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बुधवार, 23 मार्च 2022

खम्भा - कविता

 


घर के आँगन में कदम जो लड़खड़ायें थे

खम्भे को पकड़ लिया करता था मैं


छुपा लेता था खुद को दोस्तों से

छुपा-छुपी खेल में गोल-गोल खम्भे से


डेहरी की सीढ़ियों पर बाबा उतरे थे 

कोई पुत्र सा ये खम्भे सहारा बनी थी 

 

कलियुगी संस्कारों ने जो बाहर किया घरों से

बोतलों का पर्याय बना दिया दिवाने बेवड़ो ने


नाम लेने से इस कदर डरा हुआ है "व्याकुल"

बदनाम जो किया खम्भों को ज़माने ने।।


@व्याकुल

नियति

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