FOLLOWER

मंगलवार, 13 सितंबर 2022

व्यथा

 


कैकेई आत्म ग्लानि में डूबी थी। उसे मंथरा के शब्द सुनाई नही दे रहे थे।


"मुझे कुछ देर के लिये अकेला छोड़ दों।" बस यही कह पायी थी।


शरीर साथ नही दे रहा था। कल सुबह किसकों अपना मुँह दिखाऊँगी। 


महल में सब ताने दे रहे होंगे, "अपनी मॉ पर गयी है" , "दासियों के पालन पोषण से ऐसे ही संस्कार होते है।"


पूरे महल में कोहराम मचा हुआ था।


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अगली सुबह सिर दर्द जोरों से हो रही थी। दासियों की पास आने की हिम्मत नही हो रही थी।


मंथरा एकाध बार परदे की ओट से झाँक कर चली गयी थी। 


पिता की इकलौती बेटी ने एक छोटी सी जिद्द के आगे एक नही दो-दो साम्राज्यों को कैसे नीचा दिखा दिया था। पूरा महल शोक में डूबा हुआ था।


पुत्र मोह ने ऐसा पागल कर दिया था कि अच्छे-बुरे का फर्क ही नही दिखा।


कभी- कभी इंसान अति प्रशंसा में भी दिमागी नियंत्रण खो देता है। कैकेई की मति भी अति प्रशंसा में बिगड़ गयी थी।


कैकेई की भूख प्यास खत्म हो गयी थी। महल कैद खाना जैसा लग रहा था।


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राजा दशरथ के महाप्रयाण के बाद माता कौशल्या के ऊपर पूरे परिवार को सम्भालने की ज़िम्मेदारी आ गयी थी। 


आज उन्होनें कैकेई के भवन की ओर रुख किया था। 


दासियों ने दौड़ कर कैकेई को सूचना दी। जब तक कैकेई खुद को सम्भालती कौशल्या एकदम सामने थी।


"कैकेई!!!!! ये क्या हाल बना रखी हो।"


कौशल्या हतप्रभ थी। दासियों को कुछ खानें के सामान लाने को इशारो में तब तक बोल दी थी।


कौशल्या को देखते ही कैकेई उनसे लिपटकर अपराध बोध ग्रस्त रोती रही। 


"बहन, मै कैसे राम को मुँह दिखाऊँगी????" , "सब मेरे बारे में क्या सोच रहे होंगे???" "हाय!!!मैने रघुवंश को कलंकित कर दिया"

एक साथ कई अपराध भावना प्रस्फुटित हो गये थे।


कौशल्या ने कैकेई के साथ ही रहने का संकल्प ले लिया था.. कैकेई को इस हालत में कैसे छोड़ सकती थी.. शायद समय कैकेई के भी घाव भर दें।


@विपिन पाण्डेय "व्याकुल"

शुक्रवार, 2 सितंबर 2022

शादी के लड्डू

 

मित्र बड़ा ही अनोखा था। शादी के फैसले नही ले पा रहा था। गलती उसकी नही थी। पिता दिवंगत हो चुके थे। अकेला था। लोग आते शादी के लिये, वो सबको बैरंग लौटा देता। 

जब पूछता "भाई, शादी के लिये हाँ क्यों नही कर रहे..."

"यार कुछ समझ नही आ रहा" उसका जवाब होता।

मै चुप रह जाता। मुरादाबाद में मेरी पहली पोस्टिंग थी। और वों मेरे पड़ोसी होने के साथ-साथ गाईड भी था। उस शहर के बारे में खूब बतियाता।

छुट्टी का दिन था। बीड़ी की महक मेरे कमरे तक आ रही थी। गॉव से कुछ लोग फिर शादी के लिये आये थे। बीड़ी मुँह में था सभी के। मै अपना कमरा जैसे ही खोला नथुनें तक धुँआ भर गया था। किसी तरह दूर जाकर तेज से साँस ली थी तब जान में जान आयीं।

तुरंत कमरे में कैद हो गया। 

थोड़ी देर बाद मेरे कमरे में नॉक हुआ। वही पड़ोसी मित्र था। 

मैने पूछा, "शादी के लिये आये थे क्या?"

हाँ,,,जवाब दिया था उसने। 

इस बार थोड़ा खुश था वों। 

लड़की वाले बोल रहे थे, "सड़क के बगल वाली जमीन आपके नाम कर देंगे। बस आप शादी कर लीजिये"

मैने बोला, "शादी कर लीजिये। इन सब मामलों में ज्यादा नौटंकी ठीक नही। वैसे भी आप 35 पार कर चुके हो ।"

मै उसकों ऐसे सलाह दे रहा था। मेरी उम्र उस वक्त 25 वर्ष थी। सलाह बुजुर्गों जैसी दे रहा था। पता नही कितना वों समझ पा रहा था।

अगली सुबह वो मेरे पास आया। बोला, "भाई, एक निवेदन है.. मै शादी तो यही करूँगा.. पर..." 

चुप हो गया था वों...

मैने बोला...पर के आगे कुछ बोलोगे ???

शादी की पूरी तैयारी में तुम्हे मदद करनी होगी क्योकि तुम्हारे ही कहने पर शादी कर रहा हूँ।

मै तैयार हो गया था।


गहना.. कपड़ा.. सभी खरीददारी में अॉफिस से आने के बाद लगा रहा।

शादी का दिन आया। मै पहुँच नही पाया था। 

शादी के बाद पत्नी ब्याह कर साथ शहर लाया था।

सुबह ही सुमधुर गाने की आवाज कानों में सुनाई पड़ रही थी।

अब हफ्तों पड़ोस में होने के बाद भी मुलाकात नही होती थी। मै खुश था.. "अपने पड़ोसी की खुशी देखकर"

मित्र पत्नी को साईकिल में बैठाकर हवा से बात करता और गुनगुनाता.." कौन दिशा में लेकर चला ले बटुहिया..."

मैने मकान बदल लिया था। अॉफिस के कॉलोनी में शिफ्ट हो गया था।

आज अॉफिस से लौटते वक्त घर के पास वाले मोड़ पर मिल गया था। मुझे ऐसे घूर रहा था जैसे मेरा गला दबा देगा...

मैने पूछा,"क्या हुआ मित्र???"

"आपने मुझे फँसा दिया शादी के चक्कर में। मुझसे बात नही किजियेगा आज से"

"बहुत झगड़ालू किस्म की है वो। जब देखों लड़ती रहती है..." "यार.. आजकल फटफटिया की जिद्द किये बैठी है"

मै क्या जवाब देता। मै खुद नादान था। अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह से निकलने का गुन नही आता था। 

बस यही सुन रखा था कि शादी के लड्डू इंसानों के गले में भी नीलकंठ से अटक जाते है......

