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सोमवार, 30 दिसंबर 2024

डोम तम्बू

नीचे चित्र देना अत्यावश्यक हो गया था। अब धर्म का भी व्यवसायीकरण हो गया है। सोशल मीडिया डोम तम्बू के साथ तैर रही इस प्रचार को देखे, "इस डोम सिटी मे गोलाकार आकार मे ट्रांसपेरेंट 360 डिग्री से कुम्भ मेले का अनोखा नज़ारा लें इस डोम तम्बू को काफ़ी ऊंचाई पर बनाया गया हैँ जहाँ से बेड पर लेट कर भी कुम्भ का नज़ारा ले सकते हैं।


ये कुंभ मेला में सबसे महंगा रेसिडेंशियल स्पेस है जहां एक रात के लिए 80,000 से 1,20,000 चुकाने होंगे।"

हमारे भारत में सैकड़ो ऐसे उदाहरण है जहां लोगो ने राजपट त्यागा फिर धर्म में आगे बढे। पर ऐसा कभी हुआ है कि 360 डिग्री से धर्म मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।

क्या यह सिर्फ धनाढ्य लोगो तक ही सीमित रहने वाली है। व्यभिचार व पर्यटन का सबसे सस्ता प्रचार है। जबकि विदेशियों को मथुरा व बनारस की गलियां ही अधिक भाती है...

हिन्दुस्तान में धनाढ्य कितने ही है आखिर। रिपोर्ट भी कुछ ऐसा कहती है "भारत में आय वितरण शीर्ष पर अत्यधिक केंद्रित है। शीर्ष 10% (9 करोड़ लोग) औसतन 13 लाख रुपये से अधिक वार्षिक आय अर्जित करते हैं। शीर्ष 1% (90 लाख लोग) सालाना 53 लाख रुपये से अधिक कमाते हैं, और शीर्ष 0.1% (9 लाख लोग) 2 करोड़ रुपये से अधिक कमाते हैं। शिखर पर, शीर्ष 0.01% (लगभग 10,000 लोग) सालाना 10 करोड़ रुपये से अधिक कमाते हैं, और शीर्ष 9,223 व्यक्ति औसतन 50 करोड़ रुपये कमाते हैं।"(https://sabrangindia.in/the-growing-divide-a-deep-dive-into-indias-inequality-crisis/)

@डॉ विपिन पाण्डेय"व्याकुल"

शनिवार, 4 सितंबर 2021

तपस्वीं

प्रयाग ज्ञानियों का आश्रयस्थल कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी.. न डिगे.. न टरे वाले तपस्वीं जो मेज-कुर्सी ठेले पर लाद लॉज तक बाखुशी लाये होंगे जहॉ बैठ अथक तपस्या कर सके। तौलिया का आश्रय स्थल जरूर कुर्सिया रही होंगी। हाथों की कुहनियॉ को सहारा देते मेज की भी आह निकल गयी होगी। कई बार तो उसने माथों को चूमा होगा जब हताश परेशान मेज पर सर टिका दिया होगा। तपस्या का आलम देखिये किं मेरे एक जानने वाले की कुहनियों पर चटाई का निशान बन गया था। 


भारत देश के लोग वैसे भी भरपूर आध्यात्मिक  होते है.. किसी पूर्व तपस्वी ने जरूर मार्ग बताया होगा कि यही वो जगह है जहॉ पर तपस्या सफल होती है.. फिर क्या था अनगिनत तपस्वियों ने योग मार्ग अपना लिया।


अल्लापुर हो या दारागंज या एलनगंज या कटरा हो... इलाहाबाद के तपस्वियों के लिये किसी एकांतवास से कम नही.. मन भटक ही नही सकता.. बगल के तपस्वी को देख पूर्णरूपेण दार्शनिकता व उर्जा घर कर जाती है.. मन भटकने का सवाल ही नही...


