राह पर
रहु
या वजह बनु
छॉव की
खुद जलु धूप
पी कर
या ज्वाला की
ताप
सहूँ
अन्न पकने को..
कपकँपाते हाथ
से सहलाते
ओस से
सिहरते
बदन
बन सकु
राख
किसी का..
बना ही
रहूँ
कृशकाय
अभिलाषा
लिये दधीचीं का
पर
बोझ न बनु
किसी
दीन का...
@व्याकुल
आस पास तड़पते लोगो को देखना और कुछ न कर पाना कितनी कोफ़्त होती है न। व्याकुलता ऐसे ही थोड़े न जन्म लेती है। कितना तड़प चुका होगा वो। रक्त का एक एक कतरा बह रहा होगा। दिल से कह ले या आँखों से। ह्रदय ग्लानि से कितना विदीर्ण हो चुका होगा। पैर भी ठहर गए होंगे। असहाय इस दुनिया में सिवाय एक निर्जीव शरीर के।
राह पर
रहु
या वजह बनु
छॉव की
खुद जलु धूप
पी कर
या ज्वाला की
ताप
सहूँ
अन्न पकने को..
कपकँपाते हाथ
से सहलाते
ओस से
सिहरते
बदन
बन सकु
राख
किसी का..
बना ही
रहूँ
कृशकाय
अभिलाषा
लिये दधीचीं का
पर
बोझ न बनु
किसी
दीन का...
@व्याकुल
मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...