@विपिन पाण्डेय "व्याकुल"

सोमवार, 18 जुलाई 2022

एक्स्ट्रा क्लास



आज बहुत दिनों बाद मित्र से मुलाकात हुई। उनके बच्चे से बातचीत के दौरान एक्स्ट्रा क्लास के विषय में पूछने लगा। 


बच्चे ने बोला, "अंकल, अब अॉनलाइन क्लास होती है जब टीचर को कुछ एक्स्ट्रा क्लास लेना होता था।"


मै पुराने दिनों में चला गया था। कैसे उसी दोस्त के घर में पकड़ा गया था। एक्स्ट्रा क्लास करते हुयें। बढ़िया बहाना होता था एक्स्ट्रा क्लास का।


वेस्टइंडीज के खिलाफ मैच में क्या गज़ब का शॉट मारा था दिलीप वेंगसरकर ने। मै चिल्ला रहा था। खुशी से झूम उठा था। तभी बाहर से आवाज आयी थी। लगा किसी अपने की आवाज थी। खिड़की से बाहर झाँक कर देखा तो मॉ डंडा लिये खड़ी थी। 


दोस्त की मॉ ने कहा था "बेटा, तुम्हारी मम्मी आयी है।"


मम्मी दोस्त के घर में घुसते ही गुस्से में बोली थी "यही है तुम्हारी एक्स्ट्रा क्लॉस।" 


मम्मी कान पकड़कर घर ले आयी थी, "आज से तेरा एक्स्ट्रा क्लास बंद।"


मै चुप था। मेरी चोरी पकड़ी गयी थी। 


अब भी कभी एक्स्ट्रा क्लास के विषय में सोचता हूँ तो मन प्रफुल्लित हो उठता है। कितनी फिल्में देख डाली उस एक्स्ट्रा क्लास के चक्कर में।


बड़ी मुसीबत थी। सही में भी अगर एक्स्ट्रा क्लास होती तब भी कोई छुट्टी नही मिलती थी। 


फिर नया आईडिया दिमाग में तैरने लगे थे। एक दोस्त ने मॉ का विश्वास जीत लिया था। जब बाहर घूमना होता था तब घर आकर सफाई से बोलता, " आंटी, सही में, कल एक्सट्रा क्लास है.."


उस दिन 'माचिस फिल्म' देखी थी..😃


@डॉ विपिन पाण्डेय "व्याकुल"

सोमवार, 4 जुलाई 2022

सफर कुंठा का

 


पूना में कन्हैया का फ्लैट उसी अपार्टमेंट में था जिस अपार्टमेंट में मृदुला रहती थी। परन्तु मृदुला का फ्लैट उसके ऊपर वाले तल पर था। मृदुला बहुत ही खूबसूरत थी। कॉलेज के दिनों से उसके बहुत चाहने वाले थे। कन्हैया व मृदुला कॉलेज में एक ही सेक्शन में थे। 


कन्हैया के मन में मृदुला के प्रति बहुत ही चाहत थी पर भावनाओं के इजहार में असमर्थ था। कॉलेज के दिनों में मृदुला साधारण वस्त्र पहनती थी पर प्रशिक्षण के दौरान पूना में कदम रखते ही जैसे उसे पंख लग गये हो। 


कन्हैया से वक्त बेवक्त बाहर की खरीदारी करा लिया करती थी। कन्हैया इतने में ही बहुत ही खुश रहता था। 


इधर कन्हैया महसूस कर रहा था कि अब मृदुला पहले जैसी बात नही करती। अगर कभी लिफ्ट में मुलाकात हो जाती तो वो नजरें बचाती हुई निकल जाती। मृदुला के फ्लैट में आने वालों की संख्या बढ़ती ही जा रही थी।  कन्हैया मन ही मन कुढ़ता जा रहा था। 


वों दिन रात सिर्फ ताक-झाँक में ही रहता कौन आया और कौन गया। कन्हैया चिंता में दुबला होता जा रहा था। 


एक दिन कन्हैया सीढ़ियों से ऊतरते समय बेहोश होकर गिर गया। अपार्टमेंट के बाकी लोगों ने डॉक्टर को दिखाया। चेक अप में पाया गया कि उसे टी. वी. हो गया। चेहरे की चमक जाती रही थी।


कन्हैया मृदुला के चक्कर में कुंठा का शिकार हो गया था। कुंठा जरूरी नही कुछ गलत करने से ही हो। कभी-कभी कुछ नही कर पाने से भी कुंठा व्याप्त हो जाती है। किसी ने उसे शहर छोड़ देने की सलाह दे डाली।


सालों बाद एक मित्र ने कॉलेज के मित्रों का वाह्ट्सऐप पर एक ग्रुप बनाया। अब कन्हैया मृदुला के साथ अपना मोबाइल नम्बर देख प्रफुल्लित हो उठता है। नम्बर भी दोनों का कान्टेक्ट लिस्ट में फ्लैट की तरह ऊपर नीचे है। 


मृदुला जब भी बच्चों के फोटो ग्रुप में शेयर करती है और बच्चों से कन्हैया को मामा के नाम से परिचय कराती है तो कन्हैया का दिल धक् हो जाता है। तेजी से आँखे बंद कर ग्रुप से लेफ्ट कर जाता है और मन ही मन बुदबुदाता है जैसे भीष्म प्रतिज्ञा ले रहा हो..


ग्रुप में उसके बेहिसाब आवागमन पर बेखबर पुराने साथी भी समाधि लगा लिये है....


@डॉ विपिन पाण्डेय "व्याकुल"

रविवार, 3 जुलाई 2022

गुलाब पन्नों के

 


बहुत दिन हो गये थे पुराने कॉलेज गये हुयें। कैंटीन याद आ रहे थे। घंटों लाइब्रेरी में बैठ कर किताबों में गुम रहना मन को बेचैन कर रहे थे। आगरा के उस कॉलेज के अंतिम दिन हम सभी गमगीन थे। उदास थे पता नही कब मुलाकात होगी। एक डायरी हाथ में थी सभी एक-दूसरे का नाम पता लिख रहे थे। 


कई बार प्लान बनता फिर कैंसिल हो जाता। किसी को कोई इंन्टेरस्ट ही नही था। पत्नी भी कई बार झिड़क चुकी थी। क्या करेंगे वहॉ जाकर। मै चुप हो जाता।


सात दिन बाद पत्नी की भतीजी की शादी थी आगरा में। पैकिंग चल रही थी। मुझे भी खुशी थी जाने की। कम से कम 25 सालों बाद अपना कॉलेज तो देख पाऊँगा।


