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बुधवार, 9 मार्च 2022

मुगालता




राबता उजालों पर क्या करना

सूकूँ तलाशने लगें अँधेरों को


दर्द जो दब गयी हँसी में

दॉव क्या लगाना चेहरों पर


साँसों ने भी तमाम उम्र देखा

दम घुट कर जो मुकर जाना है


बसेरा रह गया किनारों पर

बोली जो लग गयीं बाजारों में


शागिर्द था वों ताश के पत्तों का

खाली ही रहा जाने से पहले


मुगालते का टूट जाना ही था "व्याकुल"

क़रार भी खूब रहा फकीरी का


@व्याकुल

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