प्रयाग टेशन पर ट्रेन रुकते ही माघ जैसा दृश्य... साथी द्वारा तुरंत सामान की तलाशी जैसे कोई जड़ी-बूटी ढूंढ़ रहे हो। लईया.. गुड़..गट्टा.. बताशा.. कुछ भी मिल जाये.. ये किसी विटामिन से कम है क्या..लिये नही किं फिर हो जाते है ईश्वर में लीन। 


भगीरथ जरूर गंगा धरा पर लाये होंगे.. पर न जाने कितने भगीरथ प्रयास हुये होंगे ज्ञान रूपी गंगा को जन-जन तक पहुँचाने में। 


सरस्वती मॉ की रात दिन वन्दना करते इन तपस्वियों को बारम्बार नमन करता हूँ.... और यह श्रृंखला 135 वर्षो से जो आज तक सतत् बनी हुई है.... भविष्य में भी ऐसी ही धारा बनी रहनी चाहिये...

@व्याकुल

सोमवार, 13 अप्रैल 2020

इलाहाबाद

कहाँ से शुरू करू??
कर्मस्थली इलाहाबाद!
बचपन इलाहाबाद!
आध्यात्मिक इलाहाबाद!

मीरापुर के एम. एल. कान्वेंट से स्कूली शिक्षा प्रारम्भ होकर जमुना क्रिश्चियन से होते हुए जी. आई. सी. तक हुई।

जमुना क्रिश्चियन में पढ़ाई के दौरान बेंत आज भी याद है। यहॉ पढाई के दौरान कॉलेज के पीछे जमुना घाट तक चले जाने का साहस करना फिर डरते रहना कोई गुरू जी न आ जायें।

जी. आई. सी. इलाहाबाद में पढ़ाई के दौरान हिन्दी की कक्षाओं में गायब हो जाना और कई बार पकड़े जाना। हिन्दी के वही गुरू जी का हमारी आयु के हिसाब से बाते करना व साथी विद्यार्थीयों का ठसाठस कक्षा में पुनः अवतरण।

कौन इलाहाबाद को भूलना चाहेगा चप्पल घिसना माघ मेले में। एकाएक मूड बना लेना फिर साईकिल से कटरा स्थित सिनेमा देख आना।

बड़े होने का या बौद्धिक प्राणी का अहसास करना होना हो तो कॉफी हाऊस घूम आना।

दोस्तों के साथ रात में पार्टी फिर सिविल लाईन्स चर्च पर फोटो खिचवाना।

अंतहीन सिलसिला है.. तन कही भी रहे मन घूम फिर कर इलाहाबाद ही अटक जाता है असीम यादें है जो चिरन्तन है।

वासी मीरापुर। विश्वविद्यालय में प्रवेश करते ही सिविल का भूत समा जाता है वहाँ से गिरे तो डॉक्टरेट या कुछ कर गुजरने का नशा पलकों पर विराज हो ही जाता है।

वाह रे इलाहाबाद!!!!!

@व्याकुल

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

इलाहाबादी चुनाव

मुझे अपने जीवन का पहला चुनाव याद है जब अमिताभ जी चुनाव लड़े थे इलाहाबाद से । उस समय का एक नारा बड़ा प्रसिद्ध हुआ था..आई मिलन कि बेला .........ऐसे ही कई नारे प्रचलन में आ गये थे..स्कूल मे अध्यापिकाएं सिर्फ अमिताभ कि बात करती थी। प्रतिदिन कुछ न कुछ नयी कहानी कक्षाओं में होती थी। ऐसा लगता था फिल्मी स्टार दूसरी दुनिया से होंगे। बड़ा मजा आता था उन दिनों। मेरे घर के बगल से जया जी की गाड़ी निकली तो सारा मोहल्ला पीछे पीछे। शॉल को बाँह के नीचे से लपेटकर पहनने का फैशन की शुरूआत भी तभी से मानी जाती हैं।  

उस समय चुनाव में मेला जैसा माहौल हुआ करता था। अनाप सनाप खर्च होता था और ध्वनि प्रदुषण अलग से।

अब तो इतनी सख्ती हो गयी है कि पता ही नहीं चलता और चुनाव हो गया .............................

@व्याकुल

धाकड़ पथ

 धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...