इंतजार की घड़ियां खत्म हुई। हम सभी आगरा के एक अच्छे से होटल में ठहराये गये थे। मुझे तो अगली सुबह का इंतजार था। सुबह ही नहा लिया था। पत्नी से मेरी खुशी देखी नही जा रही थी। मुझसे बोली, "ताजमहल चलेंगे क्या।" मैने बोला, "नही, अपने कॉलेज।" मुँह बनाकर चुप हो गयी थी वों।


मै सज धजकर ठीक 10 बजे कॉलेज प्रांगण में था। कोना-कोना मुृझे अपनी ओर खींच रहा था। मै पागल सा घूम रहा था। लाइब्रेरी पहुंचते ही मै सबसे पहले साहित्य वाले सेक्शन में पहुंच गया। बड़ी बेसब्री से एक उपन्यास ढूंढ़ने लगा। कई बार पूरे सेक्शन को छान मारा पर नही मिला। 


बड़े बेमन से बाहर जाने लगा तभी एक मैम मिली जिनके सफेद बाल बिखरे हुये बेतरतीब से कपड़े पहने हुये थी। बॉयें तरफ का कैनायन दाँत टूटा हुआ था। पुराने जमाने की टुनटुन लग रही थी। वो लाइब्रेरी स्टाफ थी शायद। मुझसे बोली, " आप क्या ढूंढ़ रहे है।" मैने बोला, "एक उपन्यास।"


उन्होनें एक पुराना सा बंद अलमारी खोला। बोली, "यहां देखिये.. शायद मिल जाये।" उपन्यास एक बहाना था मुझे तो उस पुस्तक के पेज नं. 54 पर रखे गुलाब को ढूंढ़ना था जो उसका रोल नं. भी था। अलमारी के दूसरे खाने में पुस्तक देखते ही मेरे आँखों में चमक आ गयी थी। जल्दबाजी में पन्ने पलटते ही वों सूखा गुलाब नीचे गिर गया था। मै उठाने ही जा रहा था। तभी मैम ने बोला, " राकेश!!!!!"


मै सन्न था उनको देख कर। मेरे मन में वही गुलाब वाली लड़की बसी थी। मै समझौता नही कर सकता था😃😃 मै बस यहीं बोल पाया.. "मै राकेश नही।"


किसी तरह घर आया। पत्नी बोली, "घूम आये कॉलेज।" 


मै कोमा से निकलने की कोशिश में था।😃


@डॉ विपिन पाण्डेय "व्याकुल"

मंगलवार, 21 जून 2022

हिचकियां

 ये

हिचकियां

सिर्फ

इंसानो के 

गले में

अटकी

नही होती..


इंसानों से

इतर

हिचकियां

समेट लेती है

यादों को

और 

मिला देती 

है

अपनों को

आपस में..


जैसे

पहाड़ टूट

कर जमीं

से मिले

या बर्फ

पिघल कर 

नदी में

या बहकते 

समुद्र के

ज्वार

तटों को

सराबोर कर दें....

@व्याकुल

शनिवार, 4 जून 2022

विश्व पर्यावरण दिवस


यही जून का महीना था। शादी में निमंत्रण था। जाना तो था ही। कपार फोड़ई में बज्जर कचौरी। सबेरे कलेवा में गरमागरम चना-चाय और जलेबी। फिर वापसी में बस की यात्रा। रात की कचौरी पच नही पायी थी ऊपर से बस के हिचकोले। माहौल बन रहा था। मुझे बस कभी शूट ही नही किया। बस की यात्रा हमेशा से मुझे गणित के सवालों जैसा लगता था। चक्कर आने लगते थे। इन सब चक्करों में सुबह खाये गये चनों का अबोध हत्या होना ही था। बस एक बार पल्टी होने की देर थी।


चचेरे भाई साथ में थे। मेरी हालत समझ चुके थे। बस रुकवा दिये थे। भऊजी के मायके जाना है। बस रुकी ही थी ये मारा पल्टी!!!!! अब आप नेताओं की पल्टी से तुलना नही कीजियेगा। उनके पल्टी में कुछ निकलता नही। सब अंदर ही जाता है।

साबूत चना बाहर आ गया था। भऊजी का मायका तीन किमी. से कम नही होगा। उल्टी के बाद प्यास लगती। अंदर की चक्की उलटी चलने लगी थी। रास्ते में चापाकल के पानी से प्यास बुझा कर थोड़ी दूर बढ़ता ही पल्टी हो जाती। 


हैरान-परेशान रास्ते में बैठने का सवाल ही नही था। रेगिस्तान जैसे सड़क के दोनों ओर पेड़ का नामो-निशान नही था। छॉव के लिये तड़प गया था मै पर भऊजी का घर आने तक चापाकल-पल्टी-चापाकल का खेल खेलता रहा था। 


ऐसा कभी किसी बालक के साथ न होवे इसलियें पेड़ अवश्य लगावें। 


विश्व पर्यावरण दिवस की हार्दिक शुभकामनायें🌳🌳🌳🌴🌴


@डॉ विपिन पाण्डेय "व्याकुल"

गुरुवार, 2 जून 2022

पंडोह का इनारा

 


चाँदनी रात थी उस दिन। चाँद बादलों से अठखेलियां खेल रहा था। ट्रेन के प्लेटफार्म से जाते ही स्टेशन भी वीरान हो चुका था। शायद यह अंतिम ट्रेन थी। स्टेशन मास्टर जंभाई ले रहे थे। उनके कक्ष में एक बड़ा सा लटकता बल्ब जल रहा था। हल्की सी हवा चलते ही झूलने लगता था। बाहर एक कुत्ता दोनों टाँगे आगे किये हुये अपना मुँह टिकाये हुये था। लग रहा था जैसे वो भी अर्धनिद्रा में हो। कुल मिलाकर स्टेशन पर तीन लोग थे। मै, कुत्ता और स्टेशन मास्टर।


सोचा स्टेशन से बाहर बाजार में कोई न कोई मिल ही जायेगा। पर सभी दुकानें बंद थी। दुकानों के बाहर खाट पर पसरे हुये लोग थे। खर्राटों की आवाज और भयावह लग रही थी। स्टेशन से घर दूर था। कोई साधन नही था। पैदल चलने का मन बना चुका था। 


सड़क पर अकेला चलता जा रहा था। कभी कभी बादल सड़क पर तैरते दिख जाते थे। मन हो रहा था क्यो इस अंतिम ट्रेन से चलने का भूत सवार हो गया था। जूता भी ऐसा था जो खट-खट की आवाज कर वीरानियों को चीर रहा था। जिससे कुत्तों की नींद में खलल पड़ रहा था। वों दबे पॉव नजदीक आकर भूँकने लगते। मै वही खड़ा हो जाता। प्रतिकार करके आफत मोल नही ले सकता था। माहौल शांत होने फिर आगे बढ़ जाता। 


