रक्त बिघ्न हो रहा
राष्ट्र दम घुट रहा
दृग अश्रु बह चला
धरा बांझ हो चला
वीर घन चाह रहे
धीर मन हाथ रहे
स्याह न रहे तन
आग से सना रहे
कण कण उद्विग्न हो
राष्ट्र जब हिल उठे
जन्म ले रहा कोई
अन्त्य अब खिल उठे
रहे न कोई अस्त्र विहीन
मरे न कोई शौर्य हीन
न भूख से डिगा कोई
न हार से भगा कोई
वक्ष अब धधक रहा
फिर तुम्हे पुकारता...
@व्याकुल