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बुधवार, 21 जुलाई 2021

मोल

कबाड़ी ढूंढ़ लेता हूँ

धुँधले होते पन्नों को..


मुस्कुरा भी लेता हूँ

सौदा होते देखता हूँ..


पसंद है खुद को बेचना

कीमत लगा देखता हूँ..


आँखे खुली रह गयी

मोल कौड़ी के बिकता देखता हूँ..


मुझे चौराहे पर खड़ा देख

सिक्के उछाल दिये दोस्तों ने..


धुँआ बन यूँ उड़ा वहम

पीठ पर खंजर घोपते देखता हूँ..


@व्याकुल

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...