लगभग 2 किमी. से ज्यादा चल चुका था। गॉव के अंदर प्रवेश कर चुका था। एक बाधा और थी। बचपन से जो चीज डराती आयी थी वह थी "पंडोह का इनारा" (कुँओ को गॉव में इनारा भी कहते है) पंडोह के इनारे में भूत-चुड़ैल है। कोई आज तक बच नही पाया, ऐसी बाते बचपन से सुनता आ रहा था। दूर से पंडोह का इनारा दिख रहा था। भूत दिमाग में तैरने लगे थे। कदम ठीठक रहे थे। जैसे-जैसे "पंडोह का इनारा" आ रहा था डर बढ़ता ही जा रहा था। तभी हनुमान चालीसा का पाठ तेज तेज पढ़ने लगा था। "भूत पिशाच निकट नही आवै..." वाली पंक्ति के बाद बढ़ ही नही पा रहा था। आँखे सीध मे कीये हुये पंडोह के इनारे को जैसे ही पार किया जान में जान आयी। 


घर पहुंचते ही पिता की डांट मिली। इतनी रात को खाने में कुछ नही मिलेगा। चुपचाप सो जाओ। 


पर मेरी जान "पंडोह के इनारे" पर ही लटकी थी। नींद कैसे आती!!!!!!


@डॉ विपिन पाण्डेय "व्याकुल"

रविवार, 8 मई 2022

मॉ की बिंदिया


मुझें कुछ भी अगर पसंद था

मॉ के माथे की तमाम बिंदिया


बिंदियों को जतन से रखती थी

उसी ऊँट बने डिब्बें में 


उनके माथे की बड़ी बिंदी

हमेशा ही खिसक जाया करती


कभी पसीने से मोर्चे में

या जीवन के झंझावतो से


बिंदियों को सेट करती थी

बड़े चाव से छोटे से शीशे से


चेहरे की शिकन छुपा लेती थी

उन लाल-हरी बड़ी सी बिंदियो से


लापरवाह हो चली है मेरी मॉ भी

भूल जाया करती है बिंदियो को लगाना


अब उन्हे ऊँट बना डिब्बा दिखता नही

बूढ़ी हो चली है मेरी मॉ भी


मन होता है कह दूँ मॉ से

पर पिता का विछोह गुम कर गयी मॉ की बिंदिया भी


@विपिन "व्याकुल"

रविवार, 1 मई 2022

तुलसीदल

हर घर के आँगन में या दुआरे में तुलसी का पौधा देखने को मिल जाता है। अध्यात्म व श्रद्धा से जुड़े इस पौधे को भारत में शायद ही कोई ऐसा होगा जो अपरिचित होगा। 


मै 16 वर्ष का था जब छोटे बाबा को उनके अंत समय में तख्त से ज़मीन पर दक्षिण दिशा में पैर करके लिटा दिया गया था। उल्टी सांस चल रही थी। घर के सभी सदस्य बारी-बारी से तुलसी गंगाजल उनके मुँह में रखा जाता है।


ऐसा कहा जाता है किं तुलसी धारण करने वाले को यमराज कष्ट‌ नहीं देते। मृत्यु के बाद दूसरे लोक में व्यक्त‌ि को यमदंड का सामना नहीं करना पड़े इसल‌िए मरते समय मुंह में गंगा के साथ तुलसी का पत्ता रखा जाता है।


मै कुछ दिन पहले एक अखण्ड रामायण सुनने हेतु गया था वहाँ कथा वार्ता आदि में आने के लिये और प्रसाद रूप में तुलसीदल बाँटा जाता है । कहीं कहीं मंदिरों और साधुओं वैरागियों की और से भी तुलसीदल निमंत्रण रूप में समारोहों के अवसर पर भेजा जाता है ।

@विपिन "व्याकुल"

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

पृथ्वी दिवस

1) ठीक-ठीक सन् याद नही पर वो समय सन् 1985 से सन् 1990 के बीच का रहा होगा। उस समय हमारे गॉव (सनाथपुर,सुरियाँवा, भदोही) के अधिकांश कुँए सूख चुके थे। पूरे गॉव में सिर्फ 1-2 कुँओं में ही पानी रहा होगा। सारे गॉव का लोड यही 1-2 कुँए झेलते थे। स्थिति बाद में ठीक कैसे हुयी याद नही। ये बात गर्मियों की है। शायद बरसात के आने पर ठीक हुयी होगी। 35 वर्ष पहले ऐसी भयावह स्थिति हुआ करती थी।


2) घर के बगल में बगीचा हुआ करता था। तब घर में कुल सदस्यों की संख्या 10-15 की रही होगी। एक मकान में सभी रहते थे। ये 1990 की बात होगी। अब चार मकान है। चारो मकानों में कुल सदस्य 6 है। बगीचा गायब है। ये विकास हुआ है गॉव का। निरीह प्रकृति का दोहन।
3) प्रयागराज के मीरापुर मोहल्ले में नल से पानी की आपूर्ति ठप्प जब भी होती थी। महिला उद्योग इंटर कॉलेज में बना हुआ कुँआ ही आसरा बनता था। ये घटना भी उसी समय का है। 
4) पहले दो लेन का हाइवे होता था। चार लेन का हुआ। 6 लेन। अब 8 लेन। बगल के पेड़ नदारद। नये के रोपड़ की कोई निशानी नही।
5) बचपन के गौरैया, गिद्ध और पता नही कितने पक्षी दिखने बंद हो गये। पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ा तो कोई संभाल नही पायेगा। कोविड की भयावहता के सामने सारा विकास धरा रह गया था।
6) सबमर्सिबल घर-घर में व्याप्त है। गॉव हो या शहर। दोहन का कोई हिसाब नही। जनचेतना सुषुप्ता अवस्था में। 
सन् 1970 से हर वर्ष "पृथ्वी दिवस" मनाया जाने लगा। हर वर्ष "पृथ्वी दिवस" के लिए एक खास थीम रखी जाती है। पृथ्वी दिवस 2022 की थीम 'इन्वेस्ट इन आवर प्लैनेट' (Invest in Our Planet) है। मानव जाति की भूख खत्म नही हुयी है अभी तक। इन्वेस्ट क्या करेंगे!!!!!!!!!!!!

@विपिन "व्याकुल"

गुरुवार, 14 अप्रैल 2022

डरा रहता हूँ

डरा रहता हूँ...

डरा ही रहता हूँ..


कंपित मन बुजुर्गों के बिछड़ने से

या गंभीर से खामोश लफ्जों से


बड़ों की बढ़ती झुर्रियो से  

शुन्यता पर उलझतें नजरों से


महफ़िलो में सधे अल्फ़ाजो से

कोठरियों में हाफते फेफड़ों से


काँपते उँगलियों की थपकियों से

अन्तर्मन में बहते अश्रुओं से


ढलते उम्र की शीर्षता से

या घाटी से झुके कंधो से


अवसान की सीढ़ियों से

या डग मग बढ़े कदमों से


डरा रहता हूँ...

