FOLLOWER

सोमवार, 4 जुलाई 2022

सफर कुंठा का

 


पूना में कन्हैया का फ्लैट उसी अपार्टमेंट में था जिस अपार्टमेंट में मृदुला रहती थी। परन्तु मृदुला का फ्लैट उसके ऊपर वाले तल पर था। मृदुला बहुत ही खूबसूरत थी। कॉलेज के दिनों से उसके बहुत चाहने वाले थे। कन्हैया व मृदुला कॉलेज में एक ही सेक्शन में थे। 


कन्हैया के मन में मृदुला के प्रति बहुत ही चाहत थी पर भावनाओं के इजहार में असमर्थ था। कॉलेज के दिनों में मृदुला साधारण वस्त्र पहनती थी पर प्रशिक्षण के दौरान पूना में कदम रखते ही जैसे उसे पंख लग गये हो। 


कन्हैया से वक्त बेवक्त बाहर की खरीदारी करा लिया करती थी। कन्हैया इतने में ही बहुत ही खुश रहता था। 


इधर कन्हैया महसूस कर रहा था कि अब मृदुला पहले जैसी बात नही करती। अगर कभी लिफ्ट में मुलाकात हो जाती तो वो नजरें बचाती हुई निकल जाती। मृदुला के फ्लैट में आने वालों की संख्या बढ़ती ही जा रही थी।  कन्हैया मन ही मन कुढ़ता जा रहा था। 


वों दिन रात सिर्फ ताक-झाँक में ही रहता कौन आया और कौन गया। कन्हैया चिंता में दुबला होता जा रहा था। 


एक दिन कन्हैया सीढ़ियों से ऊतरते समय बेहोश होकर गिर गया। अपार्टमेंट के बाकी लोगों ने डॉक्टर को दिखाया। चेक अप में पाया गया कि उसे टी. वी. हो गया। चेहरे की चमक जाती रही थी।


कन्हैया मृदुला के चक्कर में कुंठा का शिकार हो गया था। कुंठा जरूरी नही कुछ गलत करने से ही हो। कभी-कभी कुछ नही कर पाने से भी कुंठा व्याप्त हो जाती है। किसी ने उसे शहर छोड़ देने की सलाह दे डाली।


सालों बाद एक मित्र ने कॉलेज के मित्रों का वाह्ट्सऐप पर एक ग्रुप बनाया। अब कन्हैया मृदुला के साथ अपना मोबाइल नम्बर देख प्रफुल्लित हो उठता है। नम्बर भी दोनों का कान्टेक्ट लिस्ट में फ्लैट की तरह ऊपर नीचे है। 


मृदुला जब भी बच्चों के फोटो ग्रुप में शेयर करती है और बच्चों से कन्हैया को मामा के नाम से परिचय कराती है तो कन्हैया का दिल धक् हो जाता है। तेजी से आँखे बंद कर ग्रुप से लेफ्ट कर जाता है और मन ही मन बुदबुदाता है जैसे भीष्म प्रतिज्ञा ले रहा हो..


ग्रुप में उसके बेहिसाब आवागमन पर बेखबर पुराने साथी भी समाधि लगा लिये है....


@डॉ विपिन पाण्डेय "व्याकुल"

रविवार, 3 जुलाई 2022

गुलाब पन्नों के

 


बहुत दिन हो गये थे पुराने कॉलेज गये हुयें। कैंटीन याद आ रहे थे। घंटों लाइब्रेरी में बैठ कर किताबों में गुम रहना मन को बेचैन कर रहे थे। आगरा के उस कॉलेज के अंतिम दिन हम सभी गमगीन थे। उदास थे पता नही कब मुलाकात होगी। एक डायरी हाथ में थी सभी एक-दूसरे का नाम पता लिख रहे थे। 


कई बार प्लान बनता फिर कैंसिल हो जाता। किसी को कोई इंन्टेरस्ट ही नही था। पत्नी भी कई बार झिड़क चुकी थी। क्या करेंगे वहॉ जाकर। मै चुप हो जाता।


सात दिन बाद पत्नी की भतीजी की शादी थी आगरा में। पैकिंग चल रही थी। मुझे भी खुशी थी जाने की। कम से कम 25 सालों बाद अपना कॉलेज तो देख पाऊँगा।


इंतजार की घड़ियां खत्म हुई। हम सभी आगरा के एक अच्छे से होटल में ठहराये गये थे। मुझे तो अगली सुबह का इंतजार था। सुबह ही नहा लिया था। पत्नी से मेरी खुशी देखी नही जा रही थी। मुझसे बोली, "ताजमहल चलेंगे क्या।" मैने बोला, "नही, अपने कॉलेज।" मुँह बनाकर चुप हो गयी थी वों।


मै सज धजकर ठीक 10 बजे कॉलेज प्रांगण में था। कोना-कोना मुृझे अपनी ओर खींच रहा था। मै पागल सा घूम रहा था। लाइब्रेरी पहुंचते ही मै सबसे पहले साहित्य वाले सेक्शन में पहुंच गया। बड़ी बेसब्री से एक उपन्यास ढूंढ़ने लगा। कई बार पूरे सेक्शन को छान मारा पर नही मिला। 


बड़े बेमन से बाहर जाने लगा तभी एक मैम मिली जिनके सफेद बाल बिखरे हुये बेतरतीब से कपड़े पहने हुये थी। बॉयें तरफ का कैनायन दाँत टूटा हुआ था। पुराने जमाने की टुनटुन लग रही थी। वो लाइब्रेरी स्टाफ थी शायद। मुझसे बोली, " आप क्या ढूंढ़ रहे है।" मैने बोला, "एक उपन्यास।"


उन्होनें एक पुराना सा बंद अलमारी खोला। बोली, "यहां देखिये.. शायद मिल जाये।" उपन्यास एक बहाना था मुझे तो उस पुस्तक के पेज नं. 54 पर रखे गुलाब को ढूंढ़ना था जो उसका रोल नं. भी था। अलमारी के दूसरे खाने में पुस्तक देखते ही मेरे आँखों में चमक आ गयी थी। जल्दबाजी में पन्ने पलटते ही वों सूखा गुलाब नीचे गिर गया था। मै उठाने ही जा रहा था। तभी मैम ने बोला, " राकेश!!!!!"


मै सन्न था उनको देख कर। मेरे मन में वही गुलाब वाली लड़की बसी थी। मै समझौता नही कर सकता था😃😃 मै बस यहीं बोल पाया.. "मै राकेश नही।"


किसी तरह घर आया। पत्नी बोली, "घूम आये कॉलेज।" 


मै कोमा से निकलने की कोशिश में था।😃


@डॉ विपिन पाण्डेय "व्याकुल"

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...