैठ गए थे

मेरी तो आह!

निकल गयी थी

कभी श्रृंगार

सा था

अब नाज़ायज़

सा..


यही फितरत है

तुम इंसानो की

मतलब ही रिश्ते 

निभा रहा है

अन्यथा सब बेकार 

है..


@व्याकुल

तुम

सफर थकाने वाला रहा

आप से तुम तक का 

कल तक मर्यादाए थी

तुम बोल पाने में...


तुम भी बैचेन थी

लकीर तुम्हे भायी नही थी

वर्जनाओं को

तार-तार तुम्हीं ने की थी..


कल स्वप्न देखा था

लहरों को आगोश में लेते हुए

सुबह शुन्य में

विचरण करता रहा


गुँजता रहा कानों में

तुम का घोल

पिघलते रहे आप

बेसबब....


@व्याकुल

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...