डरा ही रहता हूँ..


@व्याकुल

मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

बढ़ते भाव और टोटकहा नींबू

 


हमारे पड़ोस के दो लोगों में जबर्दस्त झगड़ा होता था। ये दोनो ऊपर नीचे रहते थे। ये तो पता नही कि नीचे वाले के आँगन में कौन नींबू और कपड़े में बँधा हुआ सिंदूर फेंक जाता था। नारियल भी होता था। पूरे मोहल्लें में आनन्ददायक माहौल रहता था। एक बार कई दिनों तक कोई आवाज नही आयी। मोहल्ला शूकून में था। 


लम्बे अंतराल के बाद एक दिन फिर जोर से झगड़े की आवाज आने लगी। दोनों के झगड़े में एक पक्ष से मै भी था। मुझे लग रहा था इसमे किसी तीसरे का हाथ था जिसने मजे लेने के लिये ये सब किया होगा। विरोधी पक्ष के पैरोकार मुझसे एक कदम आगे निकले नारियल मुँह मेें डालकर बोले," आप लोग फालतू में घबड़ा रहे है, मुझे देखिये नारियल खा गया और कोई फर्क नही पड़ा"


खैर उनके नारियल खाते ही झगड़ा खत्म हो गया। आज जब नींबू के दाम इतने बढ़ गये है तो शायद विरोधी पक्ष के पैरोकार नारियल खाने के साथ-साथ नींबू भी घर ले जाते और पत्नी के साथ शिकंजी पी रहे होते और ऐसे ही झगड़े होने की उन्हे दरकार होती।


@विपिन "व्याकुल"

रविवार, 10 अप्रैल 2022

हरि मंदिर में राम नवमी

 

"भए प्रगट कृपाला दीनदयाला |

कौसल्या हितकारी।

हरषित महतारी मुनि मन हारी |

अद्भुत रूप बिचारी॥...."


मॉ की पूजा में ये स्वर आज के दिन विशेष रूप से सुनायी पड़ता था। प्रयागराज के मीरापुर मोहल्ला में हरि मंदिर में आज के दिन हर्षोल्लास का माहौल रहता था।

इस दिन भंडारे का भी आयोजन होता था। मेरी आयु बहुत ही छोटी थी। मुझे तो सिर्फ भंडारा ही समझ आता था। हरि मंदिर में प्रवचन का भी आयोजन होता था। मजे की बात ये थी कि ढोलक हमारे मुहल्ले के एक मुस्लिम बजाया करते थे। 

हरि मंदिर के ट्रस्टी में ज्यादातर पंजाबी लोग है जिनके पूर्वज सन् 1947 की त्रासदी झेले थे।

आज भी जब प्रयागराज जाता हूँ। हरि मंदिर मे अवश्य ही जाता हूँ। अब इस मंदिर में भीड़ कम ही देखने को मिलता है। मन दुःखी हो जाता है। सारी भीड़ का खिंचाव मॉ ललिता मंदिर में दिखायी देता है।

आज भी इस मंदिर में जाता हूँ तो दॉये हाथ की अनामिका अपने-आप बजरंग बली की मूर्ति को छू जाती है... जैसे मस्तक पर खुद टीका लगा लूँ... पर आयु अब बाल मन पर हावी हो चुका है...



राम नवमी की आप सभी को बधाई व शुभकामनायें....

@विपिन "व्याकुल"

शनिवार, 9 अप्रैल 2022

गॉव और बम्बई की नौकरी

 

हमारे एक मित्र की आई. आई. टी. की पढ़ाई करने के बाद नौकरी किसी सॉफ्टवेयर कम्पनी में लगी थी। गॉव में जब भी कोई काम-धन्धें के विषय में पूछता। वो बड़े मासूमियत से जवाब देता,"फलॉ कम्पनी में है।" लोग ज्यादा कुछ जवाब नही देते।

कोई समझ ही नही रहा था कि देश के बड़े संस्थान में बहुत ही परिश्रम से प्रवेश लिया था। चार साल मेहनत के बाद इंजीनियरिंग पूर्ण कर पाया था। 

गॉव के एक बुजुर्ग एक दिन बोले थे। बेटा, " तुम गॉव के बाकी युवाओं की तरह नौकरी छोड़ गॉव वापस न आना।"

मित्र ने बोला था, "चाचा, मै इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद कम्पनी में गया हूँ"

वों बुजुर्ग ज्यादा कुछ समझ नही पायें।


थोड़ा और डिटेल में गया तो पता लगा कि गॉव के बहुतेरे युवा जब भी बम्बई जाते थे तो गॉव में उस कम्पनी की बढ़-चढ़ कर बढ़ाई करते थे। चार महीने बाद जब घर वापसी करते थे तो कम्पनी की खस्ता हालत का रोना रो देते थे जिससे गॉव वालों का कम्पनी शब्द से ही विश्वास उठ चुका था। 

मेरे मित्र ने भी कसम खा ली थी कि अब गॉव में लोगों को सिर्फ इंजीनियर ही बताऊँगा नौकरी के नाम पर।

@विपिन "व्याकुल"

बुधवार, 23 मार्च 2022

खम्भा - कविता

 


घर के आँगन में कदम जो लड़खड़ायें थे

खम्भे को पकड़ लिया करता था मैं


छुपा लेता था खुद को दोस्तों से

छुपा-छुपी खेल में गोल-गोल खम्भे से


डेहरी की सीढ़ियों पर बाबा उतरे थे 

कोई पुत्र सा ये खम्भे सहारा बनी थी 

 

कलियुगी संस्कारों ने जो बाहर किया घरों से

बोतलों का पर्याय बना दिया दिवाने बेवड़ो ने


नाम लेने से इस कदर डरा हुआ है "व्याकुल"

बदनाम जो किया खम्भों को ज़माने ने।।


@व्याकुल

रविवार, 13 मार्च 2022

The Kashmir Files



"द कश्मीर फाईल्स" फिल्म की सोशल मीडिया पर चर्चा थी। खुद को देखने से कैसे रोक सकता था। कल दिनांक 11 मार्च को फिल्म देखना था पर टिकट उपलब्ध नही हो पाया। फिर कल शाम को ही आज के लिये टिकट लेना पड़ा। गज़ब की भीड़ थी आज। हिन्दुस्तान बदल रहा है।


