अनचाहा
प्रकाट्य
धरा पर
अन्जानें
रिश्ते...
नित्
सामंजस्यता
बैठाते
धूर्तता
लम्पटता से
सने लोग...
सफर तय
कर लूँ
स्थूलता का
देह बाँट दूँ
पंचतत्वों में
और
लौट जाऊँ
शून्य में
लिये सूक्ष्मता
को
अपने साथ...
©️व्याकुल
आस पास तड़पते लोगो को देखना और कुछ न कर पाना कितनी कोफ़्त होती है न। व्याकुलता ऐसे ही थोड़े न जन्म लेती है। कितना तड़प चुका होगा वो। रक्त का एक एक कतरा बह रहा होगा। दिल से कह ले या आँखों से। ह्रदय ग्लानि से कितना विदीर्ण हो चुका होगा। पैर भी ठहर गए होंगे। असहाय इस दुनिया में सिवाय एक निर्जीव शरीर के।
अनचाहा
प्रकाट्य
धरा पर
अन्जानें
रिश्ते...
नित्
सामंजस्यता
बैठाते
धूर्तता
लम्पटता से
सने लोग...
सफर तय
कर लूँ
स्थूलता का
देह बाँट दूँ
पंचतत्वों में
और
लौट जाऊँ
शून्य में
लिये सूक्ष्मता
को
अपने साथ...
©️व्याकुल
मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...