हकीकत पर आधारित फ़िल्म। कैसे नरेटिव सेट होता आया भारत विरोधी गतिविधियों की। विवेक अग्निहोत्री द्वारा निर्देशित फिल्म में अनुपम खेर, मिथुन चक्रवर्ती व दर्शन कुमार का अभिनय गज़ब का रहा। दर्शन कुमार द्वारा कश्मीर को ज्ञान की स्थली के रूप में वर्णन रोमांच कर देने वाला था। कई बार फिल्म ने दर्शकों को रूलाया। कैप्शंस हिन्दी भाषीय जनमानस के लिहाज़ से हिन्दी में होता तो और बेहतर होता।


मुझे 2002 के कश्मीर चुनाव की यादों में ले गया ये फ़िल्म। कैसे रास्तों के किनारों पर कश्मीरी पंडितो के वीरान घर दिखे थे। हिन्दुस्तान में मील का पत्थर साबित होगा ये फिल्म। मै सुझाव दूँगा अवश्य फिल्म देखने जाये वो भी सिनेमाघरों में।

@विपिन "व्याकुल"

https://youtu.be/Sj7mSL1e0qA

बुधवार, 9 मार्च 2022

मुगालता




राबता उजालों पर क्या करना

सूकूँ तलाशने लगें अँधेरों को


दर्द जो दब गयी हँसी में

दॉव क्या लगाना चेहरों पर


साँसों ने भी तमाम उम्र देखा

दम घुट कर जो मुकर जाना है


बसेरा रह गया किनारों पर

बोली जो लग गयीं बाजारों में


शागिर्द था वों ताश के पत्तों का

खाली ही रहा जाने से पहले


मुगालते का टूट जाना ही था "व्याकुल"

क़रार भी खूब रहा फकीरी का


@व्याकुल

मंगलवार, 8 मार्च 2022

लेमनजूस टॉफी पाँच पैसे के

इसका भी जमाना था । इसका उपयोग या तो टॉफी खाने में करते थे या गेंद खरीदने के लिये चंदा के तौर पर।

पाँच पइसे के तीन लेमनजूस टॉफी मिल जाती थी । टॉफियों पर रैपर नही होता था । संतरा नुमा टॉफियों का स्वाद संतरा जैसा होता था । कुछ गोल टॉफियाँ भी आती थी जिस पर लाल-नीली-हरी धारी बना रहता था। 


रबर की गेंदे सस्ती होती थी पर उछाल बहुत लेती थी। कैनवास की गेंदे ज्यादा सही होती थी पर कैनवास महँगी होती थी। जेब में हाथ डाल चेक कर लिया करता था। गलती से फटी ज़ेब न हो बस।

@व्याकुल

मंगलवार, 1 मार्च 2022

नाता प्रथा

"नाता प्रथा" राजस्थान की पुरानी प्रथाओं में से एक है। आजकल प्रचलित "लिव-इन" का ही प्राचीन रूप कहा जा सकता है। यह गुर्जरों या कुछ ही जातियों तक सीमित है। इस प्रथा में विवाहित स्त्रियाँ अपने पतियों को छोड़ कर किसी के भी साथ रह सकती है बिना किसी रीति-रिवाज के। इसे "नाता करना" भी कहते है।

हो सकता है "नाता प्रथा" विधवाओं व परित्‍यक्‍ता स्त्रियों को सामाजिक मान्यता देने के लिये बना हो।

             चित्र: गूूगल से
इसमें हिंसा के बढ़ जाने से नकारात्मक रूप सामने आने लगा है। इस वजह से कुछ लोग कुप्रथा भी कहते है।

@व्याकुल

रविवार, 27 फ़रवरी 2022

सूखे पत्ते


पतझड़

के मौसम

में

पेड़ से

गिरते

झरते

सूखे पत्ते...



तंद्रा

भंग करती

हर-पल

प्रतिपल

अहसास कराती

साथ होने का

जैसे

छाँव दिया था

कभी....


बसंत 

भले ही गढ़े

खुद को

नयेे कोपलों

से 

पर

ख्वाहिश

रहती

उन सूखे

पत्तों की

जो

गिरते रहे थे

सर पर

जैसे

बुजुर्ग सा

आशीर्वाद

दे रहे हो

काँपते-हिलते

हाथों से.....


@व्याकुल



बुधवार, 23 फ़रवरी 2022

बिन्दौरी


राजस्थान में एक प्रथा बिन्दौरी के नाम से प्रचलित है। इसमे शादी के एक दिन पहले वर को घोड़े पर बैठाकर गाजे-बाजे के साथ सारे गाँव में घुमाया जाता है। इसमे वर के सारे मित्र व रिश्तेदार सम्मिलित होते है। इसमें जिस रास्तें से बिन्दौरी प्रथा निभाते है उस रास्ते से घर वापसी नही करता। 


               चित्र: गूगल से

राजस्थान के लिये यह सुखद है कि न सिर्फ वर वरन् वधु भी बिन्दौरी करती है। यह बेटियों द्वारा समाज में एक नयी दिशा दिखाने का कार्य करेगा।

@व्याकुल

रविवार, 20 फ़रवरी 2022

गुनाह



शक करते रहे थे उम्र भर

चुगली थी इस कदर गैरों की...


चर्चा शहर में आम हो गया

शहर फिर बदनाम हो गया..


वो इस कदर नादान थे

यूँ बेखबर हो हवाओं से..


रोकते भी कैसे खुद को

मचले अरमान थे अदाओं पे


"व्याकुल" खुद के भी न रहे

जो कातिल हो गये गुनाहों के..


@व्याकुल

महादेव

महाशिवरात्रि, भगवान शिव का प्रमुख पर्व है, हर वर्ष बड़े ही जोर शोर से मनाया जाता है इस पर्व पर आप सभी को नमन 💐🙏🏻


व्यक्त करूँ

वाणी से 

कैसे

या धृष्टता करूँ

देवो के देव

महादेव का

या पढ़ लू

शिव पुराण संहितायें

या पर्व 

मना लू

महाशिवरात्रि का

पर तिथि हो

फाल्गुन कृष्ण 

चतुर्दशी का...


किस रूप में मनाऊँ

माँ पार्वती की 

तपस्या समझु

या

वर्षगाँठ मनाऊँ

वैवाहिक

पवित्र सूत्र का

या 

प्रकाट्य लिंगरूप 

का..



शिव 

भुक्ति मुक्ति

दाता

महामृत्युंजय जप

काल बने

आसुरियों का

कौन फैलाये

भ्रान्ति ऐसे अजन्मा 

का....


बिछौना है

मृगछाला तेरा

निवास है

हिम चोटी

आराधना करे

सम जग तेरा

विस्मृत कर     

अपराध करे...


जग पुकारे

काम निहंता

अधुना जगत

लिप्त हो जिसमे

धारण हलाहल

करे कण्ठ में

नाम है

नीलकण्ठ जिसका...


कष्ट

भक्त का

द्रवित करे

जिसे

दानी बन

लुटा दे 

जो भोला 

रुष्ट हो

भस्म करे 

जग सारा...


सह न सके

विछोह

सती का

कर ताण्डव

जग हिलाये

धरा हिली

भूचाल आया

आवंदन करू

महेश्वर का...


रूद्र रूप

धर

करता 

दुख का नाश

कहे जाते जगत्स्वामी

लिंगम रूप

ब्रहांड का

मोहक हर

रूप तेरा

क्यो करे न नमन

जिसका...


वन्दन हो

उस

अनुग्रही का

सौम्य है

नृत्य देव

पंचामृत से

पूजा जाय

मस्तक सोहे

शीत चन्द्र सी

गले डाल 

साँप की माला

वीतरागी

कहा तू जायें

समाहित ब्रह्माण्ड 

उस अनादि में

जिनका जश

हर जन

गावें...

@व्याकुल

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2022

कलेवा - 2



राजन पर मानो पहाड़ टूट पड़ा हो। वह बेचारा असहाय हो गया था। उसे समझ नहीं आ रहा था किं उसकें साथ क्या हो रहा है। उसने नगीना फिल्म का एक गाना बहुत सुन रखा था,

"आज कल याद कुछ और रहता नहीं" 

गीत माला में यह गाना उसने कई बार सुना था। 

तभी उसको पता चला किं पुरानी बाजार के पास हीमांक टॉकीज में नगीना फिल्म लगी है। उसे वह फिल्म इतनी अच्छी लगी कि वह चारों शो प्रतिदिन देखने लगा। घर में पैसे नहीं थे। पाँच किलो गेहूं रोज घर से ले जाता था। उसे बेचकर फिल्म के चारों शो के टिकट खरीद लेता था और सुबह 11:00 बजे से लेकर रात को 12:00 बजे तक टॉकीज में बैठा नगीना फिल्म देखा करता था।

कभी-कभी रो पड़ता था वों। जब उसके कानों पर "भूली बिसरी एक कहानी" गानें की लाईन सुनाई पड़ती थी। बुश रेडियों के लिये तड़प उठता था वों।

उसके घर वाले बहुत ही परेशान थे नगीना फिल्म देखने के बहाने वह अपने दुःखी मन को कहीं बहला लेना चाहता था। कुछ दिन तक उसकी पत्नी को कुछ भी समझ नहीं आया था। जब उसकी पत्नी को लगा मैंने रेडियो को रास्ते से हटा कर बहुत बड़ी गलती की है। उसने ठान लिया था की मुंह दिखाई में मिली हुई रकम से राजन के लिए नई रेडियो ला कर देगी।


अगली बार मायके से ससुराल आते समय उसने राजन के लिए रेडियो खरीद लिया था उस दिन राजन के लिए खुशगवार सुबह थी जब उसने सुबह 6:00 बजे विविध भारती में भक्ति संगीत सुना था। 

अब क्या था राजन फिर से अपनी पुरानी रौ में आ चुका था। उसकी दुल्हन भी बहुत खुश थी किं राजन अब घर में ही रहने लगा है।

आज उसने जीप कम्पनीं की बैटरी भी थोक में खरीद लिया था।


@विपिन "व्याकुल"

रविवार, 13 फ़रवरी 2022

गॉव की ओर


कुछ 

ठहराव लें

प्रतिदाय

करें

उन हवाओं का 

जो आज

भी

फेफड़ो

को

निर्मल कर

रही...


नथुने तक

माटी की 

सोंधी खुशबु

उच्चस्तरीय

मानकीय

इत्र से भी

टिकाऊ...


कितना दूर 

का सफर

रहा

गॉव से 

शहर तक का

सात

समुन्दर

भी लाँघ

गये

माटी की

परीक्षा

आखिर

कब तक....


स्नेह सिंचित

कर तुम्हे

बहुक्षम बनाती

याद करो

पोखरा

भैस की

सवारी कर

खुद यमदूत

बन जाया

करते थे....


अश्रु मिश्रित

आमंत्रण

स्वीकार कर

लो

और

लौट जाओ

जड़ 

की ओर....


@व्याकुल

पुलवामा


पुलवामा के शहीदों को नमन💐🇮🇳


भारतीय वीर जवानों ने अपने पराक्रम से न सिर्फ़ देश का मान रखा वरन् दुश्मनों के दाँत भी खट्टे कर दिये..इसी को ध्यान में रखते हुये एक कविता:


तपती दिवा-मध्य हो

या कँटीले रास्ते

पग बढ़ चलें

जहाँ दुश्मनो की कतार हो..


गिद्ध सी निगाह हो

या लक्ष्य को भेदना 

अपलक अचूक हो

ये हिमालयी बाँकुरे...



प्रगलित लौह सा भुज हो

या कवच सा वक्ष हो

चण्डी का अवतार हो

या प्राकृतिक दिवार हो..


भूख हो या प्यास हो

डिगे न लाख आँधी हो

शिकन न आये आन पर

हौसलो की उड़ान हो...


@व्याकुल

रविवार, 6 फ़रवरी 2022

चंदा मामा आरे आवा पारे आवा नदिया किनारे आवा


"चंदा मामा आरे आवा पारे आवा नदिया किनारे आवा ।

सोना के कटोरिया में दूध भात लै लै आवा

बबुआ के मुंहवा में घुटूं ।।"

आवाहूं उतरी आवा हमारी मुंडेर, कब से पुकारिले भईल बड़ी देर ।

भईल बड़ी देर हां बाबू को लागल भूख ।

ऐ चंदा मामा ।।

मनवा हमार अब लागे कहीं ना, रहिलै देख घड़ी बाबू के बिना

एक घड़ी हमरा को लागै सौ जून ।

ऐ चंदा मामा ।।


https://youtu.be/R7zBQmlKb60


बचपन में ये गाना सुनता रहा हूँ... खाना खाने का मन न होते हुये भी मुँह खुल जाता था। ये गाना सुनकर लगता था चंदा रूपी मामा बस आने ही वाले है। मुझे लगता है 70 व 80 के दशक में घर-घर तक बहुत ही लोकप्रिय था ये गाना। इस गाने के बोल अवधी बोली के पर्याय है। इस गाने को लिखने वाले मजरूह सुल्तानपुरी सुल्तानपुर के थे तो स्वाभाविक है।

ऐसी अवधी गीत को गाने व जन-जन तक ले जानी वाली सुर कोकिला को मेरा नमन....आज दिनांक 6 फरवरी, 2022 को उनकी पुुुण्य तिथि पर मेरी भावपूर्ण श्रृद्धांजलि...

@व्याकुल

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2022

जाति या स्टेट्स



बहुत दिनों से इस पर लिखने की सोच रहा था पर विषय की संवेदनशीलता को लेकर लिखने में संकोच कर रहा था। पहलें बचपन की  2-3 घटनाओं का उल्लेख करना चाहूँगा-

1) प्रयागराज में एक विशेष जाति के भैया दूध लेकर आते थे। उनके आने और मेरे स्कूल जाने का समय एक ही हुआ करता था। अधिकतर दिनों में उनके साथ ही सुबह का नाश्ता होता था। कभी जाति जैसा कोई शब्द नही सुना था और न ही कोई चर्चा।

2) पिछले कई वर्षो से जब भी गॉव जाता हूँ 2-3 विभिन्न जातियों के यहाँ से मट्ठा.. दही व दूध इत्यादि खाने को मिल जाता हैं। आज भी कोई भेदभाव नही दिखता।

ऐसे कई दृष्टांत आप हमेशा देखते होंगे पर चुनाव के समय जातियों के बीच की खाई कुछ ज़्यादा ही बढ़ जाती हैं। शादी-विवाह हो... या खान-पान व्यक्ति का स्टेट्स ही देखा जाता है। आपने कभी इस बात पर ध्यान ही नही दिया होगा कि आप साल भर शायद ही अपने स्टेट्स से बड़े लोंगो के यहाँ गये होंगे। शायद कुछ अपवाद को छोड़कर। बहुत अमीर हो तो सिर्फ स्टेट्स ही चलता है। जाति कोई मायने नही रखती। भीड़ बढ़ानी हो या आपका दुरुपयोग करना हो तो जाति का महत्व और बढ़ जाता हैं। चुनावी मौसम है भीड़ बढ़ाने का मौसम।

हिंदुस्तान विविधताओं का देश है... जाति.. उपजाति... उप-उपजाति..लोंगो को अपने में समाहित करने की कला हमारें खून में है कितने विदेशी आये यहाँ की मेजबानी के कायल हो कर रह गयें..शायद यह कला हम अपनों के मध्य में ही रह कर सीख पायें... देश की वैविध्यता का आनंद लीजिये और जाति भूलकर अपने स्टेट्स तक ही सीमित रहिये....

@विपिन "व्याकुल"

शनिवार, 29 जनवरी 2022

शहीद दिवस



लक्ष्य

साधते

चीटीयाँ

कण-कण

समेटते...


सीमाओं 

पर

रक्त

बहाते

सहते वार

हाड़

कवच

से...


लघु

प्रयास

जन-जन

का

बन

अदृश्य

शक्ति

राष्ट्र निर्माण का...


नमन 

चेतन-अचेतन

राम-शबरी

पल-पल

शहीद

होते

प्रतिपल

लक्ष्य

भेंदते


@व्याकुल

अस्तित्व

 


शून्य ही

रखना

जुड़ सकू

कही भी

नही सम्भाल

पाऊँगा

दम्भ

मद

सा 

खुद को...


अट्टहास

कराने को

न 

बनू

दशानन

या

जलाया

जाऊँ

जन जन में...


आहार

बनू

चीटियों का

और 

ओढ़

सके

कोई उरंग

ढेर को....


@व्याकुल

शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

साझा

साझा 

कभी 

टिकता नही

मन का

ख्याल से

वाणी का

विचार से

राह का

पथिक से...


साझा

जिंदा

रहता है

जीवन की 

संझा व

चंद

लकड़ियों

 में....


@व्याकुल

शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

बॉयोग्राफी

किसी ने मुझसे बहुत वर्ष पहले कहा था... स्वास्थ्य ठीक करना हो तो अपने birthplace पर जाओ.. क्योंकि ये शरीर उसी माटी की है उस माटी से मिलकर प्रफुल्लित हो जाती है। हर्ष का अनुभव स्वंयमेव हो जाता है... आज बॉयोग्राफी एक सोशल मीडिया में लिखते वक्त कई बाते आँखों के सामने तैर गये....

कहानी सनाथपुर, सुरियाँवा, भदोही से शुरु होती है। कच्चा मकान तो नही कच्चे दलान को देखा था। ताश व आती-पाती बगीचे में दिन भर खेलते रहने... पुरानी बाजार में कपड़ा प्रेस कराना... डाकखाने में उत्सुकता से चिट्ठियों को खोजना फिर गॉव में उसका पत्र पढ़कर सुनाना... चौथार में आज भी पकोड़े का आनन्द लेना क्योंकि उसमे देशीपना की सोंधी महक होती थी। क्रासिंग के पास भरोस की दुकान की मिठाई व चाय से बच कौन पाया। टिनहवा टॉकिज व एक बंद कमरा में VCR से सिनेमा का आनन्द। मेरी बचपन से शिक्षा इलाहाबाद में होने के बावजूद छुट्टियों में चचेरे भाई के साथ उनके स्कूल मनीगंज.. जूनियर हाई स्कूल में एस. डी. आई. की आयत पर प्रश्नोत्तरी फिर सेवाश्रम कॉलेज में नकल कराना (चूँकि उस भाई से मै एक कक्षा आगे था)। बी.एल.... पी. पी... अपर इण्डिया... बुन्देलवा.... बम्बईया... (काशी एक्सप्रेस नही जानता था)... इलाहाबाद स्टेशन के पूछताछ काउंटर पर बम्बईया ट्रेन पूछना.. आस-पास वालों का व्यंग्यात्मक मुस्कान.. ए. जे. वा टरेन जंघई तक का सफर बाकी साथी विद्यार्थियों के साथ सफर गर्मियों में किसी पहाड़ों के सफर कम नही था। मेरा उत्तर मेरे बॉयोग्राफी में और मेरे अच्छे जीवन का यह बेहतरीन हिस्सा सदैव रहेगा जब भी कोई पूछेगा तुमने क्या जीवन जीया आज तक... 

@व्याकुल




गुरुवार, 20 जनवरी 2022

उदारीकरण का इश्क

नब्बें का दशक और विश्वविद्यालयी माहौल। आजकल का जो माहौल आप देख रहे उसकी बीज नब्बे के दशक में पड़ चुकी थी। उदारीकरण ने माहौल बदल कर रख दिया.... 


उदारीकरण

और दशक नब्बे का

सब कुछ

खुल्लम-खुल्ला

जवां होते

धड़कने

खुले 

बाजार

चपेट

में

इश्क

था

लपेट में

शर्ट नये

नये चश्में

गिफ्ट नया-नया

फिल्मीकार

भी

गुनगुना उठे

ईलू ईलू

कह उठे

मुशरन

बनते

धड़कने

नैन भी

मुक्त हुयें

इश्क

बेखबर

हुआ

नियंत्रण

प्रतिबंध

मुक्त

हुये

वो दौर

ही

बिक गये..


लाइसेंस

कत्ल 

का

शिकार

हुआ

चल पड़ी

गोलियाँ..

छल्ले

उड़ाते

युवतियां

कर

इतिहास

तोड़ते।


@व्याकुल

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...